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“जब-जब भाजपा शक्तिशाली होती है तब-तब हिंदुत्व कमज़ोर होता है”

हिंदुत्व की डोर में सारी जातियों को बांधकर गैर धर्मावलम्बियों के भय का मुकाबला करने की राजनीति के आधार पर भाजपा ने गत लोकसभा और हाल के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में सफलता के शिखर छूकर दिखाए हैं लेकिन विडम्बना यह है कि जब-जब भाजपा शक्तिशाली होती है तब-तब हिंदुत्व में गहरी दरकन भी शुरू होने लगती है।

चाहे सहारनपुर कांड हो या रायबरेली कांड, हिंदू कौम की ही जातिगत अस्मिताएं एक-दूसरे के सामने हैं। हद तो यह है कि दुनियादारी से ऊपर समझे जाने वाले महंत भी सरकार में बैठने के बाद जातिगत पक्षपात के आधार पर फैसले लेने के आरोपों से बच नहीं पा रहे और यह काम विपक्ष नहीं कर रहा है बल्कि सत्तारूढ़ पार्टी का समर्थक वर्ग इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री को कठघरे में खड़ा करने के लिए सर्वाधिक मुखर है। आज मुख्यधारा की मीडिया से सोशल मीडिया ज्यादा असर डाल रही है और सोशल मीडिया पर योगी की जातिवादी कार्यशैली की खबरें तेज़ी से फैलने वाले संक्रामक रोगों की तरह वायरल हो रही हैं।

यह स्थिति विडम्बनापूर्ण है, लेकिन अप्रत्याशित नहीं। बाबा साहब अंबेडकर को एक दलित नेता के रूप में इतना ज्यादा प्रचारित किया गया है कि उच्चतम अकादमिक स्तर के निरपेक्ष समाजशास्त्री के रूप में उनका काम अभी तक भारतीय समाज में ग्राह्य नहीं हो सका है।

मुख्यधारा की पार्टियां राजनीतिक मजबूरी में बाबा साहब का स्तुतिगान करना सीख गई हैं। लेकिन व्यवहारिक तौर से इसमें मजबूरी की बेगारी का अख्स उनके कार्यकर्ता देखते हैं इसलिए वे बाबा साहब के विचारों और निष्कर्षों को पढ़ने में रुचि दिखाना नहीं सीख पाये हैं।

बाबा साहब की ही बात नहीं है। लोग एकांगी माइंडसेट पर स्थिर हैं इसलिए विभिन्न मतों को पढ़कर (जानकर) किसी निष्कर्ष का संधान करने की अपरिहार्यता से उनका कोई वास्ता नहीं है। भारतीय समाज के वर्तमान माइंडसेट को लेकर आश्चर्य होता है कि कभी इसी देश ने वैचारिक स्वतंत्रता का पाठ दुनिया की सभ्यताओं को पढ़ाया था जिसमें शास्त्रार्थ की परम्परा एक अनिवार्य विशेषता की तरह थी। नास्तिक और आस्तिक, आध्यात्मिकतावादी और भौतिकतावादी सभी विचारकों को अपनी बात रखने और प्रचारित करने की अनुमति थी और इसी वजह से यहां के समाज की वैचारिक गतिशीलता का दुनिया में कोई जोड़ नहीं था।

बाबा साहब की अवधारणा का संदर्भ यहां पर यह है कि उन्होंने अपने अध्ययन से इस बात को स्थापित किया कि भारतीय समाज की सोपानवत जातिगत व्यवस्था में सभी जातियों के बीच द्वंद्व छिड़ा रहना अनिवार्य है। जिन्हें अछूत के रूप में दर्ज किया गया है उन जातियों के अंदर भी अपमानजनक स्थिति से उबरने के लिए भाईचारा नहीं हो सकता और जो जातीय व्यवस्था में सिरमौर होने के नाते गौरव प्राप्त कर रहे हैं उन सवर्णों में भी आपसी एकता प्रवंचना है। बाबा साहब के इस निष्कर्ष के आधार पर पहले से ही अनुमान हो जाता है कि वर्ण व्यवस्था के पुनरुत्थान के मार्ग से समाज में किसी भी तरह का भाईचारा नहीं आयेगा। बल्कि हर स्तर पर टकराव के नये मोर्चे खुलेंगे।

