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UPSC में लैटरल एंट्री का नया सिस्टम क्यों चाहती है सरकार

मौजूदा सरकार ने कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग को  सिविल सेवाओं में लैटरल एंट्री का प्रावधान करने के लिए ड्राफ्ट तैयार करने के लिए कहा है। लैटरल एंट्री ऐसा प्रावधान है जिसके ज़रिये सम्बंधित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को कुछ शर्तों के साथ सिविल सेवा का हिस्सा बना लिया जायेगा। इस प्रावधान के नफा-नुकसान तथा इसके पीछे छुपी राजनीतिक मंशा को भी देखा जाना आवश्यक है।

कहा ऐसा जा रहा है कि ऐसा करने से सरकार को उनके अनुभव का फायदा मिलेगा लेकिन इसके पीछे वजह कुछ और ही है। इसीलिए इस कदम का बहुत से कारणों से विरोध किया जाना आवश्यक है। प्रशासनिक सेवाओं में एक कैंडिडेट को हर क्षेत्र की आवश्यक आधारभूत जानकारी होना आवश्यक है। लेकिन निजी क्षेत्र में ऐसा होना कतई आवश्यक नहीं है। अगर आप किसी सफल व्यवसायी के बेटे हैं और कुछ साल अपनी ही कंपनी में किसी पद पर काम चुके हैं  तो आप आसानी से पीछे के दरवाज़े, जिसे सरकार लैटरल एंट्री का नाम दे रही है,का प्रयोग कर प्रशासन में घुस सकते हैं।

प्रशासनिक सेवा में अधिकारियों की कमी कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं रह गया है। लोकसभा में केंद्रीय मंत्री द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार देश में अभी भी 1400 आईएएस, 900 आईपीएस और 560 वन सेवा के अधिकारियों की आवश्यकता है। कई बार यूपीएससी नोटिफिकेशन में दर्शाई गयी रिक्तियों से भी कम लोगों की भर्ती किये जाने की सिफारिश करता है। क्यों? क्योंकि उन्हें उस काबिलियत के लोग नहीं मिलते जो प्रशासन को संभाल सकें। तो फिर निजी क्षेत्र में काम करने वाले किसी व्यक्ति को किस आधार पर आप नियुक्त कर सकते हैं ? सिर्फ इस आधार पर कि उसे उस क्षेत्र में अनुभव रखता है। अगर हाँ तो,ऐसी स्तिथि में आप उसे किसी प्रोजेक्ट कि लिए या कुछ समय कि लिए सलाहकार तो रख सकते हैं लेकिन पूर्णकालिक नियुक्ति उन लाखों छात्रों से धोखा है जो इस उम्मीद में प्रयासरत हैं कि उन्हें विचारों को भी प्रशासन में कोई तवज्जो दी जाएगी। अगर निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोग वाकई अपने अनुभव का फायदा देश को देना चाहते हैं तो क्यों ना अपना काम छोड़कर सिविल सेवा परीक्षा में लग जाएँ।

सरकार का यह कदम बड़े रसूखदार घरों कि उन बच्चों क़े लिए है जिन्हे प्रशासनिक जीवन का आकर्षण तो है लेकिन वो उस तपस्या क़े लिए तैयार नहीं हैं जो लाखों विद्यार्थी भारत क़े विभिन्न शहरों में रहकर करते हैं।

अगर कल को सरकार की चहेती कंपनी के मालिक को सरकार ने सलाहकार नियुक्त कर लिया तो हैरान मत होइएगा।

लेकिन इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि सरकार को लैटरल एंट्री की आवश्यकता ही क्यों पड़ी होगी। कहा गया है कि सफल उद्यमियों, शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को लैटरल एंट्री के तहत सिविल सेवाओं का अंग बनाया जायेगा जिससे उनके अनुभव, प्रतिभा तथा ज्ञान का अनुभव सरकार और देश को मिल सके।

लेकिन प्रश्न ये है कि जब यूपीएससी जैसी संस्था पहले से ही देश के मेधावी छात्रों को को छांटकर इस सेवा में भर्ती करती है तो फिर लैटरल एंट्री देने की आवश्यकता ही क्या है? कौन ये तय करेगा की कौनसा उद्यमी ज्यादा सफल है? और कौन सा सामाजिक कार्यकर्ता ज्यादा लोकप्रिय? अगर इसे सीधे शब्दों में समझने का प्रयास किया जाए तो सोचा समझा प्रयास है जिसके तहत उन लोगों को को प्रशासन में पीछे की दरवाज़े से घुसाने का प्रयास है जो सरकार के करीबी तो हैं लेकिन इतने मेधावी नहीं हैं कि अपने बूते सिविल सेवा में प्रवेश पा सकें।

