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गर्म हवा के सलीम की तरह लड़ना होगा मुसलमानों को

सन् 1973 में एमएस सत्थु की एक फिल्म आयी थी- गरम हवा। इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।

फिल्म देश के विभाजन की त्रासदी पर आधारित थी। इसकी कहानी आगरा में रह रहे एक मुसलिम परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है, जो बदले माहौल में खुद को समाज से अलग-थलग पाता है। परिवार के साथ कई तरह की घटनाएं होती हैं। इसी कड़ी में परिवार के मुखिया सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी) पर पाकिस्तान के लिए जासूसी करने का आरोप लगता है। वह जेल जाता है, लेकिन उस पर कोई आरोप साबित नहीं हो पाता है।  इधर, इस आरोप के चलते हिंदू समुदाय में उसको और उसके परिवार को लेकर नफरत पनपने लगती है।

फिल्म के आखिरी 10-15 मिनट के दृश्य कुछ यूं हैं कि सलीम मिर्ज़ा थके-हारे और निराश होकर घर लौटते हैं और गुस्से में कहते हैं – लोग मुझसे कतराते हैं, मुंह फेर लेते हैं। पाकिस्तानी जासूस कहते हैं, भला ये भी कोई जिंदगी है? बर्दाश्त की भी हद होती है। बहुत हो गया अब और नहीं।

सलीम मिर्ज़ा की बीवी जमीला – मैं तो पहले ही जानती थी कि यहां एक न एक दिन ऐसी बातें जरूर होंगी।

सलीम मिर्ज़ा – खैर, अब इस मुल्क में रहना नामुमकिन है।

सलीम मिर्ज़ा का बेटा सिकंदर  – अब्बूजान हमें हिंदुस्तान से भागना नहीं चाहिए, बल्कि हिंदुस्तान में रहकर आम आदमी की तरह कांधे से कंधा मिलाकर अपनी मांगों को लेकर लड़ना चाहिए।

यह सुनकर सलीम मिर्ज़ा सुर्ख आंखों से उसकी ओर देखते हैं, लेकिन कहते कुछ नहीं। सिकंदर सिर झुका लेता है। सलीम मिर्ज़ा अपनी पत्नी, बेटे व माल-असबाब लेकर अपने मकान में ताला जड़ निकल पड़ते हैं। गली की दोनों तरफ के घरों के दरीचों से कुछ आंखें उनकी ओर घूरती हैं। सलीम मिर्ज़ा चौक पर पहुंचते हैं और इक्के पर सवार होने लगते हैं।

इतने में गाड़ीवान तंज के लहज़े में कहता है – लो भाई !आज मिर्ज़ा साहब भी चल दिये। मेरा मन तो पहले ही बोले था कि एक दिन आप जाओगे जरूर। गाड़ीवान घोड़े को चलने का इशारा करता है।

कुछ दूर जाने पर लोगों की भीड़ से सामना होता है जो हाथों में तख्तियां लिये सरकार से रोटी, कपड़ा और मकान मांग रही है। जुलूस सड़क से होकर गुजरता है और उन्हीं में एक युवक सिंकदर को जुलूस में शामिल होने को कहता है, तो सिकंदर अपने पिता से इसकीद इजाजत मांगता है।

सिकंदर मिर्ज़ा – अब्बू!

सलीम मिर्ज़ा – जाओ बेटा। अब मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। इनसान कब तक अकेला जी सकता है।

पिता की सहमति मिलते ही सिकंदर भी भीड़ में शामिल होकर नारे लगाने लगता है।

मिर्ज़ा- जमीला मैं भी अकेली जिंदगी की घुटन से तंग आ गया हूं।

इतना कहकर मिर्ज़ा भी उस भीड़ में शामिल हो जाते हैं। तांगा जमीला और सामान लेकर घर की ओर लौटने लगता है और  उसी वक्त नेपथ्य से एक शेर गूंजता है-

जो दूर से तूफान का करते हैं नजारा,

उनके लिए तूफान वहां भी है यहां भी।

धाराओं से जो मिल जाओगे, बन जाओगे धारा,

ये वक्त का एलान वहां भी है यहां भी।

फिल्म विभाजन के बाद बढ़े अविश्वास व एक समुदाय के अलग-थलग पड़ जाने की त्रासदी को उजागर तो करती ही है, साथ ही यह मैसेज भी देती है कि खुद को हाथिये पर रखने से कुछ हासिल नहीं होनेवाला बल्कि खुद को समाज का हिस्सा मानना होगा और पलायन की जगह लड़ना होगा।

यह फिल्म बनी थी 44 साल पहले, लेकिन मुसलिम समुदाय अब तक इस फिल्म से सीख नहीं ले सका है। वे अब भी अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरकर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करने की बजाय राजनीतिज्ञों द्वारा कुछ किये जाने की उम्मीद रखते हैं।

