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वो खेलीं वो जीतीं, लेकिन ईनाम क्या मिला, बस पुरुषों से तुलना

मुबारक हो! भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने वर्ल्ड कप में ऑस्ट्रेलियाई टीम को हरा दिया और फाइनल में पहुंच गई। जश्न की बात है, जश्न होना भी चाहिए। लेकिन भारतीय महिला टीम पहले भी लगातार कई मैच जीती है, फाइनल में भी पहुंची है। पहले तो ऐसा नहीं हुआ। इस बार जश्न अलग सा है। दरअसल भारतीय क्रिकेट अभी उस बड़े सदमे से उबरा नहीं है जब पाकिस्तान ने भारत को बुरी तरह हरा दिया और इसके साथ ही ‘मौका-मौका’ की रट लगाए, पाकिस्तानियों को चिढ़ाने की ताक में बैठे लोगों का ‘मौका’ उनसे छिन गया। अगर ठीक-ठीक याद हो तो अचानक उसी दिन लोगों ने पुरुष हॉकी को एक रात के लिए गोद ले लिया था, क्योंकि उसने उसी दिन पाकिस्तान को हराया था, वरना हॉकी टीम की जीत एक हेडलाइन से ज़्यादा क्या जगह बनाती भला..!

ठीक यही वो समय था जब भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने पाकिस्तान की महिला टीम को हरा दिया और ‘मौका-मौका’ वालों को अपनी साध पूरी करने का मौका कहीं और से मिल गया। खेल शानदार था, वाकई लाजवाब! लेकिन लोग उसे बड़े पैमाने पर क्यों देख रहे थे? क्या इसलिए क्योंकि भारतीय प्रशंसक महिला क्रिकेट टीम के सारे मैच देखते और फॉलो करते रहे हैं? या फिर इसलिए क्योंकि उनके अन्दर की कुंठा को बाहर निकलने के लिए एक संकरी गली मिल गई थी वरना कहां लोगों को मिताली राज के अलावा किसी और महिला खिलाड़ी का नाम भी मालूम था..!

भूलिए नहीं कि ये उसी समाज की बात है जहां कोई रिपोर्टर पुरुष खिलाड़ी से उसकी पसंदीदा महिला खिलाड़ी का नाम नहीं पूछता लेकिन महिला खिलाड़ी से पूछ लेता है। मिताली राज ने इस सवाल का जो जवाब दिया वो किसी चिढ़ से उपजा जवाब नहीं, बल्कि एक कड़वा सच है! आप सामान्य जनता से तो क्या बड़े खिलाड़ियों से ही पांच महिला क्रिकेटरों के नाम पूछ के देख लीजिए, अगर जवाब मिल जाए तो तालियां बजा लीजियेगा।

बहरहाल, तो इस तरह महिला खिलाड़ियों ने भारतीय समाज को उबार लिया। ठीक वैसे ही जैसे रियो ओलम्पिक्स में हमारे भीतर बैठे एक ‘गोल्ड’ की चाह को लड़कियों के ‘कांस्य’ व ‘सिल्वर’ ने उबार लिया था और पूरा मीडिया और समाज बुरी तरह नाच उठे थे। अचानक इतना शोर-शराबा हुआ जैसे इस देश के कोने-कोने से अब साक्षी मलिक और पीवी सिंधू पैदा हो जाएंगी। जैसे अब तो दुनिया का नज़रिया बदल ही गया समझो। अचानक पहलवानी और बैडमिंटन तो छा ही गए हो जैसे..! लेकिन वो सब हो-हल्ला तब तक ही चला जब तक फिर से क्रिकेट (पुरुष) हावी नहीं हो गया और फिर वही ढाक के तीन पात…

अब महिला क्रिकेट टीम ने पाकिस्तान को हरा दिया। समझ रहे हैं ना आप… पाकिस्तान को… वो भी तब जब पुरुष टीम नहीं हरा पाई। तो इस बार तो मामला लम्बा चलना ही था।