कल्याण सिंह जब मुख्यमंत्री थे उस समय प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बख्शी के तालाब पर जाति विशेष के विधायकों और नेताओं ने उनकी सरकार में अपनी बिरादरी की धाक के लिए खतरे बताते हुए वृहद बैठक की थी। उमा भारती भी एक बार भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की जातिवादी मानसिकता के कारण पार्टी में पिछड़ों को बर्दाश्त न किए जाने का रोना रोते हुए खुली बगावत पर आमादा हो गई थीं।

भाजपा का वर्चस्व बढ़ने के बाद जितनी बार चुनाव हुए पार्टी के टिकट वितरण के समय मीडिया की खबरों से लेकर पार्टी के दफ्तरों तक में अपनी जाति के अस्तित्व की दुहाई देते हुए उग्र स्तर पर विरोध को प्रदर्शित किए जाने के प्रसंग सामने आते रहे हैं।

जब हिंदू एकता पर ही भाजपा की आइडोलॉजी के व्यवहारिक स्वरूप से खतरा मंडराने लगता है तो इस आइडोलॉजी से राष्ट्रीयता को मजबूत करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है।

राष्ट्रीयता तो तब मजबूत होती है जब पुराने हो चुके विश्वासों और नियमों से ऊपर उठकर देश के संविधान, कानून और अदालत के प्रति निर्द्वंद्व प्रतिबद्धता का तकाजा किया जा सके लेकिन क्या ऐसा हो रहा है।

रायबरेली की घटना में पुलिस और मीडिया के पहले दिन के वर्जन से भ्रम की शुरुआत हुई। पहले दिन मारे गये लोगों को अपराधी और हमले के इरादे से दूसरे गांव में पहुंचने के बतौर प्रस्तुत किया गया। इसके बाद अगले दिन इनके सुर बदलने शुरू हुए। जिस तरह की खबरें आईं उससे यह धारणा बन उठी कि सुनियोजित और निर्मम साजिश के तहत की गई हत्याओं के अर्थ को बहुत शातिर ढंग से बदलने का काम रायबरेली के अप्टा गांव में हुआ था। लोगों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर देना और जलाकर मार डालने का अपराध किसी जाति के नहीं पूरी व्यवस्था और समाज के खिलाफ जनमानस में संज्ञान लिया जा रहा था। लेकिन अनर्थ तब हुआ जब अलग-अलग पार्टियों के सिर्फ ब्राह्मण नेता इस पर सक्रिय हो गए और इसलिए यह मुद्दा अपनी समग्रता को खोकर संकुचित परिधि में कैद हो गया।

दूसरी ओर उत्तर प्रदेश सरकार के ही कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने मरने वालों पर दर्ज मुकदमों का हवाला देकर यह पुष्ट करने की कोशिश की कि वे कांट्रेक्ट किलर की तरह थे और अप्टा में खतरनाक इरादे से पहुंचे थे। अब यह मामला जातिगत संघर्ष में उलझ गया है। एक तरफ मरने वालों के परिजनों ने रायबरेली में धरना देकर स्वामी प्रसाद मौर्य को बर्खास्त न करने पर आत्मदाह कर लेने की धमकी दी है तो दूसरी ओर आरोपी जो कि यादव बिरादरी के हैं, उनके पक्ष में अखिल भारतीय यदुवंशी महासभा सरकार को चेतावनी देने पर आ गई है।

