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हम तक स्मार्टफोन पहुंचाने के लिए इन मासूमों की ली जाती हैं जान

आपके हाथों में या जेबों में विज्ञान की वह खोज है जो आपको दुनिया के एक-एक कोने से जोड़ देती है। हां, सही समझे, मैं मोबाइल फ़ोन की ही बात कर रही हूं। जब भी कोई नया मोबाइल मार्केट में आता है तो जंगल की आग की तरह मध्यमवर्ग में उसके ऐप, फीचर आदि जानने की और खरीदने की लहर दौड़ जाती है। फिर आप उसे अपने हाथों से छूते हैं, उंगलियों से उसके फ़ीचर जानते हैं, देखते हैं कि इसका कैमरा सेल्फ़ी (फ़ोटो) कितनी बढ़िया खींच सकता है। इसकी बैटरी कितने घण्टे चल सकती है। कोई-कोई अपनी जिज्ञासा व्यक्त करता हुआ यह भी जानने की कोशिश करता है कि इन महंगी बड़ी कम्पनियों के बनाये ऐंड्रॉयड स्मार्टफ़ोन या आई-फ़ोन आदि की मैन्युफैक्चरिंग कैसे होती है।

चलिए आज हम इन मोबाइल फ़ोन और लैपटॉप आदि में इस्तेमाल की जाने वाली बैटरियों के पीछे छिपी अनदेखी मौत जैसी भयानक ज़िन्दगी की बात करते हैं।

काँगो की कोबाल्ट खदानों के श्रमिक

इन (लीथीयम-आयन) बैटरियों को बनाने के लिए कोबाल्ट नाम की धातु इस्तेमाल की जाती है। इन बैटरियों का इस्तेमाल ऐपल, सैमसंग, सोनी, माइक्रोसाॅफ़्ट, डेल और बाक़ी कम्पनियां करती हैं। अब बात करें कि कोबाल्ट का स्रोत कहां है, तो दुनिया के ग़रीब देशों में से एक देश (लेकिन कोबाल्ट का अमीर स्रोत) की तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है। डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ काँगो जिसकी आबादी 67 मिलियन है और 2014 के मानवीय विकास सूचकांक में वर्ल्ड बैंक ने इस देश को पीछे से दूसरा नम्बर दिया है।

दुनिया-भर में जितना कोबाल्ट पैदा होता है, उसका आधा से भी अधिक काँगो से आता है और उसका 20% आर्टिसनल खदानों से निकाला जाता है। किसी व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के समूह द्वारा ग़ैर-क़ानूनी तरी़क़े से चलने वाली छोटे स्तर की खदानों को आर्टिसनल खदानें कहा जाता है। यह भी कह सकते हैं कि कम-से-कम मशीनरी, टेक्नालॉजी से ये खदानें चलती हैं, जिनमें वहां काम कर रहे मर्द-औरतें और बच्चे ही मशीनें होते हैं। ये अपने हाथों-पैरों को इस्तेमाल करके खानों को खोदते हैं, उनमें नीचे उतरते हैं और धातु की खोज में ख़ुदाई करते हैं। बच्चे मिट्टी में मिले हुए कोबाल्ट को अलग करते हैं।

यहां जिस हद तक एक इंसान से काम करवाया जा सकता है, वह करवाया जाता है। ये खदानें किसी के अन्तर्गत नहीं आती और देश के खदानों से सम्बन्धित क़ानून इस पर लागू नहीं होते। इन खदानों को चलाने वाले अपनी मर्ज़ी से मजदूरों को थप्पड़-कोड़े मारते हुए, भूखे रखकर जैसे चाहे उन लोगों से काम ले सकते हैं। इन खदानों में ख़ुदाई के लिए उतरना ही इंसान के लिए विष निगलने के बराबर है। जो मज़दूर औरतें, मर्द, बच्चे खदानों में काम करते हैं, भयानक बीमारियों से ग्रस्त हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार इन खदानों में 40,000 बच्चे काम करते हैं। सबसे छोटे मज़दूर 6-7 वर्ष के बच्चे हैं, जो बोरियों में भरी कच्ची धातु उठाते हैं। इन बोरियों का भार उन बच्चों के भार से भी ज़्यादा होता है। 12-14 घण्टे काम करने के बाद भी मां-बाप बच्चों को स्कूल भेजने के योग्य नहीं हो पाते। इन खदानों में काम करने वाले बच्चे और नौजवान छोटी आयु में ही मर जाते हैं। इन्हें दिन-भर की मज़दूरी केवल 2 डॉलर ही मिलती है।

काँगो के ज़्यादातर निवासी श्वास रोगों, जोड़ों के दर्द और अंधेरे में रहने के कारण आंखों की रोशनी का चले जाना जैसी बीमारियों से ग्रस्त हैं। लाखों लोग एड्स से पीड़ित हैं। जो मज़दूर लगातार ख़ुदाई करते हैं, कोबाल्ट के सम्पर्क में रहते हैं, उनको हार्ड मैटल लंग डिज़ीज़ (फेफड़ों का रोग) हो जाता है। वहां के एक प्रोफ़ेसर आर्थर कनीकी जो कि इन खदानों के वातावरण पर प्रभाव के बारे में अध्ययन कर रहे हैं, उनका कहना है, “ये कम्पनियां हमारे देश से लेकर तो बहुत कुछ जाती हैं, लेकिन देकर कुछ भी नहीं जाती, सिवाय गन्दगी, बीमारियों, और भयानक ज़िन्दगी के।”

