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पब्लिक ट्रांसपोर्ट में पैर फैलाकर क्यों बैठते हैं पुरुष?”

रोज़ झेलना पड़ता है, मुझे ही नहीं उन सभी महिलाओं को जो घर से बाहर निकलती हैं और पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करती हैं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट में आप शेयर ऑटो में बैठी हो या मेट्रो के सामान्य डब्बे में या फिर बस में बैठी हो, हर जगह आप सिकुड़ जाती हैं।

पब्लिक ट्रांसपोर्ट में बैठने वाली कई लड़कियों की यह आम लाइन होती है, “आप ठीक से बैठिए” या “हाथ ठीक से रखिए।” कारण ये कि एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे पुरुषों की है, जिन्हें दोनों हाथ-पैर छितराकर मतलब फैलाकर बैठने की आदत होती है। नतीजन आप बगल में थोड़ी सी जगह में सिमटकर किसी तरह इस्स-उस्स करके एडजस्ट कर लेतीं हैं। अगर बर्दाश्त नहीं होता है तो रोज़ की कहासुनी के लिए तैयार रहिए!

साल 2015 में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में मैनस्प्रेडिंग ( manspreading) शब्द शामिल किया गया था। जिसका मतलब है “सार्वजनिक परिवहन में पुरुषों का पैर को अलग-अलग हिस्से में फैलाकर बैठने की आदत।”

कुछ दिन पहले भी इसको लेकर खूब लिखा गया है, क्योंकि स्पेन की राजधानी मैड्रिड में मैनस्प्रेडिंग पर पाबंदी लगा दी गई। बसों का संचालन करने वाली कॉरपोरेशन ईएमटी बसों में स्टीकर लगा रही है, जिसमें पुरुषों को सीट पर पैर फैलाकर बैठने से मना किया गया है। इन बसों में यह स्लोगन लिखा है – “Respect other’s space.”

साल 2013 से मैनस्प्रेडिंग के खिलाफ ऑनलाइन मुहिम शुरू हुई थी। 2014 में न्यूयॉर्क में भी इसी तरह का एक कैंपेन चला था “डूड इट्स रूड।” इस मुहिम को व्यवहार में लाना उतना ही ज़रूरी है, जितना आपके लिए महिलाओं से संबंधित कोई और मसला है। जब यह मैनस्प्रेडिंग कैंपेन शुरू हुआ था तो इसके विरोध में भी “she-bagging” नाम से एक कैपेंन चला। इसका मतलब था कि महिलाएं बैग रखकर ज़्यादा जगह लेती हैं।

महिलाओं का बैग लेकर ‘जगह’ लेना और पुरुषों का पैर फैलाकर ‘जगह’ लेने में आधारभूत अंतर जेंडर आधारित है। बचपन में ज़मीन पर खाते समय अगर बेटी पैर फैलाकर बैठ जाए तो माएं तुरंत टोकती हैं और वैसे भी बेटियों का पैर फैलाकर बैठना मतलब असभ्य होना है। बेटों को पैर फैलाने पर नहीं टोका जाता और यहीं से जो मानसिकता बन जाती है उसमें और विस्तार होता जाता है, सुधार नहीं।

इसमें भी दो तरह के लोग होते हैं। एक, जिन्हें ये पता ही नहीं होता कि बिना पैर फैलाए भी बैठा जा सकता है। दूसरी कैटेगरी उन पुरुषों की है जिनकी मानसिकता ही यही होती है कि पुरुष हैं तो ऐसे ही बैठेंगे पैर समेटकर तो औरते बैठती हैं! लेकिन इसे कानून बनाकर नहीं सुधारा जा सकता। इसमें सुधार खुद से करना होगा। कम से कम उन पुरुषों को ही देखकर जिन्हें तरीके से उठना-बैठना आता है।

याद रखिये कि ये पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सीट है आपके घर का सोफ़ा नहीं!!!

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