यह किसी को देश के कानून, उसे लागू कराने वाली एजेंसियां और न्याय व्यवस्था पर विश्वास न रह जाने का लक्षण है। यह इस बात का प्रकटन है कि लोग यह समझने लगे हैं कि शक्ति प्रदर्शन में जिस जाति का पलड़ा भारी हो जाएगा, मुद्दे का निपटारा उसकी इच्छा के मुताबिक होगा। राष्ट्रीयता की भावना को नुकसान पहुंचाने वाली इससे बड़ी हरकत कोई दूसरी नहीं हो सकती।

इससे पहले सहारनपुर के मामले में भी स्थिति बहुत विचित्र रही थी। वहां के बवाल में राज्य सरकार खुद एक पार्टी बन गई थी। अगर वहां के जातीय दंगे में चंद्रशेखर रावण ने कोई भूमिका निभाई थी तो शेरसिंह राणा का भी तो रोल सामने आया था और पूर्व व्यवहार के दृष्टिकोण से चंद्रशेखर रावण से ज्यादा शेरसिंह राणा का महिमामंडन आपत्तिजनक था। राणा कोई महापुरुष नहीं है। उस पर एक सांसद की हत्या का आरोप है और हर सांसद भारतीय राज्य व्यवस्था का एक मज़बूत प्रतीक है।

राजीव गांधी की हत्या करने की वजह से लिट्टे को तमिलनाडु के लोगों के जज़्बात की परवाह किए बिना भारतीय राज्य पर हमला करने वाले शत्रु के रूप में ट्रीट किया गया क्योंकि राजीव गांधी भारत के राष्ट्रीय नेता थे। तब शेरसिंह राणा को संसद सत्र के दौरान लोकसभा की सदस्य की हत्या में आरोपित होने के कारण कैसे बख्शा जा सकता है। लेकिन न्यायसंगत दृष्टिकोण के अभाव में अपनी हीरोशिप को तृप्त करने के लिए उसने सहारनपुर में भी एक खतरनाक शुरुआत की। जिसे यूपी की सरकार और उसका प्रशासन अपनी पूर्वाग्रहों के कारण नजरंदाज करने के लिए मजबूर रही। वैश्वीकरण के बाद राष्ट्रीयता के सर्वमान्य प्रतिमान और परिभाषा तय है लेकिन भाजपा के तमाम नेता इन प्रतिमानों से परे हटकर राष्ट्रीयता की अपनी अलग परिभाषा गढ़े हुए हैं। जो मानवता से भी मेल नहीं खाती।

राजस्थान में गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के एनकाउंटर मामले को भी जातिगत तूल देने में स्वस्थ व्यवस्था के सारे मानकों की धज्जियां उड़ा दी गईं। आरक्षण की व्यवस्था जिन विसंगतियों के उपचार के लिए सामने लायी गई, कोई अंधा भी बता देगा कि गुजरात के पटेल और हरियाणा के जाटों को उनका शिकार नहीं माना जा सकता लेकिन गुजरात के भाजपा शासन के बाई-प्रोडक्ट के बतौर इस जबर्दस्ती की बदौलत सिर्फ 22 वर्ष की उम्र का हार्दिक पटेल एक राष्ट्रीय नायक बन गया।

एक मज़बूत भारत के उभरने में यह चुनौतियां बहुत मुश्किल पैदा करने वाली हैं। हालत उस नासूर की तरह हो गई है जिसके दर्द को पेनकिलर लेकर भुलाये रखने से जीवन बचने वाला नहीं है। नासूर का इलाज नहीं हुआ तो वह बढ़ता-बढ़ता ज़िंदगी को मौत की कगार पर ले जाकर खड़ा कर देगा। मायावी भाषण कला के प्रभाव से हिंदुत्व की छतरी में हो रहे छेद को लेकर कुछ समय के लिए आप लोगों की नजरें बांधकर रखने का जादू दिखा सकते हैं लेकिन इसका अंतिम और दूरगामी निष्कर्ष छतरी के छिन्न-भिन्न हो जाने के रूप में ही सामने आने वाला है।  क्या वर्तमान सत्ता के कर्ता-धर्ता इस बारे में सोचने को तैयार हैं।

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