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इस देश का आदिवासी गाय भी ना हो सका, जो सुरक्षित रहता

इन सत्तर सालों में भारतीय राज्यों का विकास तो हुआ लेकिन जहां आदिवासी समुदाय निवास करते हैं, वो राज्य शुरू से ही हाशिये पर रहे। जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा में आदिवासियों के ना जाने कितने विद्रोह हुए, शायद इतनी लम्बी लड़ाई भारत के जागीरदारों, सामंतों और राजाओं ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध भी नहीं लड़ी होगी। इतिहास गवाह है कि आदिवासियों को जब हिंसा, संहार और उपेक्षा की राजनीती और कूटनीति का शिकार बनाया गया तब आदिवासी समाज ने उस अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई है। जब आदिवासियों को अन्याय, अत्याचार और अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ तो आखिर में हिंसा के लिए उन्होंने अपने पारम्परिक हथियार उठा लिए और पिल पड़े अत्याचारियों पर।

ओडिशा के बोंडा आदिवासी

उन्हें रोकने के लिए निहायत ही क्रूर और अमानवीय तरीके अपनाए गए। 16वीं से लेकर 20वीं सदी के अंत तक आदिवासी समुदाय कई छुटपुट विद्रोह करते रहे ताकि अपने जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा कर सकें। आज़ादी के उपरान्त देश की सत्ता राजनीतिक दलों एवम उनके नेताओं के हाथों में सौंप दी गई। संगठित राज्यों का संघ अब स्वतंत्र भारत कहलाया। लेकिन दुखद बात यह हुई कि आज भी भारत के उन संघीय प्रांतों में आदिवासी समाज अलग-थलग पड़ा है। इनकी सुधि लेने की फुरसत किसी भी राज्य के प्रधान या विधानसभा सदस्यों को नहीं है।

वो आदिवासियों की ज़मीन तो चाहते हैं लेकिन आदिवासियों को नहीं। आदिवासियों की स्थिति वैसी की वैसी ही है। अपने ही देश के लोगों से लड़ता आदिवासी कभी नक्सलवाद के नाम पर मारा जाता है तो कभी विकास के नाम पर, अपनी ही भूमि से विस्थापित हो जाता है और कभी वन्य अभ्यारण एवं उनके संरक्षण के नाम से जंगलों से खदेड़ दिया जाता है।

आज अगर आदिवासी समाज अपने जल, जंगल और ज़मीन की बात करता है तो उन्हें झूठे केस में या तो जेल में डाल दिया जाता है या फिर नक्सलवाद के नाम पर सरकारी गोलियों का शिकार बनाया जाता है।

झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की आदिवासी भूमि गवाह है कि उनकी आवाज़ को दबाने के लिए आदिवासी गांवों में सेना द्वारा बलात्कार तक किया गया। आदिवासी औरते जंगलो में और कंदराओं में खुद को बचने के लिए मारी-मारी फिरती रही। कई समाजसेवक इस अन्याय और अमानवीयता के खिलाफ अखबारों और पत्रिकाओं में अपनी चिंता ज़ाहिर करते रहे हैं लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने आदिवासियों की समस्या, सुरक्षा एवं उनके संवैधानिक अधिकारों की बात संसद में नहीं की। बल्कि उसके विपरीत सरकार और उनकी नीतियों ने आदिवासियों की कीमती ज़मीन कौड़ियों के भाव खरीदकर उद्योगपतियों के हाथो में सौंप दी। और इसके बदले में क्या मिला आदिवासियों को?

आदिवासी बहुल राज्य झारखण्ड में सरकार जिस आक्रामकता के साथ आदिवासियों के अधिकार को संरक्षित करने वाले कानून छोटा नागपुर कास्तकारी अधिनियम 1908 (CNT-Act) और संताल परगना कास्तकारी अधिनियम 1948 (SPT-Act) में पुनः संशोधन के लिए आतुर है! क्या इन्हे यह अहसास नहीं है कि पहले भी कई बार उन कानूनों में संशोधन किए गए थे, लेकिन परिणाम क्या हुआ? उन संशोधनो से कितने प्रतिशत आदिवासियों का विकास हुआ? शायद सरकार के पास इस सवाल का जवाब नहीं होगा।

2012 में झारखंड सरकार ने एक कमिटी भी बनाई थी, जिसमें स्पेशल इंविस्टिगेशन टीम तैयार की गई थी ताकि गैरक़ानूनी तरीके से ली गई आदिवासियों की भूमि की जांच की जा सके। लेकिन आज तक ना तो कोई रिपोर्ट आई ओए ना ही दोषियों पर कोई कार्रवाही की गई।

चलिए मान लें कि झारखण्ड की वर्तमान सरकार आदिवासियों के विकास के लिए  प्रयासरत है। विगत सत्रह वर्षो में राज्य में तीन बार सरकार बनी, राज्य के विकास के लिए बजट भी बने। क्या सरकार  यह बताने की ज़ेहमत करेंगी कि केंद्र सरकार द्वारा आदिवासी उपयोजना के तहत दिए गए कोष का कितना प्रतिशत आदिवासियों के विकास पर खर्च किया गया? आखिर T.S.P. कोष का पैसा झारखण्ड के किस आदिवासी अंचल में खर्च किया गया?

