Site icon Youth Ki Awaaz

“आप हम दलितों पर चिंतन कीजिए, तब तक हम अपनी ज़िन्दगी की अर्थी सजाते हैं”

केले की सूखी हुई पत्तियां, आस-पास दो-चार लड़कियां हाथ में सूप लिए हुए, बीच में बड़ा-सा एक चूल्हा जिसमें धू-धू कर आग जल रही है। उस आग की तपिश में बार-बार वो औरत अपने चेहरे को बचाने की कोशिश कर रही थी या फिर उसी आग से खेल रही थी, समझ नहीं सका। हमारे गांव में लोग इस जगह को कंसार कहते हैं, जहां ऊंच-नीच सब जाति के लोग आते हैं भुंजा (चावल, गेहूं, चना, मक्का को आग पर रखी सुराही में लकड़ी से भूंजते हैं ) फांकने। मैं भी उस दिन चना लेकर गया था। उसका नाम सागीवाली है, मैंने जब उसका असल नाम पूछा तो कह बैठी, “बेटा अब तो यही अपना नाम है।”

भूंजा भुजती सागीवाली

गांव के लोग उसको सागीवाली (सागी हमारे यहां एक जगह का नाम है) ही कहते हैं, शायद हमारे गांव का इकलौता ज़िंदा कंसार कह लीजिए या एक धूल फांकती संस्कृति। यही कंसार उसका पूरा संसार है, यही उसकी रोटी है। जितनी देर तक वो इस आग में जलती है रोटी भी उसी अनुपात में मिलता है, मानो उसको मिलने वाली हर रोटी ने आग में जलने की कसम खा रखी हो। और अब तो वहाँ आग भी कम जलती है ! इस फास्ट फूड के युग में कौन कमबख्त वहां जाकर भुंजा फांके, कौन उस आग में जले। बाज़ार ने जिस हद तक शहर को अपनी बाहों में समेट रखा है, उस हद की शुरुआत कहीं न कहीं गांव से ही होती है।

सामाजिक प्राणी बन चुके इंसान के इस समाज में हर कोई सामाजिक न्याय की ही बात करता है, लेकिन बात करने से कुछ नहीं होता। साहब! सच में अगर आप सामाजिक न्याय के पैरोकार हैं तो सलीके से आपको उन लोगों के बीच जाना होगा, उनके लिए लड़ना होगा, उनकी पैरवी करनी होगी। यूं हवाई बयान देकर आप देश के किसी सुरक्षित कोने में बैठकर सामाजिक न्याय नहीं ला सकते।

सागीवाली और उसके परिवार को समझते हुए आप अपनी सरकार को भी समझिए। जिस समाज में यह औरत जी रही है, वहां उसकी आबादी बीस से पच्चीस है। जो मुखिया है वो ऊंची जाति का है, ज़ाहिर है उसकी कौम की आबादी और सारे सामाजिक समीकरण उसके पक्ष मे हैं। सरकार की ओर से वृद्धा पेंशन दी जाती है, जो उसके पति को नहीं मिलती जबकि वो कायदे से इसका हकदार है। पेंशन दिया जाता है उसके देवर को जो कि उम्र में उसके पति से छोटा है। सागीवाली कहती है, “बेटा मुखिया से उसका ठेहुंना भर का मेल-जोल है।”

बकौल सागीवाली- “बेटा हम क्या करें हम कई बार मुखिया के पास गए केतना बार तो टघरा (भगा) दिया, एक दिन और गएं तो कहता है कि इ हनुमान जी का प्रसाद है कि सब को बांटते चले, भागले यहां से !! बेटवा हम केतना बार बीडिओ के पास गएं, खूभे चक्कर लगवाया कभी फोटो ले आओ, कभी साहब नहीं हैं, कभी कहता है तुमको नहीं मिल सकता क्यों दो पैसा के लिए पगलाती हो !” (ये सब बातें कहते हुए चूल्हें मे लगी आग भी उसकी आंखों मे ठहरे समंदर को सोख ना पाई, पर ….!!)

कुछ क्षण के लिए मैं उससे नज़र नहीं मिला सका, जैसे एक अपराधी मैं भी हूं। फिर भी मैंने उसके बेटों के बारे में पूछा उसने कहा “बौआ उ हम्मर की मदद करतई ओक्कर अपने रावण सन-सन तीन गो बेटी छै”(वो हमारी क्या मदद करेगा उसकी खुद रावण जैसी तीन-तीन बेटी हैं)।

सागीवाली की दुकान

सागीवाली जैसे लोग भी इसी समाज में रहते हैं जहां हम-आप सामाजिक न्याय की हुंकार भरते हैं। मानवता नाम की चीज़ भी कुछ होती है ये आप किसी से कहिएगा मत वरना लोग ज़ोर का ठहाका लगाएगें। बस आप और हम खूब पैसे कमाएं यही दुआ है, क्योंकि हर कोई पैसे ही कमा रहा है उसी में पहचान है, इज़्जत है, रुतबा है। अगर इसके लिए सागीवाली जैसी औरत का हक मारना है तो हम मारेंगे, सरकार से हम क्यों डरें उसके नुमांइदे जो यहां बैठे हैं उनको तो हम उनका हिस्सा देते ही हैं।

और भैया जितने भी आप दलित चिंतक टाइप के लोग हैं, वो दिल्ली में बैठकर सिर्फ विचार करिए, आप के विचार करने से ही हमें अपार खुशी मिलती है। सामाजिक न्याय की बात करते रहिए उसी से हमारा पेट भी भरेगा आपको तृप्ति भी मिलेगी। आप वहां दिल्ली में बैठकर किसी उच्च कोटि के संस्थान से हमारे लिए ख्वाब सजाइए, तब तक हम अपनी खत्म-सी हो गई जिंदगी की अर्थी सजाते हैं।

मेरा चना भुंजा गया था उसके पैंतीस रूपए बन रहे थे, ना मेरे पास छुट्टे थे ना उसके पास इस बात को वो जान रही थी। उसने कहा, “पांच रूपैया रहने दो बौआ बाद में दे देना” मेरे पास पचास का एक नोट था जो मैंने उसे दे दिया, उसने साफ इनकार कर दिया और बोली, “बेटा तुम विदेश के थोड़े हो कल आके दे देना।”

कल सवेरे ही हमें दिल्ली आना था इसलिए उसके ना चाहते हुए भी उसको मैंने यह विश्वास दिलाते हुए रूपए दिए कि हर बार मैं चना ले कर जाता हूं, परोपकार का तो कोई सवाल ही नहीं है, अगली बार मैं मेनेज कर लूंगा। ना चाहते हुए भी मेरी ज़िद के सामने उसको हारना पड़ा। मैंने चना लिया और चल दिया उसके पास मेरे पन्द्रह रूपए रह गए, फिर भी लग रहा था मैं ही कर्ज़दार हूं….! उस गांव में रहते हुए भी मैं उस औरत से कभी नहीं मिल पाया था, और जब मिला तब जाना कि अपना समाज, अपनी सरकार भला इतना गरीब कैसे हो सकता है ?

Exit mobile version