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क्या पुत्रमोह में लालू ने डुबा दी महागठबंधन की नैय्या?

राजनीति में बिसातें बिछती रहती हैं, यहां मौका जिसने भांप लिया बाज़ी उसकी। बिहार की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा यह किसी को अंदाज़ा नहीं था। बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित भी इससे अनभिज्ञ थे कि बिहार की सियासी उठापटक में गेंद किसके पाले में जाएगी। लेकिन कुल 5 से 6 घंटे के अंदर बिहार एक नया सवेरा देखने के लिए तैयार हो गया। लंबे समय से चली आ रही खींचतान के बीच लालू के राजनीतिक पतन की सूचना किसी को नहीं थी। बिहार की राजनीति में एकछत्र राज करने वाले लालू को अपने पतन की संभावनाएं ज़रूर नज़र आई होंगी, लेकिन अपना किला बर्बाद होते इतनी जल्दी देखेंगे यह तो उनको भी विश्वास नहीं हो रहा होगा। लालू के लिए यह दिन शायद सबसे बुरे दिनों में से होगा।

राजनीति का इतना बड़ा पराक्रमी लालू यादव जिसने 1990 में आडवाणी की रथयात्रा को समस्तीपुर में रोककर सेक्यूलर होने के तमाम मानकों पर खुद को साबित किया और उनकी यह खिलाफत भारत भर में भाजपा विरोधियों को उनका लोहा मनवाने पर मजबूर कर गई। वह इतनी बड़ी पटखनी कैसे खा गया?

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में कूदा छात्र नेता जिसने कॉलेज के दिनों से ही राजनीति और रणनीति की एबीसीडी सीखी, क्या वह गच्चा खा गया? लालू ने गच्चा नहीं खाया बल्कि बिहार नरेश लालू यादव का किला ढ़हने का कारण उनका पुत्र मोह है। लालू यादव, बिहार की सियासत में 12 साल बाद मौका चूके और कदम पीछे लेने के लिए मजबूर हुए, कारण सिर्फ एक है- उनके पुत्रों का राजनीतिक करियर।

लालू प्रसाद यादव ने जनता दल से अलग होकर 1997 में राष्ट्रीय जनता दल यानी आर.जे.डी. का गठन किया। पार्टी गठन से पहले ही लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री की गद्दी पर काबिज़ हो अपनी सेवांए दे चुके थे। लालू यादव 1990 में बिहार के सीएम बने और पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। यही वह दौर था जब हिंदुत्व और राम मंदिर के नाम पर भाजपा नेता एल.के.आडवाणी ने रथयात्रा शुरू की थी, जिसे लालू ने रोका और देेखते ही देखते राजनीति में सुपरस्टार हो गए।

इसके बाद फिर 1995 में लालू को बिहार की बागडोर संभालने की ज़िम्मेदारी मिली और उन्होंने 1997 तक सीएम की कुर्सी संभाली। इस दौरान लालू पर चारा घोटाले के आरोप सामने आए और इसके बाद लालू यादव को इस्तीफा देना पड़ा। इस आरोप से उन्हें आज तक मुक्ति नहीं मिल पाई है और कोर्ट-कचहरी के फेरे लालू को आज भी लगाने पड़ रहे हैं। लालू पर आरोप ज़रूर लगे, लेकिन लालू वो इंसान नहीं थे जो सत्ता त्याग देते, लालू ने कुर्सी ज़रूर छोड़ी लेकिन राज उनका ही रहा। लालू के कुर्सी छोड़ने के बाद उनकी पत्नी राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री बनीं। इसके बाद फिर कभी लालू यादव को बिहार के मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होने का गौरव प्राप्त नहीं हुआ।

2005 के बाद लालू की पार्टी आरजेडी सत्ता के लिए तरसती रही और सुशासन बाबू नीतीश और सुशील मोदी की जुगलबंदी ने कभी लालू को सत्ता में नहीं आने दिया। सत्ता तो दूर सरकार ने लालू को सीबीआई तक का डर दिखाया, लेकिन बिहार की राजनीति का बाहुबली डरा नहीं। सबकुछ सामान्य चल रहा था मगर सरकारें लालू को चारा घोटाले के फंदे से मुक्त रहने देना नहीं चाहती थी। लालू को बड़ा झटका तब लगा जब 2013 में सीबीआई की विशेष अदालत ने लालू यादव को दोषी साबित कर चारा घोटाला मामले में 5 साल की सजा सुनाई।

