वह दूसरे बच्चों से कुछ अलग थी।
मेरे पास पढ़ने आना शुरू करने के एक-दो दिनों के अंदर-अंदर ही उसने मेरी नज़रों में अपनी एक अलग पहचान बना ली। अगर मैं उससे कहता कि कल पढ़ाई 7:00 बजे सुबह से होनी है तो वह बिना चूक 7:00 बजने से 1 मिनट पहले ही उपस्थित हो जाती। ऐसा बहुत कम ही हुआ कि वह पहले से तय किए हुए समय पर ना आ पाई हो। एक आद बार किसी मजबूरी से वह नहीं आ पा रही थी तो उसने मुझे फोन करके इस बात की सूचना काफी पहले से दे दी।
मैं 2:30 बजे दिन तक कॉलेज से फ्री होकर घर आ जाता था। मैंने सोचा क्यों ना इस समय का किसी भले काम के लिए सदुपयोग किया जाए। मैंने एक कमरे में ब्लैकबोर्ड लगवाया और एक-दो स्थानीय समाचारपत्रों के माध्यम से तथा फेसबुक पर इस बात का प्रचार कर दिया की कॉमर्स के वे छात्र जो कोचिंग का सामर्थ्य नहीं रखते मेरे पास निशुल्क पढ़ने के लिए आ सकते हैं। मैं पुराने लखनऊ की जिस कॉलोनी में रहता हूं उसके आसपास चिकनकारी और आरी ज़रदोज़ी के कारीगरों की कई सारी बस्तियां हैं।
किसी ज़माने में इस कला का बोलबाला था और कलाकारों को अच्छी आमदनी हुआ करती थी पर धीरे-धीरे यह कलाकार विभिन्न प्रकार के शोषण के चक्कर में पड़ गए और आज इन्हें मुश्किल से ही इतने पैसे मिल पाते हैं कि यह अपनी दो वक्त की रोटी भी चला सकें। दूसरा बड़ा अभिशाप है अज्ञानता और अनपढ़ होने के साथ-साथ परिवार का बड़ा होना। यह लोग ज़्यादातर लखनऊ के मशहूर छोटे इमामबाड़े के पीछे की छोटी-छोटी कोठरियों में निवास करते हैं जो नवाबों के काल में सामूहिक रूप से, लंगर खाना कहलाती थीं। एक परिवार जिस मकान में रहता है उसका पूरा क्षेत्रफल बमुश्किल 1000 या 1200 वर्ग फीट होता होगा। इसके अलावा इसी क्षेत्र में रईस मंज़िल, शीश महल और मुफ़्तीगंज इत्यादि महल्लों में भी काफ़ी तादाद में ज़रदोज़ी कलाकार कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में रहते हैं।
मैं आपको जिस बच्ची की कहानी सुना रहा हूं वह भी ऐसे ही एक परिवार में चार बहनों और एक भाई में से एक है। जब वह मेरे पास आई तो वह 12वीं क्लास में थी। वह 12वीं पास करने के बाद आगे पढ़ना चाहती थी, मैनेजमेंट की शिक्षा प्राप्त करना चाहती थी। परंतु उसके माता-पिता ने साफ कह दिया था कि वह उसकी पढ़ाई का खर्चा नहीं बर्दाश्त कर सकेंगे।
मैंने महसूस कर लिया था कि वह अपने स्वभाव से जुझारु है, ज़िद्दी है और बहुत कम संसाधनों में भी अपनी पढ़ाई पर पूरा ध्यान देती है। मुझे नहीं पता था कि मैं आगे की पढ़ाई के लिए उसकी सहायता किस प्रकार कर पाऊंगा पर मैंने उसे आश्वस्त किया कि पढ़ाई चालू रहेगी।
परीक्षा फल प्राप्त होते हैं वह स्कूल से अपनी मार्कशीट लेकर खुशी-खुशी मेरे पास आई मैं फिर भी नहीं जानता था कि मुझे क्या करना है पर मैंने उसकी मार्कशीट की एक पिक्चर अपने मोबाइल में ले ली और अपने जान पहचान के कुछ ऐसे लोगों को जिनके पास संसाधन है और जिनके बारे में मैं जानता हूं कि उनके मन में इंसानियत का दर्द भी है, उसकी मार्कशीट की पिक्चर भेजी, उसके बारे में लिखा और पूछा कि क्या कोई उसकी फीस का भार वाहन करने के लिए तैयार है?