यह हाल सिर्फ झारखण्ड का ही नहीं वरन उन सभी दस राज्यों की है, जहां अनुसूचित क्षेत्र को चिन्हित किया गया है। आज़ादी के इतने सालों बाद भी सरकारी सुविधाएं अनुसूचित क्षेत्र के लोगों तक ना पहुंचने का कारण- मंत्रियों, विधायकों और सरकारी विभागों की लापरवाही और मनमानी तो नहीं है? ऐसे कई आदिवासी गावं हैं जहां पक्की सड़क देखने को नहीं मिलेगी। कई ऐसे गांव हैं जहां स्कूल किसे कहते हैं, लोग नहीं जानते। अगर स्कूल हैं भी तो शिक्षक का कोई अता-पता नहीं। आधुनिक जीवन क्या होता है, उन्हें नहीं पता। अब ऐसे समुदाय के बच्चे बड़े शहरों के लोगों के साथ कैसे स्पर्धा कर पाएंगे? कैसे वो शिक्षक, अधिकारी, जज, वकील या व्यवसाई बनेंगे? ऐसे समुदाय के लोग आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए नहीं होंगे तो और क्या होंगे? वो लोग सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक बराबरी की बात कैसे करेंगे?

संविधान के अनुच्छेद 366 (25) और अनुच्छेद 344 में  ‘अनुसूचित जनजाति’ में शामिल किए जाने के कुछ मापदंड निर्धारित किए गए हैं।

आदिवासी सामाजिक जीवन दर्शन और अर्थव्यवस्था कृषि और जंगल पर निर्भर है, लेकिन कृषि की दयनीय व्यवस्था और जंगल के कानून (Forest Right ) ने इन आदिवासियों को मालिक से मज़दूर बना दिया है। आज आदिवासी माहिलाएं अपने और अपने परिवार के पेट की आग बुझाने के लिए महानगरों में तथाकथित सभ्य समाज की जूठन धो रही हैं। शारीरिक और मानसिक शोषण का शिकार हो रही हैं। आखिर भारतीय समाज में आदिवासियों के प्रति ऐसा बेरुखी भरा नज़रिया क्यों है? क्या उन्हें आदिवासियों के जलते घर नहीं दिखाई पड़ते! क्या उनकी चीखें सुनाई नहीं देती! उनका दर्द नहीं दिखाई देता! मासूम आदिवासी युवतियों और महिलाओं के साथ किए जा रहे अमानवीय कृत्य नहीं दिखते!

आज देश में गाय सरीखा प्राणी भी संरक्षित और सुरक्षित है लेकिन आदिवासी समुदाय की गिनती क्या पशु में भी नहीं? जब देश के प्रथम निवासियों की सुरक्षा, उनके हक़ की बात होती है तो सबको सांप सूंघ जाता है, ऐसे में आदिवासी अपनी सुरक्षा के लिए हथियार ना उठाए तो क्या करे? आदिवासी समाज अपनी सुरक्षा के लिए देश और सरकार से आस ना लगाए तो फिर किसके पास जाए? उनके तीर, धनुष, गुलेल, गोफन आदि पुलिस ज़ब्त करती है तो क्या यह शोभनीय कार्य है?

पिछले वर्ष झारखण्ड के दुमका जिले में एक आदिवासी हॉस्टल से छात्रों के कमरे से जिस तरह तीर धनुष ज़ब्त किए गए, अगर उसी तरह ‘सिख सम्प्रदाय’ के किसी व्यक्ति से कृपाण या किसी गोरखा से ‘खुखरी’ ज़ब्त कर ली जाए तो? अन्य सम्प्रदाय के लोग अपने पर्व-त्यौहार में तलवार, भाला या डंडा आदि का प्रदर्शन करते हैं, अगर उन्हें भी ज़ब्त करते तो ना जाने इस देश में क्या गज़ब हो जाता।

आखिर ये सब आदिवासियों के साथ ही क्यों? धर्मवाद और सम्प्रदायवाद में फिट नहीं होने वाला आदिवासी समाज, आज सबसे ज़्यादा ‘धर्म’ और ‘सम्प्रदायों’ के दबाव में है। क्या आदिवासी समाज अपने जल, जंगल और ज़मीन, आत्मसम्मान, सामाजिक न्याय, समानता, अपने प्राचीन रीती रिवाज़ों, भाषा और संस्कृति की रक्षा की बात भी ना करे? यह  तो सरासर अन्याय है, जिसे आज सम्पूर्ण भारतीय समाज को गंभीरता से सोचना पड़ेगा।

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