सिविल सेवा बेहद चुनौतीपूर्ण परीक्षा मानी जाती है तथा लाखों छात्र इस सेवा का हिस्सा बनने की लिए अपना करियर तक दांव पर लगा देते हैं। अब इन छात्रों की तुलना उस इंसान से कीजिये जिसने अपने बाप-दादा की जमी जमाई कंपनी में कुछ साल सहायक की नौकरी की हो तथा उसे सरकार केवल इसलिए किसी विभाग का सहायक निदेशक या संचालक बना दे क्योंकि उनके घर वालों ने सत्ताधारी पार्टी की फंडिंग की है या चुनाव में किसी तरह से सहायता की है, या निजी एवं पारिवारिक रिश्तों की कारण वो ऐसा करने पर मजबूर हुए हैं। क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है?क्या यह व्यवस्था से मनमाफिक खिलवाड़ नहीं है?

सरकार से संबंधित विभिन्न संचार माध्यम इस झूठ को फैलाने में लगे हुए हैं कि यह कदम उन लोगों को राष्ट्र निर्माण में जोड़ने का काम करेगा जो किसी वजह से निजी क्षेत्र में काम कर रहे हैं तथा सरकार की लिए उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। अगर ऐसा है और उन लोगों को देश के विकास की इतनी ही चिंता है तो क्यों ना वे सभी लोग अपनी नौकरी छोड़ दें और सिविल सेवा की तैयारी में लग जाएँ। क्यों उन्हें पीछे के दरवाज़े से घुसाने की कोशिश की जा रही है जिसने सिर्फ उनका अनुभव ही देखा जायेगा जबकि सिविल सेवा  में भर्ती होने वाले किसी भी व्यक्ति की लिए हर विषय में आधारभूत ज्ञान आवश्यक है।

दूसरा, यह एक पैंतरा यह भी है जो भर्ती होने वाले तथा भर्ती करने वाली सरकार दोनों की लिए कार्य करेगा। सरकार की तब्दीली होते ही अधिकारियों के तबादले शुरू हो जाते हैं। निश्चित ही हर सरकार के अपने पसंदीदा अफसर होते हैं। लेकिन इस कदम से हर आने वाली सरकार में होड़ शुरू हो जाएगी कि अपने थोड़े बहुत पढ़े-लिखे तथा नज़दीकी कार्यकर्ता को प्रशासन का हिस्सा बना दें भले ही वह उस काबिल भी न हो। तब आप किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं रह जाते। और कार्यकाल पूर्ण होने से पहले निकाला जाना कल्पना की बाहर की चीज़ है।

अगर इसका विरोध न किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब जिस पार्टी का मंत्री होगा उसी पार्टी का कार्यकर्ता अफसर बनके उसके सामने खड़ा होगा,लैटरल एंट्री के द्वारा।

सरकार की अतार्किक नीतियों के कारण ही उसे समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इससे पहले भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को प्रशासन में नौकरियां दी गयी थी। क्या परिणाम हुआ इस कदम का वह सबके सामने है। उन खिलाडियों में से ज़्यादातर  ने उसके बाद ना कोई पदक जीता और न ही प्रशासन में कोई ऐसा कदम उठाया जिसे सराहा जा सके। वे किसी भी अन्य सरकारी अधिकारी की तरह अपना कार्यकाल समाप्त होने का इंतज़ार कर रहे हैं। लैटरल एंट्री के अधिकारियों की स्तिथि भी कोई ज्यादा बेहतर नहीं होने वाली है। वो राजनीतिक दलों के चहेते भर होंगे जो उनके सत्ता से बहार हो जाने पर भी एजेंट का काम करेंगे। यकीन मानिये इसका देश हित से कोई सरोकार नहीं है।

लेकिन ऐसा नहीं है कि इस समस्या का कोई हल नहीं है। अगर वाकई कोई समस्या है जिसे निजी क्षेत्र के प्रतिभाशाली लोगों कि बिना नहीं सुलझाया जा सकता तो कुछ लोगों को मानद किसी संस्था का मानद सदस्य बनाया जा सकता है जिससे समय समय पर उनकी प्रतिभा का लाभ देश को भी मिल सके।

इसका एक और उपाय यह हो सकता है कि पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की तरह ही ऑल इंडिया टेक्निकल सर्विसेज के रूप में एक और श्रेणी बना दी जाये जिसमे पास होने वाले लोगों को सिर्फ व्यवसाय , तकनीकी और निजी क्षेत्र से मेल खाती चीज़ों की जानकारी दी जाये और उन्हें केवल उसी क्षेत्र में प्रयोग किया जाए। लेकिन अगर सरकार किसी सामाजिक कार्यकर्ता को किसी तकनीकी संस्था का डायरेक्टर बनाने का मन  बना चुकी है तो उसके लिए शुभकामनाएं।

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