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‘सेक्स मर्दों की बपौती है’ वाली सोच को तोड़ती लिपस्टिक अंडर माय बुर्का

बॉलीवुड की ज़्यादातर फिल्में दर्शकों से अपना दिमाग सिनेमा हॉल से बाहर छोड़ देने की मांग करती हैं लेकिन “लिपस्टिक अंडर माय बुर्का” साल भर में रिलीज़ हुई उन चुनिन्दा फिल्मों में से हैं जोआपसे मनोरंजन के साथ–साथ सोचने की भी मांग करती है। हमारे समाज में मर्द ही हैं जो जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं के लिये “कोड आफ कंडक्ट” तय करते हैं। यहां औरतों के खुद की मर्ज़ी की कोई बख़त नहीं है। इसलिए महिलायें जब भी समाज द्वारा बनाये गये बंधनों और ढ़ांचे को तोड़ कर बाहर निकल निकलती हैं तो समाज इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता है फिर वो चाहे फिल्म में ही क्यों ना हो।

“लिपस्टिक अंडर माय बुर्का” को उसके बोल्ड विषय ने विवादित बना दिया और लोग इसे लड़कियों को बर्बाद करने वाली फिल्म बताने लगें।परम संस्कारी और हर दूसरी बात पर आहत हो जाने वाले भारतीय समाज में ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ जैसी  फिल्में बनाकर उसे रिलीज़ करना कितना मुश्किल भरा काम है यह इस फिल्म के मेकरों से बेहतर कौन बता सकता है। इसके लिये उन्हें सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन के साथ लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। यह फिल्म सेंसर बोर्ड के मुखिया पहलाज निहलानी द्वारा जताये गये ऐतराजों के बाद चर्चा में आई थी जिसमें उनकी मुख्य आपत्ति थी कि एक महिला प्रधान फिल्म में औरतों की फेंटसी दिखाई गयी है जिससे हमारे समाज पर बुरा असर पड़ेगा। सेंसर बोर्ड के इस रुख की वजह से इस फिल्म को अपने रिलीज के लिए संघर्ष करना पड़ा।

जीवन के अन्य भागों की तरह कला, साहित्य और फिल्मों पर भी पुरुषवादी नज़रिया हावी रहती है और सेक्स को तो मर्दों की बपौती माना जाता है।

यहां सब कुछ मर्द ही तय करते हैं, दरअसल पुरुषों के लिये यौनिकता सदियों से स्त्रियों पर नियंत्रण का सबसे बड़ा हथियार रहा है। “लिपस्टिक अंडर माय बुर्का” इन्हीं सवालों से टकराती है। यह महिलाओं के आकांक्षाओं की कहानी है फिर वो चाहे किसी भी उम्र, धर्म या समाज की हो। यह औरतों के इच्छाओं और अभिलाषाओं की एक यात्रा है। फिल्म में लिपस्टिक्स और बुर्के को इच्छाओं व पितृसत्तात्मक नज़रिये के रूपक के तौर पर दिखाया गया है।

फिल्म की कहानी भोपाल जैसे मध्यम शहर में रहने वाली चार महिलाओं की है जो अपने परिवार और समाज की रवायतों की बंदिशों में जकड़ी हुई हैं। ये चारों अलग-अलग उम्र की हैं लेकिन अपनी छिपी इच्छाओं और अभिलाषाओं को हक़ीक़त बनाने की इनकी कोशिश में समानता है, फिर वो चाहे वित्तीय स्वतंत्रता, गायक बनने की, बड़े शहर में जाने की हो या बस जीवन को पूरी तरह से खुल कर जीने की हो।

विधवा ऊषा (रत्ना पाठक) हवाई महल नाम के एक पुरानी इमारत की मालकिन हैं, जहां शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा), लीला (अहाना कुमरा) और रिहाना (पलबिता बोरठाकुर) किराये पर रहती हैं। चारों की कुछ छिपे सपने हैं जिसे वे पूरा करने की कोशिश करती है, शिरीन का पति (सुशांत सिंह) उसे सिर्फ इस्तेमाल की चीज समझता है लेकिन वो छुपकर एक सेल्स गर्ल की नौकरी करती है। लीला एक फोटोग्राफर से प्यार करती है लेकिन उसकी मां ने उसकी शादी एक दूसरे लड़के के साथ तय कर दी है। रिहाना एक बुर्का सिलने वाले दर्जी की बेटी बनी हैं जो घर से कॉलेज के लिए निकलती तो बुर्का पहन कर है लेकिन कॉलेज में बुर्का बैग में रखकर जींस-टॉप में घूमती है। ‘जींस का हक, जीने का हक’ जैसे नारे लगाती है और माइली सायरस को अपना आदर्श मानती है। उषा जी जो 55 साल की विधवा हैं जिन्हें आस पास के सभी लोग बुआ जी कहते हैं, उनका यौन अस्तित्व समाज में स्वीकार्य नहीं है लेकिन वे अकेलेपन से छुटकारा पाने की कोशिश करती हैं। इन्हीं चारों किरदारों के इर्दगिर्द पूरी फिल्म घूमती है और अपने अंदाज से सारे हदों को तोड़ती जाती है। समाज की ढोंगी नैतिकताओं और महिलाओं को पीछे रखने वाली सोच पर सवाल करते हुए यह आपको चौंकाती और झकझोरती है।

फिल्म में सभी कलाकारों का अभिनय प्रभावशाली है और सभी अपने किरदार में फिट नजर आते हैं जहाँ रत्ना पाठक और कोंकणा सेन शर्मा का अभिनय अपने बुलंदी पर है तो वही आहना कुमरा, प्लाबिता बोरठाकुर भी चौकाती हैं।

फिल्म की डायरेक्‍टर अलंकृता श्रीवास्तव दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से मास कम्‍युनिकेशन में पोस्‍ट ग्रेजुएट हैं और वे लम्बे समय तक प्रकाश झा के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम कर चुकी हैं। यह उनकी दूसरी फिल्म है इससे पहले 2011 में उनकी ‘टर्निंग 30 नाम से एक फिल्म आ चुकी है। वे हिम्मती हैं और जोखिम लेना जानती हैं, सेंसर बोर्ड द्वारा  “लिपस्टिक अंडर माय बुर्का” को प्रमाणित करने से इनकार करने पर उन्होंने कहा था कि “मैं पराजित या निराश नहीं हूं”। अगर उन्होंने अपनी यही गति बनाये रखी तो आने वाले दिनों में वे पुरुषवादी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को एक नया नज़रिया दे सकती हैं।

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