हैलो, खाली हैं क्या?
अच्छा तो एक माहौल सोचिए।
एक 50 पार कर चुके बुढ़ऊ हैं। जवानी से ही फंतासी वाली किताबें (अश्लील साहित्य) पढ़ने का शौक है और पत्नी के स्वर्ग सिधारने के बाद 26 साल की एक लड़की को पसंद करते हैं। इसमें कौन सी बुरी बात है? कुछ खास नहीं न?
अब, दूसरा माहौल सोचिए।
एक महिला बाहर नौकरी करती है, मौज में रहती है। बच्चे पति के पास हैं, लेकिन पति भी नौकरी करना चाहता है। इसमें बुरा क्या है? कुछ नहीं न?
लगे हाथ तीसरा और चौथा माहौल भी सोच ही लीजिए।
एक लड़के के घरवाले उसकी एरेंज मैरेज करवाना चाहते हैं, पर अपने पैरों पर खड़ा वह लड़का अपनी प्रेमिका से लव मैरिज करना चाहता है। इसमें बुरा क्या है जी? गाने-बजाने और जींस पहनने का शौकीन एक और लड़का है, जोकि रॉकस्टार बनना चाहता है। इसमें भी कोई बुराई नहीं है? है कि नहीं?
चलिए, अब इन चारों माहौल को मन ही मन में मेस्क्यूलिन टू फेमिनिन जेंडर करते हैं। नहीं समझे? मतलब इन चारों पुरुष किरदारों को महिला किरदारों में कन्वर्ट कर देते हैं। अब जाकर जो परिदृश्य बनता है न, यही लिपस्टिक अंडर माई बुरका फिल्म है।
एक बड़ी बात तो पता ही होगी- इस फिल्म की निर्देशक भी एक महिला ही है- अलंकृता श्रीवास्तव। वही, जिसने गुल पनाग अभिनीत फिल्म टर्निंग थर्टी (30) बनाई थी। और एक बात- फिल्म की डिस्ट्रीब्यूटर भी एक महिला ही है। वहीं टेलीवुड की टीआरपी गर्ल- एकता कपूर।
चलिए, आगे बढ़ने से पहले एक बार ट्रेलर देख लीजिए…
क्या हुआ, वो करें तो साला कैरेक्टर ढीला वाली फीलिंग आ गी के?
फिल्म हरेक समाज में कमोबेश मौजूद रहनेवाली चार अलग-अलग उम्र की महिलाओं की कहानी है। उषा जी पूरे मुहल्ले की बुआ हैं। इरोटिक साहित्य पढ़ने का शौक है, सो उनके भीतर एक रोज़ी फिर से जवान हो रही है। दूसरी, शीरीन है, पति सऊदी में रहता है। पत्नी को बच्चा पैदा करने वाली मशीन बना रखा है। हफ्ते 10 दिन के लिए आता है और समाज की नज़र में वैध माना जाने वाला बलात्कार कर के चला जाता है। (बलात्कार शब्द बुरा लगता हो तो, इसे इच्छा के विरुद्ध सेक्स भी पढ़ सकते हैं) खैर, शीरीन पति से छिपकर अपने अरमानों के लिए नौकरी करती है।
तीसरी, लीला जो है, उसे एक फोटोग्राफर से प्यार है, लेकिन घरवाले उसका अरैंज मैरिज करवाने पर तुले हैं। और चौथी मुस्लिम लड़की रिहाना, जो बुर्के में रहती है, लेकिन हर यूथ की तरह उसके भी ख्वाब हैं। सिंपल से, जैसे कि वह जींस पहनना चाहती है, रॉकस्टार बनना चाहती है।
तो, भइया, ये फिल्म कहानी है-एक टुडे गर्ल, एक इंगेज्ड गर्ल, एक शादीशुदा और एक जवां सपनों वाली बूढ़ी औरत की। इन चारों में जो बातें कॉमन है वह है-भोपाल के एक ही बिल्डिंग में इनका अलग-अलग आशियाना, भावनात्मक नज़दीकियां, इनकी शारीरिक ज़रुरतें और इनके लिपस्टिक वाले सपनें।
महिलाएं फिल्म देखने के बाद एक लिपस्टिक ज़रूर खरीदें, अच्छा लगेगा
लिपस्टिक शीर्षक से पहली बार फिल्म 1976 में अमेरिका में आई थी। लेमंट जॉनसन निर्देशित इस फिल्म लिपस्टिक का विषय हालांकि बलात्कार और उसका बदला लिए जाने को लेकर था। इस अमेरिकी फिल्म लिपस्टिक के रिमेक के बतौर बॉलीवुड में इंसाफ का तराजू 1980 में और तेलगू में इडी न्यायम, इडी धर्मम 1982 में बनी थी। दोनो ही हिट रही।
खैर, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का शीर्षक रखने के पीछे बताया गया कि लिपस्टिक महिलाओं के छोटे-छोटे सपनों, उनकी छोटी-छोटी खुशियों का प्रतीक है, जबकि बुर्का समाज की ओर से लादी जाने वाली परंपराओं, दकियानुसी बातों, कथित संस्कारों, शरीयत आदि का सूचक है। निर्माता प्रकाश झा भी पिछले दिनों प्रोमोशन के दौरान इस बात पर बल देते दिखाई पड़े कि सामाजिक बाध्यताओं और पिछड़ी सोच नाम के इस बुर्के के अंदर महिलाओं की लिपस्टिक जैसी छोटी खुशियां, उनके अरमान, उनकी आज़ादी कैद कर दी जाती है।
बोर होने लगें तो इ पढ़ लीजिए, हल्का महसूसिएगा
इस फिल्म पर शुरू हुई बहस के बीच सुबह मेरे मोबाईल पर व्हॉट्सएप मैसेज में एक प्रसंग आया। सुनेंगे? सुन ही लीजिए!
