धीरे से पर्दा हटाकर जब खिड़की से देखा तो बहुत राहत मिली कि चलो आज बारिश नहीं हो रही, कम से कम आराम से जाउंगी। कपड़े बदले, बाल खोले और लिपस्टिक लगाकर चल पड़ी। ऑटो लेकर गूगल मैप देखते हुए हॉल तक पहुंच गई। बांद्रा के G7 मल्टीप्लेक्स में गई थी, यह 1972 में बना था। थोड़ा सहम गयी थी अंदर की सीढ़ियां देख कर, भीड़ कम थी और ऊपर चढ़ते-चढ़ते डर लग रहा था। छोटे से शहर से हूं, मुंबई की भीड़ में अक्सर डर लगता है। खैर, हॉल में अपनी सीट पर बैठने के बाद पता चला मेरी कोने वाली सीट है और बगल वाली दो सीटें खाली हैं। अजीब सी राहत मिली, पता नहीं क्यों। ‘लिपस्टिक अंडर माय बुरका’ देखने आयी थी, काफी कुछ कहा जा रहा है इस फिल्म के बारे में।
मैं बिहार में पली बढ़ी हूं, आज भी वहां कई परिवार हैं जो लड़कियों को घर से बाहर भी नहीं निकलने देते। हिन्दू हो या मुस्लिम, ज़्यादातर परिवार ऐसे ही हैं। माहौल ऐसा रहा है कि मैंने भी कई बार कई तरह की लड़ाइयां की हैं अपने परिवार में। अपनी आज़ादी के लिए, अपने हक़ के लिए।
मेरे पिता एक बेहतरीन इंसान है, कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है। अब उनकी उमर 58 है, सोच पुरानी ही है। लोग कहेंगे पिछड़ी हुई सोच है, पर नहीं। वो पुराने रिवाज़ों को मानते हैं, औरतों की सीमा को सही समझते हैं और अक्सर ऐसी बातें बोलते हैं कि उन्हें आज की इंटरनेट रेवोल्यूशन वाली पीढ़ी के लोग ‘मिसोजनिस्ट’ या ‘पैट्रियार्कल’ करार देने में दुबारा नहीं सोचेंगे। पर वो बेहतरीन इसलिए हैं क्यूंकि वो अपनी सोच को बदलने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। उन्हें कभी भी किसी बात पर टोक दो, सवाल-जवाब कर लो, वो समझते हैं, सोचते हैं और मानते हैं कि शायद उनकी सोच गलत है।
इस तरह कई बार 24 सालों से लड़-लड़ कर आज तक अपनी बातें मनवाई हैं। अपनी आज़ादी की ज़रूरत समझाई है। खैर गहराई में वो आज भी यही मानते हैं कि मेरा अस्तित्व एक लड़के से ही होगा, मेरी शादी से ही होगा, लेकिन उसका कुछ नहीं कर सकते!
अब आते हैं फिल्म पर, फिल्म अच्छी लगी मुझे। एक 55 साल की औरत सेक्स चैट करती है, एक बुरके वाली लड़की इंग्लिश गाने गाती है। एक मोहल्ले की लड़की भागकर बिज़नेस करना चाहती है और एक 3 बच्चों की माँ बुरखे के भीतर से हिम्मत करके कॉन्डोम खरीदने जाती है। यह सब हम रोज़ नहीं देखते या शायद कभी नहीं देखते। फिल्म अच्छी है, बहुत अच्छी है। ऐसे मुद्दों की बात की है जो ना 18 साल की लड़की और ना 55 साल की औरत खुलकर कर सकती है। इस फिल्म में ऐसे अरमान दिखाए गए हैं जो घूंघट और बुरके के अंदर ही पैदा होते हैं और वहीं मर जाते हैं। ना घर की बेटी और ना ही मोहल्ले की मुखिया इन अरमानों को खुलकर बयां कर सकती है। सही डायलोग है, “हमारी गलती यह है कि हम सपने बहुत देखते हैं।”
पहले मैंने अपने पिता की बात इसलिए की क्यूंकि कहीं न कहीं हमारी ख़ुशी आज भी किसी मर्द से ही जुड़ी है। जैसे मेरी उनसे जुड़ी है, उनकी आंखों में अपने लिए गर्व देखने से जुड़ी है। फिल्म में भी कुछ ऐसा ही था, उन सबकी ज़िंदगी किसी मर्द पर आकर थम जाती है। यही गलत है, अपनी ख़ुशी सिर्फ अपनी आज़ादी और अपनी कामयाबी से होनी चाहिए, किसी मर्द की सहमति से नहीं।
मेरी बस एक छोटी सी शिकायत रह गई इस फिल्म से, इस फिल्म का अंत। जहां यह फिल्म ख़त्म होती है, वहीं हमारी असली परेशानियां शुरू होती हैं।
जब एक लड़की के ऐसे सपनों की सच्चाई जो समाज के लिए ‘गलत’ हो, दुनिया के सामने आती है तो समाज उसे दीवारों में बंद कर देता है। अपनी ‘इज्ज़त’ बचाता है, ना कि उसे आज़ादी से एक कमरे में बैठकर सिगरेट पीने के लिए छोड़ देता है। है न?
जब आप फिल्म देखें तो सोचियेगा कि इसके बाद क्या होता है हमारे साथ। तभी सच में इस फिल्म से कोई बदलाव आएगा। निर्माताओं का शुक्रिया, उम्मीद है आगे और ऐसी फ़िल्में बनेंगी। वैसे एक बात बताइए, आप हमारी आज़ादी से इतना डरते क्यों हैं??