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DDA ने ढहाई बलजीत नगर की कच्ची बस्ती, लगभग 2000 लोग हुए बेघर

एडिटर्स नोट:- YKA ने जब मामले पर दिल्ली पुलिस सेंट्रल ज़ोन के ACP से बात की, उन्होंने बताया कि पुलिस बस सहायक की भूमिका में थी, DDA से जानकारी ली जा सकती है, रवीवार होने की वजह से DDA अधिकारियों से कोई भी आधिकारिक बात नहीं हो पाई है, आधिकारिक बयान मिलने पर लेख को अपडेट किया जाएगा।

कम्यूनिटी मोबिलाइज़र द्वारा दी गई सूचना के आधार पर गैर सरकारी संस्था की एक टीम बलजीत नगर विज़िट करने के लिए गई। बलजीत नगर, पश्चिमी दिल्ली जिले में पटेल नगर के नज़दीक स्थित है। संस्था की टीम जुलाई 5 को हुए इस विध्वंस के बारे में विस्तृत जानकारी इकट्ठा करने तथा तथ्यान्वेषण करने के लिए वहां पहुंची। वहां उन्हें पता चला कि डीडीए तथा पुलिस द्वारा उन्हें ज़बरदस्ती बेदख़ल कर उनके घरों को बिना कोई नोटिस दिए ही गिरा दिया गया। वहां के लोगों ने ये भी बताया कि उन्हें कितनी जल्दी में घरों से निकलने को कहा गया और इससे पहले कि वो अपना समान बाहर निकाल पाते, कार्रवाही शुरू कर दी गई।

5 जुलाई के विध्वस के बाद प. दिल्ली की बलजीत नगर बस्ती

लोगों का कहना था कि बाहर निकलने की घोषणा के 15-20 मिनट के अंदर ही बुलडोज़र से घरों को ढहा दिए जाने का ऐसा ही एक विध्वंस 25 जून को भी किया गया था। तब डी.डी.ए. और पुलिस ने बस्ती के सामने के सभी मकानों पर बुलडोज़र चलवा दिया था। उस घटना के बाद लोग क्षेत्र की सांसद मीनाक्षी लेखी के पास भी गए थे। उन्होंने किसी भी तरह की ख़ास मदद तो नहीं की लेकिन यह आश्वासन दिया कि आगे से ऐसी कोई कार्रवाही नहीं होगी। लेकिन 10 दिनों के अंदर ही इतने बड़े स्तर पर एक बार फिर विध्वंस को अंजाम दे दिया गया। कई लोगों के क़ीमती सामान और घरेलू उपयोग के सामान जैसे गैस स्टोव, सिलेंडर आदि मलबे में समा गए।

स्थानीय लोगों की माने तो क़रीब 500 परिवारों के 2000 से अधिक लोग इस विध्वंस के कारण प्रभावित हुए हैं। बस्ती के अधिकांश घर कच्चे मकान हैं, जो अधपकी ईंटों और टीन की छत से बने हुए हैं। लोग यहां 10 सालों से भी ज़्यादा समय से रह रहे हैं और उनके पास वहीं के पते के 5 से 10 साल पुराने दस्तावेज़ जैसे आधार कार्ड, वोटर आइ.डी. कार्ड, राशन कार्ड और बिजली बिल आदि मौजूद हैं। क़रीब पिछले 1 दशक से बलजीत नगर के लोग बेदख़ली के डर से जी रहे थे जो अंततः 5 जुलाई और उससे पहले 25 जून को सच हो गया।

बस्ती की एक महिला मलबे में सामान खोजते हुए

हैरानी की बात यह है कि दोनों ही बार बस्ती ख़ाली करवाने तथा विध्वंस का कोई कारण नहीं दिया गया और ना ही कोई नोटिस जारी किया गया। यह अपने आप में संयुक्त राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लंघन है। यदि देश के क़ानून की नज़र से भी देखा जाए तो यह पता चलता है कि कुछ परिस्थितियों जैसे रात के समय, धार्मिक अवकाश के दिन, खराब मौसम के समय, चुनाव के पहले तथा परीक्षा के दौरान किसी भी तरह का विध्वंस नहीं किया जा सकता है। लेकिन मानसून के आगमन के साथ अधिकारियों द्वारा किया गया यह अमानवीय कृत्य दुखद है। साथ ही दुखद यह भी है कि बस्ती में महिलाओं की बड़ी संख्या होने के बावजूद विध्वंस के समय महिला पुलिस वहां उपस्थित नहीं थी।

बलजीत नगर, आनंद पर्वत क्षेत्र का हिस्सा है जिसे दो दशकों से भी पूर्व आस-पास के राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान) से पलायन करके आने वाले लोगों के लिए बनाया गया था। जब संस्था की टीम वहां पहुंची तो उन्होंने देखा कि लोग अपने घरों के मलबे से अपना सामान निकालने का प्रयास कर रहे थे। लगभग सभी लोगों का कहना था कि उनके पास अभी जाने का कोई ठिकाना नहीं है और वो यही पर बने रहेंगे। कुछ लोग जो इस तोड़-फोड़ का विरोध कर रहे थे वो अपने घर का कोई भी सामान नहीं बचा पाए, अब इन लोगों के सामने भविष्य की चिंता है। मानवाधिकार संस्थाओं के लिए यह ज़रूरी है कि इन लोगों की तत्काल ज़रूरतों जैसे भोजन, पानी, अस्थायी शरण आदि की व्यवस्था की जाए, जब तक कि वो फिर से अपने रहने की व्यवस्था नहीं कर लेते। इसके साथ-साथ क़ानूनी दायरे में उनके पुनर्वास की प्रक्रिया भी शुरू करवाई जाना एक प्राथमिकता हो।

मलबे के बाहर बैठा एक अन्य बलजीत नगर निवासी

क्यूंकि यहां के ज़्यादातर लोग मलबे से अपना सामान ढूंढने में लगे हुए थे, इसलिए वो दिन भर ना तो खा पाए और ना ही काम पर जा सके। इस समय सभी को खासकर कि महिलाओं और बच्चों को सहायता की ज़रूरत है, क्योंकि बिना किसी सुरक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के उन्हें यहां से हटाया गया है। किसी भी प्रशासनिक उपाय और सहयोग से वो अब तक अछूते हैं। विध्वंस के दौरान यहां के 2 निवासी चोटिल भी हो गए। इसके बावजूद उन्हें अस्पताल की जगह पुलिस स्टेशन ले जाया गया। एक तो अभी तक पुलिस की हिरासत में है। उसके पिता अब तक परेशान हैं कि उसकी ज़मानत के लिए पैसे कहां से आएंगे। यह एक अजीब विडम्बना है कि हमारे सभ्य दिखने वाले शहर अब इतने क्रूर होते जा रहे हैं।

हर्ष गुप्ता और अंकित झा की रिपोर्ट

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