यह कहना गलत होगा कि पूरे देश की निगाहें इस वर्ल्ड कप में महिलाओं के खेल पर टिकी हैं। दरअसल हर बार की तरह इस बार भी अन्त तक आते-आते बची-खुची उम्मीदों की झोली को महिलाओं पर लादकर उन पर एक अनावश्यक दबाव बनाया जा रहा है। ऐसे ही हालातों में खेल ‘खेल’ नहीं रह जाता। हम उस ओर उम्मीदों से नहीं देखते, अगर पुरुष टीम का पाकिस्तान के खिलाफ वो हश्र ना हुआ होता।

जब आस-पास हवा एकदम से बदल जाए, तो उस पर शक किया जाना चाहिए। मसलन ओलंपिक जैसे स्तर पर दीपा कर्माकर को फिजियो मुहैया ना करवा पाने वाले देश का उसके आखिर तक पहुंचते ही पदक के लिए आंखें गड़ा के देखने लगना। जैसे साक्षी मलिक के कांस्य पदक जीतने के तुरन्त बाद ‘सुल्तान’ का नारा लगना और उससे पहले नाम से भी नावाकिफ होना और पी.वी. सिंधू के रजत जीतने के बाद ‘देश की बेटियां’  जैसे नारे लगा देना।

वैकल्पिक मीडिया हैशटैग से भरभरा उठता है। #बेटी_बचाओ, #आखिर_में_बेटियाँ_ही_काम_आईं_बेटे_नहीं, #देश_की_बेटियाँ आदि। पर सिलसिला भावुकता में हैशटैग चलाने जितना सीधा नहीं था। उस दौरान भी तात्कालिक माहौल को देखते हुए वैकल्पिक मीडिया पूरे जोश में लड़कों के खिलाफ चढ़ गया था। मामला भावुकता का लगता भले ही हो, पर है नहीं। पी वी सिंधू ने स्पेन की केरोलिना मरीन को हराया था, ली चॉन्ग वे (नम्बर एक खिलाड़ी- पुरुष वर्ग) को नहीं। अगर इस बात को समझ जाए, तो ये समझना भी आसान होगा कि मुकाबला स्त्री बनाम पुरुष का ना तो खेलों में है, ना ही जीवन में या फिर समाज में। फिर लड़कियों की जीत का इस्तेमाल लड़कों को नीचा दिखाने के लिए क्यों किया गया। दरअसल इस तरह के इस्तेमाल तात्कालिक जुमले से ज़्यादा कुछ नहीं होते जिनका काम बहस की नींव को ही कमज़ोर करना होता है।

साक्षी मलिक को वापस आते ही ‘बेटी बचाओ’ कैम्पेन का एंबेसडर बना दिया और बहस वहीं खत्म हो गई। इसे भी घोर महिला विरोधी बयान देने वाले खट्टर साहब ने अपने हाथों अंजाम दिया और इस तरह किसी भी बहस की गुंजाइश ही खत्म हो गई।

मुख्यधारा की मीडिया ने बेटियों की आज़ादी की दुहाई देते हुए बहस को उसी पुरानी दिशा में मोड़ दिया कि अब बेटी को चूल्हे चौके से निकालना होगा? साक्षी को देखिये, सिंधू को देखिये! अब कह रहे हैं हरमनप्रीत को देखिए, मिताली राज को देखिए! समाज में सिर्फ नाम बदल रहे हैं, लेकिन असल मसला वहीं है। क्या आधुनिकता और स्त्री स्वतंत्रता का सम्बन्ध चूल्हा चौका बहिष्कार से है? यानी चूल्हा चौका एक कमतर काम है, इसीलिए उसे करने वालों को कमतर समझा जाता है। क्या यह समझना बहुत मुश्किल है कि ऑफिस-दफ्तर, बाहरी खेलकूद और चूल्हा-चौका, झाड़ू-पोंछा एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं।

