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बस कीजिये नीतीश बाबू, कितनी बार सुनियेगा अंतरात्मा की आवाज़?

“मैं अंतरात्मा की आवाज़ पर इस्तीफा देता हूं या देती हूं या इस पद को लेने से इंकार करती हूं या करता हूं!” हम लोग राजनीति में अक्सर ये सुनते रहते हैं, अभी-अभी कुछ दिनों पहले ही सुना है। दरअसल केंद्रीय स्तर या राज्य स्तर की राजनीति में जब-जब संकट या दुविधा की स्थिति होती है उससे उबरने के लिए एक अंतरात्मा की आवाज़ आती है! अब ये अंतरात्मा की आवाज क्या है उस पर गौर करने से पहले समझ लेते हैं कि “बड़ी-बड़ी” अंतरात्माओं की आवाज़ हमें कब-कब सुनने को मिल चुकी हैं।

अभी बस कुछ ही दिन पहले नीतीश कुमार ने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनी और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। सारा राजनीतिक समीकरण ही बदल गया। बिहार ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति में भी सब उलट-पुलट हो गया। बीते दिनों राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति चुनाव में जनप्रतिनिधियों से अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट देने की अपील की थी। विपक्ष की उम्मीदवार मीरा कुमार ने भी सभी विधायकों और सांसदों से अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर और देश के भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपना मत देने की अपील की थी।

साल 2004 यूपीए सत्ता में आई। चारो तरफ़ गहमा-गहमी थी। पीएम की कुर्सी सोनिया गांधी का इंतज़ार कर रही थी। तभी सोनिया गांधी ने अंतरात्मा की आवाज़ पर पीएम पद ठुकरा दिया और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने।

अब साल, 1969 की राष्ट्रपति चुनाव की करते हैं, तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का निधन हो गया और उपराष्ट्रपति वी.वी. गिरि कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाए गए। कांग्रेस आई (इंदिरा गांधी वाले धड़े) का तब सिंडिकेट यानि कि कांग्रेस(ओ) की कार्यसमिति से विवाद चल रहा था। कांग्रेस (ओ) ने नीलम संजीव रेड्डी का नाम राष्ट्रपति पद के लिए घोषित कर दिया। इंदिरा गांधी ने अपने दल के सांसदों और विधायकों से अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट देने की अपील की। इंदिरा गांधी की अपील की वजह से वी.वी. गिरि, नीलम संजीव रेड्डी को बेहद कम अंतर से हराने में सफल रहे थे।

कुल मिलाकर जब-जब राजनेताओं ने अपने मन की करनी चाही है, लेकिन उसे करने की परिस्थितियां अनुकूल नहीं थी तो उसे अंतरात्मा की आवाज़ बताकर किया गया। यह अंतरात्मा की आवाज उथल-पुथल कर देती है। कहते हैं कि अंतरात्मा मतलब “आत्मा की आवाज़” होता है। लेकिन जैसे उदाहरण हमने देखे उससे ज़ाहिर होता है कि हर जगह इस शब्द का स्वार्थ में ही इस्तेमाल किया गया। आत्मा इतनी स्वार्थी होती है क्या? और नहीं तो फिर अंतरात्मा क्या है?

एक बार एक पत्रकार ने ओशो से आत्मा और अंतरात्मा के बारे में पूछा। पत्रकार ने कहा आप अंतरात्मा खत्म करने की बात क्यूं करते हैं? ओशो का कहना था, “अंतरात्मा समाज द्वारा बनाई गयी है। आत्मा और अंतरात्मा दो अलग अलग चीजें हैं। फ्रैंच भाषा में एक ही शब्‍द है, अंतरात्‍मा और आत्‍मा दोनों के लिए। हम आत्‍मा अपने साथ लाते हैं और अंतरात्‍मा समाज, परिवार, शिक्षा और दूसरे सभी लोगों द्वारा दी जाती है। आत्‍मा से भरा व्यक्ति कुछ भी गलत नहीं कर सकता, यह असंभव है।”

भारतीय राजनीतिक इतिहास में अब तक शायद एक ही शख्स ने ‘अंतरात्मा’ नहीं बल्कि आत्मा की आवाज़ सुनकर फ़ैसला लिया। वो थे लालबहादुर शास्त्री, जब 1956 के रेल हादसे के बाद अपने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। बाकी तो बस अंतरात्मा की सुनते हैं और अपना हित ही साधते हैं। इसलिए अपनी ज़िदंगी में कुछ अच्छा करना हो तो आत्मा की सुनिएगा अंतरात्मा की नहीं !!!

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