1980 के दशक में मशहूर फिल्म स्टार, कॉमेडियन एंड प्रॉड्यूसर दादा कोंडके की एक फिल्म आई। नाम था- रोज़, मैरी, मार्लो। सेंसर बोर्ड ने एेतराज़ जताया: ये क्या नाम हुआ- रोज़ मेरी मारलो। दादा ने कहा- ये तीन लड़कियों रोज़, मैरी और मार्लो की कहानी है। सेंसर बोर्ड ने सलाह दी कि नाम बड़ा अश्लील लग रहा है, आगे-पीछे कर के बदल दिया जाए। दादा ने कहा- मुझे कोई एेतराज़ नहीं, आपलोग नाम को आगे-पीछे कर के, जो ठीक लगे रख दो। सेंसर बोर्ड अबतक प्रयास कर रहा है। खैर, सेंसर बोर्ड इस फिल्म के साथ भी एेसा ही करना चाहता था, लेकिन कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने का असर हुआ कि फिल्म सिनेमाहॉल में है।
अब का करेंगे निहलानी जी, दांव तो उल्टा पड़ गया
लिप्सिटिक अंडर माई बुर्का फिल्म को सेंसर बोर्ड ने पास करने में सात महीने से ज्यादा समय लगा दिया। क्या बिगड़ गया निहलानी जी! इस दौरान फिल्म ने दुनिया भर में वाहवाही बटोर ली। विश्व भर में 35 से ज्यादा फिल्म समारोहों में प्रदर्शन हो गया। और तो और इसने 11 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी अपने नाम कर लिए। आपके सुसंस्कृत समाज के कथित संस्कारों की तो धज्जियां उड़ गई, नहीं? हालांकि आपके लिए कोई बड़ी बात तो नहीं है। एक तरफ जेंडर एजुकेशन, पीरियड्स से जुड़ी शिक्षा को किशोरियों के लिए ज़रूरी बताया जाता है और आप हैं कि सैनेटरी नैपकीन पर केंद्रित फुल्लु जैसी फिल्मों पर भी ए सर्टिफिकेट का ठप्पा लगा देते हैं। करते रहिए, बाकी कुछ बिगडने नहीं वाला है।
और अंत में
मेरी एक फेसबुक फ्रेंड है, कोलकाता की, नाम है अनुभवी। हाल ही में शादी हुई है और ग्रेजुएट भी। पढ़ाई कर के अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है। उनके हमदम मनीष इसमें उनका साथ दे रहे हैं। अनुभवी ने व्हॉट्सएप पर इन दिनों स्टेटस लगाया है–एक स्वतंत्र व कामयाब शादीशुदा महिला के पीछे एक खुले विचारों वाले पति का हाथ होता है, जोकि उसपर भरोसा करता है, नाकि समाज के दकियानुसी विचारों पर।
पिछले दिनों दिल्ली में मेरी एक पत्रकार मित्र बनी- राजलक्ष्मी। तेलंगाना की। बहुत छोटी थी तो शादी हो गई। मायके से ससुराल गई, पर भाई की जगह पति मिला, बाकी कुछ न बदला। पति राजेश ने पत्रकारिता की पढ़ाई करवाई। आज हैदराबाद में में तेज़-तर्रार पत्रकार है।
(कोई ज्ञान नहीं दे रहा, बस समाज से आग्रह कर रहा हूं, राजेश और मनीष पैदा करने का)
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