लगातार ख़ुदाई होने के कारण यहां मिट्टी की उपजाऊ शक्ति ख़त्म हो चुकी है, पानी पीने योग्य नहीं है। काँगो निवासी न ही कृषि कर सकते हैं और न ही कोई और काम, क्योंकि काँगो अथाह धातुओं का भण्डार (कोबाल्ट, तांबा, सोना, यूरेनियम) होने के कारण खदानों की धरती बन चुका है। यहां के लोगों के पास खदान मज़दूर बनने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं है। काँगो की एक महिला निवासी ने बताया कि यहां का पानी पूरी तरह प्रदूषित हो चुका है, बच्चे इस पानी के कारण बीमार हो जाते हैं…।

कोबाल्ट अयस्क दिखाता खान का मजदूर

यहां हर वर्ष अनेकों लोगों की जानें जाती हैं और यह कोबाल्ट दुनिया-भर में जाता है। काँगो से कोबाल्ट दुनिया-भर में सीडीएम (congo dongfang minig international) कम्पनी द्वारा चीन जाता है। चीन की कम्पनी हुआएऊ कोबाल्ट बैटरियां बनाती है बड़े स्तर पर और अलग-अलग कम्पनियां जो मोबाइल, लैपटॉप तैयार करती हैं, उनको भेजती है।

चीनी, अमेरिकन और यूरोपियन कम्पनियां जो बड़े स्तर पर मुनाफ़ा कमाती हैं, हर कोशिश करती हैं कि कैसे न कैसे करके बड़े मुनाफ़े कमाएं और एक-दूसरे से आगे निकल जायें। लेकिन साथ ही इसके पीछे वे अपनी घोर जन-विरोधी भूमिका बखूबी निभाती हैं। भले ही लूट प्राकृतिक स्रोतों की हो, इंसान को मशीन बनाने की दौड़ हो, इंसान से उसकी रोटी का आखि़री टुकड़ा, उसकी आखि़री सांस तक छीन लेने की बात क्यों न हो, वह इसी दौड़ में लगे रहते हैं।

अपने मानवद्रोही चरित्र को छुपाने के लिए भले वे जितने मर्ज़ी तौर-तरी़क़े अपनायें, लेकिन सच यही है कि ख़ून पीने वाली जोंक की तरह ये मुनाफ़ाखोर मानवीय ज़िन्दगियों को निगल रहे हैं। ख़ैर, भले ही कोई भी खदान हो, कोई भी कारख़ाना हो, फ़ैक्टरियां हो ये सभी लाखों मज़दूरों को अपाहिज बना चुके हैं, लाखों मज़दूरों को मारकर निगल चुके हैं। खदानों, फ़ैक्टरियों में काम कर रहे मज़दूर जिनकी बदौलत हम अपनी ज़िन्दगी आराम से जी रहे हैं, भले वह मोबाइल की सुविधा हो या अपने जि‍स्म पर रंगदार कपड़े हों। उन मज़दूरों के स्वास्थ्य, उनकी ज़िन्दगी कीड़े-मकौड़ों से भी बदत्तर है। एक और जहां बच्चे कहने को तो संविधान की पोथियों में पढ़ने के हक़दार हैं, खेलने के हक़दार हैं, बाल-मज़दूरी ग़ैर-क़ानूनी है, वहीं बड़ी गिनती में ये बच्चे अपनी उम्र से ज़्यादा काम, अपने भार से ज़्यादा भार ढोते हैं।

सच्चाई तो यह है कि मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था में श्रमिकों की ज़िन्दगी नर्क बनी हुई है। उन्हें न तो कहीं कोई सहायता मिलती है और न ही कहीं से इंसाफ़ मिलता है। न उसकी सुनवाई सरकार करती है, न अदालत करती है, न ही प्रशासन। ऐसे में उनके पास संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए ख़ुद लड़ने के सिवा कोई रास्ता नहीं है।

यह किसी एक देश की कहानी नहीं है, हर जगह आज मानव श्रम को लूटा जा रहा है। उनको भी तो ज़िन्दगी जीने का अधिकार है, उनको स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें, मुआवज़े मिलें। लेकिन सिर्फ़ इतना ही काफ़ी नहीं होगा। पूंजीवादी व्यवस्था जब तक क़ायम रहेगी, श्रमिकों की ज़िन्दगी में कोई बुनियादी सुधार नहीं आने वाला। इसलिए ज़रूरी है कि मानवद्वेषी, मुनाफ़े पर टिकी हुई इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंका जाये और एक अच्छा समाज बनाया जाए, जिसमें सबको जीने का अधिकार हो।

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