लालू को सजा मुकर्रर होने के साथ ही यह तय हो गया कि लालू अब अपनी राजनीतिक पारी को आगे नहीं बढ़ा पाएंगे। लालू पर चुनाव लड़ने की पाबंदी लग गई। लालू को सज़ा होने से पहले ही जून 2013 में जेडीयू-बीजेपी का 17 साल पुराना गठबंधन टूट गया। बीजेपी और नीतीश सरकार से के रास्ते अलग-अलग हो गए। इस अलगाव के बाद बीजेपी, आरजेडी और आरएलडी हर मोड़ पर एक दूसरे के आमने-सामने खड़ी नज़र आई। 2014 का दौर नरेंद्र मोदी का रहा, लोकसभा से लेकर विधानसभा चुनावों मे भाजपा को अभूतपूर्व और अप्रत्याशित जीत मिलने लगी। लालू और नीतीश ने पहले ही भांप लिया कि हाथ नहीं मिलाने पर भाजपा की आंधी में उड़ जाना ही मयस्सर होगा। मजबूरी और अस्तित्व में बने रहने के लिए इस तरह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव एक साथ आए।

दो विपरीत किस्म के लोग साथ आए और इन दोनों ने बिहार में बड़ी वापसी की। विधानसभा चुनाव में दोनों के गठबंधन ने मैदान मार लिया। दोनों ने सरकार बनाई और लालू के दो पुत्रों ने भी कैबिनेट में जगह बनाई। लालू के दोनों बेटे गठबंधन सरकार में मंत्री बने। जब तेजस्वी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो लालू एकबार फिर संकट में आ गए। मगर चुनावी राजनीति से आउट हो चुके लालू को पुत्रमोह ने मजबूर कर दिया और आरजेडी की राजनीति पर संकट के बादल मंडराने लगे। तेजस्वी अगर लालू के पुत्र नहीं होते तो शायद लालू बढ़ते दबाव के मद्देनज़र इस्तीफा दिलवा देते, लेकिन पुत्र मोह में लालू ने संगठन से बगावत के सुर छेड़ दिए और नतीजा सामने है।

हिंदी में एक कहावत है ‘बाढ़े पूत पिता के धरमे और खेती उपजे अपने करमे’ जिसका अर्थ है पिता द्वारा किया हुआ धर्माचरण का प्रभाव संतति पर अवश्य ही पड़ता है और खेती के लिए पुरुषार्थ आवश्यक है। लालू के अपने कर्म तो जगज़ाहिर हैं, उसपर उनके पुत्रों ने और लीपा-पोती कर दी। लालू की बिहार में राजनीतिक धौंस को तेज प्रताप और तेजस्वी ने ज़्यादा ही संजीदगी से ले लिया और पढ़ने-लिखने की उम्र में जाने कितना वक्त बर्बाद किया।

लालू के बेटों ने अगर लालू के भ्रष्ट चरित्र के उलट ईमानदार राजनीतिक समझ बढ़ाई होती तो आज मामला कुछ और होता। ना लालू को बगावत करनी पड़ती, ना उनकी राजनीतिक साख दांव पर लगती। लालू का बागी होना और पुत्र का इस्तीफा इस बात का साक्ष्य है कि लालू के बाद उनके परिवार में उस समझ का कोई व्यक्ति नहीं है, जो विरोधियों को एेसे टक्कर दे सके और विवादों को उलझाए रखे। एेसे में विरोधियों के ताप में लालू का कुनबा खत्म हो जाएगा। इसी कारण लालू हार मानने से परहेज़ कर रहे हैं और यह उम्मीद कर रहे हैं कि विरोधियों की चोट से शायद अनके पुत्रों को सीख मिलें और उनकी अक्ल ठिकाने पर आए, ताकि बिहार की राजनीति में उनकी राजनीतिक पराकष्ठा को कोई आगे बढ़ाने वाला बना रहे।

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