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अबके सावन भीग जाइये ऐसे की मन झमाझम हो जाए

अंग्रेज़ी में कहिए तो महीना जुलाई का है और हिन्दी में समझिए तो महीना सावन का है। सावन मतलब बरसात और बरसात मतलब हरियाली। बारिश अगर ज़रूरत से ज़्यादा ना हो तो इससे खूबसूरत कुछ नहीं होता। हरिवंश राय बच्चन के शब्दों में-

अब दिन बदले, घड़ियां बदली, साजन आए, सावन आया, धरती की जलती सांसों ने मेरी सांसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो, कर घाव गई मुझ पर गहरा, है नियति-प्रकृति की ऋतुओं में,
संबंध कहीं कुछ अनजाना, अब दिन बदले, घड़ियां बदलीं, साजन आए, सावन आया।  

कुल मिलाकर सावन प्यार, रोमांस और मिलन से भरा हुआ महीना है। सावन से सिनेमा में भी कितने गीत लिखे गए हैं। एक से ए क रोमांटिक गाने जैसे- ‘सावन का महीना पवन करे शोर’ या ‘अबके सजन सावन में’ या ‘सावन बरसे तरसे मन’ या ‘सावन के झूले पड़े’ वगैरह-वगैरह।

सावन का एक और गाना है, 1974 में एक फिल्म आई थी ‘रोटी कपड़ा और मकान’ ज़ीनत अमान और मनोज कुमार की। बारिश में भीग रही ज़ीनत अमान पर एक गाना फ़िल्माया गया है ‘हाय हाय ये मजबूरी…ये मौसम और ये दूरी, तेरी दो टकिए की नौकरी मेरा लाखों सावन जाए।’ हीरो मनोज कुमार बेरोज़गार होता है, हीरोइन उसकी नौकरी ना मिलने से परेशान होती है और उसी संदर्भ में ये गाना होता है। हीरो को नौकरी मिल जाए दोनों की शादी हो और जीवन में सावन घुला रहे।

ये साल 1974 का सावन था लेकिन साल गुज़रते-गुज़रते सब बदल गया। अब साल 2015 में एक फिल्म आती है ‘तमाशा’। फिल्म का हीरो नौकरी करता है, अच्छा कमाता है लेकिन जिंदगी फिक्स है। सुबह उठना, तैयार होना, ऑफ़िस जाना और फिर शाम को लौट आना। वही रास्ते, वही डेली रूटीन, वही सिस्टम पर लॉग-इन, लॉग-आउट। यहां सब कुछ है लेकिन फिर भी सावन नहीं है। क्योंकि हीरो अपनी नौकरी में बिज़ी है।

कुछ ऐसी ही हमारी कहानी भी है! नौकरी है फ़िर भी ज़िंदगी उस उसड़ ज़मीन की तरह है, जिसमें सालों से पानी की एक बूंद नहीं पड़ी। लाइफ़ फिक्स है। पता भी नहीं होता कई बार कि मौसम सावन का है। जिनके पास नौकरी है वो लॉग-इन, लॉग-आउट में बिज़ी हैं और जिनके पास नहीं हैं वो दिन-रात नौकरी के लिए परेशान हैं और इन सब में प्रकृति कहीं छूट रही है। अब तो हम बारिश भी आर्टिफिशियल करवा लेते है!

हां, ये मुमकिन नहीं है कि हम 1974 के समय में चले जाएं या बारिश हो तो काम छोड़कर भीगना शुरू कर दें, लेकिन प्रकृति से ही जीवन है। इसके साथ चलना, इसे समझना और इसे महसूस करना ज़रूरी है। तभी हम असल में लाइव हो पाते हैं। हम सब अपने-अपने स्तर पर प्रकृति से अलग-थलग हो चुके हैं। हर एक चीज़ पैसे से नहीं खरीदी जा सकती। हरे-हरे पत्तों और घास पर पड़ी पानी की बूंद को बस महसूस किया जा सकता है, खरीदा नहीं जा सकता। प्रकृति को महसूस करिए, अपने जीवन में थोड़ा सा सावन लाइये। ये जुलाई का महीना हमसे यही कहने आता है।

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