पिछले कुछ सालों के बने एक ट्रेंड के तहत, इस साल भी माह-ए-रमज़ान का आग़ाज़ दुनिया के कई कोनों में बम विस्फोटों के साथ हुआ था। अफसोसनाक होने के साथ-साथ यह एक डरावना ट्रेंड है। कौन हैं ये लोग? नेकियाँ करने का महीना और ऐसे कर्म? ये सवाल हर एक इंसान के दिल में उठे, चाहे उसका ताल्लुक़ किसी भी मज़हब से रहा हो। गुज़िश्ता सालों से दाएश (ISIS) और उन जैसे कई आंतकी संगठनो के हवालों से हो रही दहशतगर्दी से सहमे लोगों का डर इस साल फिर से ताज़ा हो गया। कौन हैं ये लोग जो ख़ुदा की राह में दिन भर के भूखे-प्यासे लोगों, यहाँ तक के मासूम बच्चों के क़त्ल से अपने हाथ रंग कर जन्नत की हूरों के ख़्वाब सजाते हैं? यक़ीनन ऐसे अफ़राद किसी भी मज़हब के दायरे में नहीं आते!
बदक़िस्मती से बम फटने वाली खबरें बहुत सामान्य हो चली हैं। दुनिया भर में बसने वाले करोड़ों आम लोगों की तरह मैं भी ये सब सुनकर, पढ़कर और सोचकर सकते में आ जाती हूँ। दिल में देर तक बेचैनी रहती है! जानलेवा आतंकी हमलों का शिकार बने लोग जो घायल होकर ज़िन्दगी और मौत की लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं या फिर इस दुनिया से ही रुख़्सत हो गए, उन सबके लिए सहानुभूति की भावना भी जागती है। और अंत में सवाल उठता है – अगला टार्गेट कहीं मैं या मेरा परिवार तो नहीं? चूँकि इंसान अमूमन आशावादी होता है, इस डर को साथ लिए सो जाता है, एक नई सुबह के इंतज़ार में, शायद `कल’ आज से बेहतर हो! गुज़रते दिनों के साथ या यूँ कहिये अगली कोई ऐसी खबर सुनने से पहले, ख़ौफ़ थोड़ा कम होने ही पाता है, कि अचानक फिर कोई ऐसी अनहोनी होती है और ये साइकिल कभी नहीं रुकती।
ज़िंदगी की दौड़, मानो मौत की दौड़ बनके रह गई। हाल ही में पेश आए दिल दहला देने वाले हादसात को मद्देनज़र रखते हुए, जहाँ ईद के लिए कपड़े लेने गये जुनैद या DSP अय्यूब साहब दर्दनाक मौत मारे गए, हम क्या कर पाए?
कैसे ख़त्म करें यह नफ़रत का सैलाब जो आम इंसानों को भी दाएश के जानवरों को टक्कर देती दरिंदगी का शिकार बना रहा है?
कैसे निकालें हम अपने बचपन के दोस्तों को मज़हब के नाम पर ख़ून बहाने वाली दलदली ज़ेहनियत से, जिसका वजूद अपने ही मुल्क में महज़ घिनौनी राजनीति को बढ़ावा देने वाले चंद दलालों की वजह से कैंसर की मानिंद फैल रहा है? एक ऐसी लाइलाज बीमारी, जो देखते ही देखते सब कुछ ख़त्म कर देगी और एक बार फिर से हम कुछ नहीं कर पाएंगे, सिवाए अफ़सोस के।