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राजनीतिक स्वार्थ क्यों बदल देता है एक कलाकार को

2009 के लोकसभा चुनाव से पहले पंजाब में ये बात तेज़ी से फ़ैल रही थी कि मशहूर पंजाबी गायक कलाकार गुरदास मान किसी पार्टी के उम्मीदवार के रुप में चुनाव में अपना नसीब आज़मा सकते हैं। इसी चर्चा पर एक सहकर्मी ने मुझे उस वक्त कहा था कि गुरदास मान चुनाव नही लड़ेंगे। इसके पीछे उनकी सोच ये थी कि गुरदास मान जैसा कलाकार किसी एक समुदाय या समाज का नही होता। कलाधर्म का सम्मान करते हुये वह धर्म या जाति से ऊपर उठकर पूरे समाज और देश का होता है। लेकिन राजनीति को भाषा, धर्म या जाति से जोड़कर समाज को किस तरह बांट दिया जाता है, ये हम सब जानते है।

शायद इसलिए आज तक गुरदास मान ने कभी भी कोई चुनाव नही लड़ा। लेकिन ऐसे बहुत से कलाकार हैं जो चुनाव भी लड़ रहे है और सोशल मीडिया पर शब्दों का जाल बुनते हुए कहीं ना कहीं दूसरे धर्म या समुदाय की अवहेलना करने से भी कतरा नही रहे हैं। शायद इन कलाकारों का कलाधर्म से ज़्यादा राजनीति की तरफ झुकाव हो चुका है।

हममें से बहुत से लोगों ने “मेरा पिया घर आया ओ राम जी” ये गीत ज़रूर सुना होगा, इसकी धुन पर हमारे कदम थिरके भी ज़रूर होंगे। इस गीत को कव्वाली के रूप में सबसे पहले मशहूर कव्वाल और गायक कलाकार मरहूम नुसरत फ़तेह अली खां (जो पाकिस्तान से थे) ने गाया था। यही गीत इसके बाद एक हिंदी फिल्म में भी गाया गया, इसी तरह फिल्म मोहरा का गीत “तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त” है, असल में इस कव्वाली को भी खां साहब ने ही सबसे पहली बार गाया था।

खां साहब और बाक़ी के पाकिस्तानी कलाकारों को भारत में खुले दिल से अपनाया जाता रहा है। कुछ वैसे ही पाकिस्तान के लोग लता मंगेशकर, किशोर कुमार, मोहमद रफ़ी इत्यादि गायकों की आवाज़ को अपने ज़हन में हमेशा के लिये सजा कर रख चुके हैं। कहने का मकसद ये है कि कला हमेशा अपनी पहचान के हर बंधन से मुक्त होकर, हर वैचारिक मतभेद से ऊपर उठकर दिल में अपनी जगह बना लेती है।

लेकिन समय-समय पर कला और कलाकार सत्ता के विरोध में भी खड़े हुए हैं। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण इमरजेंसी के दौरान का है जब देश के मशहूर गायक किशोर कुमार ने इंदिरा गांधी के 20 सूत्री प्लान को एक गीत के रूप में गाने से मना कर दिया था। इसके एवज़ में एक तरह की सरकारी सज़ा के तौर पर किशोर कुमार के ऑल इंडिया रेडियो के किसी भी स्टूडियो में आने पर एक तरह से रोक लगा दी गयी थी। लेकिन किशोर कुमार अपनी ज़िद पर कायम रहें। जिन्होंने इमरजेंसी को देखा है वह समझ सकते है की किशोर कुमार का ये फैसला कितना निडर और बहादुर था।

कलाकार किसी भी रूप में अपनी पेशकश से अमन और मोहब्बत का ही पैगाम देते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जब कलाकारों ने एक नायक के रूप में समाज को जोड़ने का काम किया है। 1984 का ब्लूस्टार और उसके बाद के सिख विरोधी दंगो के कारण सिख नागरिकों के जज़्बात बिखरे हुये थे। इंतकाम की लहर ने हथियार उठा रखे थे और पंजाब सुलग रहा था। तब फिल्म जगत के नामी अभिनेता सुनील दत्त ने 1987 में मुंबई से अमृतसर के श्री हरमंदिर साहिब गुरुद्वारा (स्वर्ण मंदिर) तक पैदल शांति यात्रा की थी। इस यात्रा में करीब 78 दिनों में लगभग 2000 किलोमीटर की दूरी तय की गयी थी। तब इस यात्रा से ज़मीनी दूरी से ज़्यादा जज़्बातों की दूरी को कम किया गया था।