मुझे बहुत ही सुखद आश्चर्य हुआ कि WhatsApp पर यह मैसेज डालने के आधे घंटे के अंदर-अंदर एक सज्जन ने जो रिटायर्ड आईएएस अधिकारी तथा भूतपूर्व कमिश्नर हैं तत्काल इस बच्ची की संपूर्ण आर्थिक सहायता की ज़िम्मेदारी ले ली। मुझे दूसरा सुखद अनुभव तब हुआ जब कॉलेज के प्रबंधन ने भी एक अच्छी भली छूट देना स्वीकार कर लिया।
मैंने उस बच्ची को बुलाकर कहा कि तुम्हारा काम हो गया, पर यह जान लो कि तुम्हें मिलने वाली सहायता ऋण भी है और ऋण नहीं भी है। ऋण नहीं इस प्रकार है कि यह पैसे ना तो तुम्हें मुझे लौटाने हैं ना ही उन सज्जन को जिन्होंने तुम्हारे लिए पैसों की व्यवस्था की है। पर इस प्रकार से ऋण है कि तुम्हें अभी ख़ुदा को हाज़िर नाज़िर जानकर एक शपथ लेनी है और वह शपथ यह है कि जब तुम पढ़ लिख कर खुद पैसे कमाने लगोगी तो तुम भी किसी एक ऐसे बच्चे को तलाश करोगी जिसकी पढ़ाई पैसों के ना होने के कारण रुक रही हो और उसकी सहायता उसी तरह करोगी जैसे आज तुम्हारी की गई है साथ ही यही शपथ जो आज मैं तुम्हें दिला रहा हूं तुम भी उस बच्चे को दिलाओगी।
इसके अलावा यह याद रखो कि फीस की ज़िम्मेदारी हम लोगों की है और बहुत अच्छी पढ़ाई करके अच्छा रिज़ल्ट देने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी। तुम अपनी ज़िम्मेदारी में कमी मत करना हम अपनी ज़िम्मेदारी में कमी नहीं होने देंगे।
आज उस बच्ची का बीबीए का प्रथम वर्ष पूरा हो चुका है। अपने क्लास में अव्वल तो नहीं आ सकी पर तीसरे स्थान पर है।
पहले वह हिंदी माध्यम की छात्रा थी अब उसे सारे विषय केवल अंग्रेजी में पढ़ने होते हैं। जैसा मैं बता चुका हूं उसका निवास इतना बड़ा नहीं है कि वह शांतिपूर्ण बैठकर अपनी पढ़ाई कर सकें इसके बावजूद क्लास में तीसरा स्थान प्राप्त करना एक बड़ी उपलब्धि है।
मैं उसके उज्जवल भविष्य की शुभकामना तो करता ही करता हूं साथ ही एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में उसकी प्रगति का बारीकी से मुआयना भी कर रहा हूं। आप सभी दुआ करें यह प्रोजेक्ट पूरी तरह से सफल हो।
शायद इससे एक सीख भी मिलती है। हम में से हर ऐसा परिवार जो एक बच्चे की पढ़ाई का खर्चा उठा सकता हो, अपने बच्चों के अलावा किसी एक ऐसे गरीब परिवार के लायक़ बच्चे को ढूंढो जो सिर्फ पैसों के ना होने के कारण आगे ना पढ़ पा रहा हो। उसे पढ़ाए, उसका मार्गदर्शन करे और उसे अपने बच्चे जैसा प्यार दे।
एक-एक पौधा सब लगाएं एक-एक घर सब सजाएं।
शिकवा ए ज़ुल्मत ए शब से तो कहीं अच्छा है,