पिछले दो सालों में बीफ व गाय तस्करी के संदेह में गौरक्षकों के हाथों अल्पसंख्यक समुदाय के एक दर्जन से अधिक लोगों की हत्या हो चुकी है, लेकिन इसके खिलाफ मुसलमान अब तक सड़कों पर नहीं उतरे हैं। अलबत्ता सोशल मीडिया पर वे अपना गुस्सा ज़ाहिर कर रहे हैं। ताज़ा मामला जुनैद का है जो ट्रेन में सफर कर रहा था। सीट को लेकर हुए विवाद ने धार्मिक रंग ले लिया और उसकी चाकू गोदकर हत्या कर दी गयी।

इसके विरोध में मुसलिम समुदाय ने काली पट्टी बांधकर नमाज पढ़ी, जो इन घटनाओं के विरोध एक तरीका था। बुधवार को देश के विभिन्न हिस्सों में #NotInMyName कैंपेन चलाकर आवारा भीड़ के खिलाफ प्रदर्शन किया गया। इन प्रदर्शनों में भी मुसलिम समुदाय की भागीदारी कम ही थी।

यहां यह भी बताना जरूरी है कि कुछ दिन पहले सहारनपुर में दलितों पर अत्याचार के खिलाफ दलित समुदाय के लोगों ने दिल्ली में धरना  दिया था। इससे पहले किसानों ने कर्ज माफी की मांग पर भी कई दिनों तक प्रदर्शन किया था।  ऐसे में सवाल उठता है कि जब हर समुदाय अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहा है, तो फिर मुसलिम समुदाय क्यों नहीं सड़कों पर उतरकर विरोध जता रहा है ? क्यों नहीं वे हाथों में तख्तियां लेकर राजपथ पर शांतिपूर्ण तरीके से रैली निकाल रहे हैं? आखिरकार सरकार तो उनकी भी है, फिर क्यों वे अब भी अलग-थलग हैं?

जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के समाज विज्ञान विभाग के प्रमुख प्रो. निशात कैसर इन सवालों का जवाब कुछ यूं देते हैं, ‘मुसलिम समुदाय अलग-अलग धरों में बंटा हुआ है। उनकी राजनीतिक विचारधारा भी अलग-अलग है, इसलिए वे एक साथ आ नहीं पा रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी वजह यह है कि वे इसको लेकर आक्रामक नहीं होना चाहते हैं। उन्हें डर रहता है कि अगर वे आक्रामक होंगे, तो यह उनके खिलाफ जा सकता है। यही कारण है कि वे चाहते हैं कि संवैधानिक तरीके से सरकार इस मामले से निपटे।’

गर्म हवा का जिक्र करने पर वह कहते हैं कि पहले का साम्प्रदायिक माहौल अलग था, लेकिन अभी का बिल्कुल अलग है। अभी साम्प्रदायिक ताकतों को कवर्ट सपोर्ट मिल रहा है। साम्प्रदायिकता का इंस्टीट्यूशनलाइजेशन हो गया है। यह बेहद खतरनाक है। अगर इस पर अभी ठोस कार्रवाई नहीं हुई, तो यह बड़ा खतरनाक मोड़ ले सकता है।

जामिया मिलिया इस्लामिया के ही राजनीतिक विज्ञान विभाग के प्रोफेसर निसार उल हक भी मानते हैं कि अगर मुसलमान सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करेंगे, तो वह उनके ही खिलाफ जायेगा। वह कहते हैं, ‘पूरा समुदाय अगर सड़क पर आ जाये और इन्हीं में से 10-20 लड़के कोई शरारत कर दें, तो स्थिति भयावह हो जायेगी और इससे मुसलिम समुदाय ही कटघरे में आ जायेगा। यही वजह है कि वे सड़कों पर उतरने से परहेज कर रहे हैं।’

राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दूबे ने कहा कि इस तरह की घटनाओं से मुसलिम समुदाय डरा हुआ है। ऐसे में हिंदु समाज व राजनीतिक पार्टियों को चाहिए कि वे उनके साथ खड़े हों। जब तक उन्हें समर्थन नहीं मिलेगा, तब तक वे आंदोलन नहीं करेंगे।

बहरहाल, वजह जो भी हो, लेकिन मुसलमानों को यह समझना होगा कि यह सरकार उनकी भी है और उन्हें अपनी मांग सरकार के सामने रखनी होगी, शांतिपूर्ण तरीके से। अगर वे ऐसा नहीं करेंगे, तो उनके नाम पर तमाम राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटी सेंकेंगे और उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा।

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