कलाकार भी आम इंसान ही होते हैं। इसी का एक अन्य पहलू देखें तो अक्सर फ़िल्मी इंडस्ट्री के अंडरवर्ल्ड से रिश्तों पर चर्चा छिड़ी रहती है। 1997 में गुलशन कुमार की हत्या में नदीम-श्रवण की जोड़ी के संगीतकार नदीम का नाम आने पर वो भारत छोड़कर लंदन चले गए थे। फ़िल्मी दुनिया और एक कलाकार के रूप में अंडरवर्ल्ड का डर समझ आ सकता है, परंतु आज कुछ कलाकार सार्वजनिक मंच पर जैसे व्यवहार कर रहे हैं, यकीनन वो कलाकार होने का सम्मान कहीं ना कहीं खो रहे हैं और कला की अवमानना भी कर रहे हैं।

2008 में एक सिंगिंग कॉन्टेस्ट के विजेता इश्मीत सिंह की अचानक होटल के स्विमिंग पूल में डूबने से हुई मौत हो गयी थी, तब मैं लुधोइयाना में ही था। उनकी अंतिम यात्रा में एक तरह से पूरा शहर ही उमड़ पडा था, इस शव यात्रा में अपनी श्रधांजलि देने के लिये बॉलीवुड के प्रसिद्ध गायक कलाकार अभिजीत भी आए थे। इश्मीत सिंह जिस कॉन्टेस्ट में जीते थे, अभिजीत उसमें जज भी थे। इस तरह इश्मीत की अंतिम यात्रा में शिरकत करने वाले अभिजीत का सम्मान एक इंसान से ज़्यादा कलाकार के रूप में लुधियाना शहर ने किया था। लेकिन पिछले दिनों इन्हीं अभिजीत ने ट्विटर के ज़रिये छात्र नेता शैला राशिद पर अभद्र टिप्पणी की जिसके बाद इनका ट्विटर अकाउंट भी ससपेंड कर दिया गया।

अभिजीत पिछले कई महीनो से अपने ट्विटर अकाउंट से या टीवी की बहस में खुलकर जिस तरह से राष्ट्रीयता और हिंदू समाज का पक्ष ले रहे हैं, यकीनन ऐसे में वो एक कलाकार से ज़्यादा किसी राजीनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता लग रहे हैं। मुझे इनके ट्वीट्स पढ़कर यकीन नहीं हुआ कि ये वही उदार और जज़्बाती कलाकार हैं जो इश्मीत की अंतिम यात्रा में इतनी दूर से आए थे।

इसी तरह कुछ समय पहले परेश रावल का लेखिका अरुंधति रॉय के खिलाफ किया गया ट्वीट हो या जानी मानी बांग्ला अभिनेत्री और राज्यसभा सदस्य रूपा गांगुली का बयान। यकीनन यहां कलाधर्म पर राजनीति भारी हो रही है।

ऐसा भी नही है कि राजनीति में कलाकार नहीं आए, असल में राजनीति और कला का साथ बहुत पहले से रहा है। दक्षिण भारत में जयललिता, एम.जी.आर. और एन.टी. रामाराव, कला और राजनीति का अक्स रहे हैं।

अगर मुंबई फिल्म नगरी की बात करें तो सुनील दत्त, धर्मेंद्र, हेमा मालनी, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, इत्यादि नामी कलाकार अलग-अलग समय में अलग-अलग विचारधाराओं की पार्टियों से जुड़े रहे हैं। इन्होंने चुनाव भी लड़ा और पार्टियों के राजनीतिक प्रचार में भी शामिल रहे, लेकिन कभी भी उस लकीर को नही लांघा जिससे समाज में दरार आए। साथ ही ये राजनीति से पहले हर वक़्त ये खुद की एक कलाकार के रूप में बनी पहचान पर कायम रहे।

एक कलाकार अपनी कला के ज़रिए अनगिनत लोगों से जुड़ जाता है। उसे अपनी कला के कारण ही देश के साथ-साथ विश्व की अनेक भाषाओं, धर्म, समुदाय और समाज को जानने का मौका मिलता है। इसी वजह से कलाकार की एक नागरिक के रूप में समाज के प्रति जवाबदेही एक आम नागरिक से कहीं ज़्यादा बढ़ जाती है। उसे हर कदम पर सवेंदनशीलता का उदाहरण देना बहुत ज़रूरी है, जो कि एक तरह से कलाधर्म का पालन करने की तरह है। संभव है कि निकट भविष्य में राजनीतिक स्वार्थ, कलाधर्म के नियमों को ही बदल दें और बदलते नियम अक्सर समाज में उथल पुथल-मचा देते हैं। बदलाव अक्सर एक ऐसा दोराहा लेकर आता है, जहां समाज तय करता है कि उसे अब किस दिशा में बढ़ना है। अगर ऐसा हुआ तो यकीनन ये कलाधर्म का एक तरह से हमारे देश में अंत होगा।

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