Site icon Youth Ki Awaaz

अपनी मौत के लिए खुद ही ज़िम्मेदार है विपक्ष

बिहार में कल शाम जो हुआ वह शायद कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। RJD, काँग्रेस और JDU का महागठबंधन शायद बना ही टूटने के लिए था। BJP की देश भर में बढ़ती लोकप्रियता और बिहार के महागठबंधन में बढ़ती अशांति के चलते यह दिन तो आना ही था। फरवरी में इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित खबर के अनुसार लालू यादव अपने बेटे तेजस्वी को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते थे। महागठबंधन में दरारें तभी से दिखने लगी थी। कल जो हुआ वह गठबंधन के अंदरूनी तनाव और RJD में व्याप्त भ्रष्टाचार का नतीजा है।

प्रकाश पर्व के दौरान मोदी के साथ नीतीश कुमार

लोकसभा चुनावों के बाद लगातार BJP की जीत हुई है। कुछ राज्य हैं जहाँ BJP ने मुँह की भी खाई है, पर ऐसे चुनाव एक या दो ही हुए। हालांकि लिबरल विश्लेषकों ने हर चुनाव से पहले मोदी की लहर को थमता भी बतया। पर उत्तरप्रदेश का चुनाव परिणाम शायद विश्लेषकों की समझ पर एक सवाल भी था और संकेत भी कि केवल स्टूडियो तक सीमित रहकर राजनीतिक विश्लेषण क्रेडिबिलिटी के लिए घातक हो सकता है। आम जनता शायद कुछ और ही मन बना कर बैठी है। आज 18 राज्यों में भाजपा  या भाजपा समर्थित सरकार है।

बिहार के घटनाक्रम से एक बात खुल कर सामने आती है, और वह यह है कि आज देश में विपक्ष का प्रायः सफाया हो चुका है। कम से कम राष्ट्रीय स्तर पर तो ऐसा ही लग रहा है। एक समय पर सरकार बनाने और गिराने वाले दल आज मुट्ठी भर सांसदों के बल पर विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं। उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य से BSP और SP का नामोंनिशान मिट गया है।  एक समय की सबसे बड़ी पार्टी काँग्रेस आज 45 सीटों पर सिमट गयी है। नीतीश कुमार के फैसले ने विपक्ष को और भी छोटा कर दिया है। यह कहा जा सकता है कि देश में एक मज़बूत सरकार के होने से सरकार बिना किसी दबाव के काम कर सकती है पर वहीं यह भी साफ है कि बिना विपक्ष के सरकार पर लगाम कौन कसेगा?

पर आखिर यह लगाम छूटी कैसे? पत्रकारों से बात करते हुए, साफ़ शब्दों में, विपक्ष को एजेंडा और आइडियोलॉजी विहीन बता कर नितीश कुमार ने इस सवाल का भी जवाब दे दिया है। देखा जाये तो उन्होंने कुछ गलत भी नहीं कहा। पिछले तीन वर्षों में विपक्ष के पास “सेक्यूलरिज्म”, “नैशनलिज़्म” और “आईडिया ऑफ़ इंडिया ” के अलावा कोई मुद्दा था ही नहीं।

विपक्ष केवल सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान के अनिवार्य करने और कन्हैया कुमार के नारों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने में जुटा रहा। देश के वह मुद्दे जो आम इंसान को प्रभावित करते हैं, उन पर कोई चर्चा नहीं हुई।

पर विपक्ष के सामने पड़े इस गतिरोध को हटाया कैसे जाये? इसके लिए विपक्ष को पहले यह समझ लेना होगा की इस अप्रोच से 2019 के लोकसभा चुनाव शायद वह अभी से हार गए हैं। आज विपक्ष को देख कर नहीं लगता की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी, काँग्रेस, में चुनाव जीतने की ज़रा भी लालसा है।

अगर विपक्ष को मज़बूत बनना है तो विपक्ष को एक बड़ी पार्टी की भी ज़रूरत होगी। और काँग्रेस को एक बड़ी पार्टी बनने के लिए एक बड़ा त्याग करना होगा। वह त्याग होगा गाँधी परिवार का त्याग। गले तक घोटालों में डूबा काँग्रेस परिवार अपने साथ काँग्रेस और विपक्ष, दोनों को ले डूबने में सक्षम है।

एक नयी काँग्रेस न केवल एक नए रूप में मतदाताओं के सामने जाएगी बल्कि नैतिकता के आधार पर वोट भी मांग सकेगी। इस नयी कांग्रेस का स्वरुप क्या होगा? नेता कौन होंगे? इत्यादि प्रश्नों पर विचार करने की आवश्यकता है। आज विपक्ष में काँग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसकी देशभर में ज़मीनी स्तर पर पकड़ है। एक नए नेतृत्व में उस पकड़ को और मज़बूत किया जा सकता है। उस नए नेतृत्व में नए सिरे से क्षेत्रीय पार्टियों से तालमेल की सम्भावना रहेगी और एक मज़बूत गठबंधन का उदय हो सकता है।

परन्तु नए गठबंधन के साथ एक नया एजेंडा भी प्रस्तुत करना होगा। सेकुलरिज्म के जुमले और अल्पसंख्यकों के कंधे से बन्दूक चलाना और संभव नहीं होगा। नए युग के भारत में लोगों की आकांक्षाएं और अपेक्षाएं सत्तर और अस्सी के दशक के समाजवाद से नहीं पूरी की जा सकती।यही बात विपक्ष को समझनी होगी।

Exit mobile version