सामान साझेदारी की बात करने की बजाय घरेलू और बाहरी को दो विपरीत धड़ों में बांट देना निरी मूर्खता है। इसी तरह जब ‘लड़का-लड़की एक समान’ को बुलंद नहीं कर पाते तो लड़कियां लड़कों से बेहतर क्यों और कैसे हैं, गिनवाने लगते हैं। और ऐसा करते हुए उन्हें साथ नहीं बल्कि आमने-सामने खड़ा कर देते हैं। टक्कर के बाद ‘कौन-किससे बेहतर है?’ का फैसला करना दिलचस्प ज़रूर लगता है पर आने वाले समय में यह भयावह स्थितियों को जन्म देगा।

लड़की अगर विपरीत परिस्थितियों में स्वयं को सिद्ध ना कर पाई तो? क्या उसे वह सम्मान नहीं मिलना चाहिए जो रजत या स्वर्ण पदक जीतने वाली लड़की को मिलता है। उससे भी बढ़कर अगर ऐसा समाज आ जाए जिसमें हर लड़की जीत जाए और लड़के हार जाएं तो क्या लड़कों से सम्मान की ज़िंदगी छीन ली जानी चाहिए? ओलपिंक में ही अगर भारत के दस लड़के पदक जीत लेते तो बेटी को बचाने की ये हालिया दलील किस करवट बैठती?

अगर हम ये कहते हैं कि लड़कियां मैडल जीत रही हैं, इसलिए इन्हें जीने का अधिकार मिलना चाहिए तो ये कुछ उसी तरह का तर्क है जिसका इस्तेमाल कन्या भ्रूण हत्या करने वाले यह कहकर करते हैं कि लड़कियां संपत्ति की वारिस नहीं बनती क्योंकि उन्हें ब्याह कर दूसरे घर जाना पड़ता है। इसलिए उन्हें जीने का अधिकार नहीं है। सोचना होगा कि कुतर्कों का जवाब देने की जल्दबाजी में उन्हें आसान रास्ते मुहैया करवाए जा रहे हैं। जबकि ज़रूरत कुतर्कों को रोकने और ठोस रास्ते पर चलने की है। अंत चाहे जैसा भी हो! महिला क्रिकेट को सराहने की ज़रूरत है। सही वजहों से और सही दिशा में। वरना जितना तेज़ी से हल्ला होगा और उतनी ही तेज़ी से शांत हो जाएगा।

महिला क्रिकेट सुर्ख़ियों में आते ही तुलनात्मक फेर में फंस गया। यह तुलना अपने स्वरूप में कहीं ज्यादा नुकसानदेह है। जहां उन्होंने अच्छा खेला वहां उनकी तुलना पुरुष टीम से कर दी गई। एकता बिष्ट को अश्विन और जडेजा से बेहतर बता दिया। हरमनप्रीत कौर और विराट कोहली की तुलना शुरू कर दी। रातों रात मंदना के बैटिंग स्टाइल का हमनाम ढूंढना शुरू कर दिया। यह सब कितना ज़रूरी और कितना जायज़ है?

बुनियादी सवाल आज भी समझदारी का ही है। हम खेलों के प्रति क्या दृष्टि रखते हैं? हम समाज में स्त्री पुरुष की मौजूदगी पर क्या दृष्टि रखते हैं? साथ ही यह भी कि समाज में जीने का हक़ किसे है और किसे नहीं के प्रश्न पर किन तर्कों का इस्तेमाल करते हैं।

सराहिये इसलिए क्योंकि उन्हें भी एक लम्बी यात्रा तय करनी है, इसलिए क्योंकि मजबूती से खेलने का हौसला रातों-रात नहीं आता। इसलिए क्योंकि तुलनाएं गैर ज़रूरी हैं, कक्षाओं में भी, खेलों में भी और खिलाड़ियों में भी..!

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