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सुशासन बाबू आपको अचानक भ्रष्टाचार याद आना बड़ा ही क्यूट है

इतिहास खुद को दुहराता है, पहले एक त्रासदी की तरह और फिर एक मज़ाक की तरह। कार्ल मार्क्स द्वारा कही गयी यह बात आज बिहार की बदलती राजनीति पर बखूबी जमती है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यकायक अपने पद से इस्तीफा देना और फिर अगले ही दिन बिहार के मुख्यमंत्री पद की छठी बार शपथ ग्रहण करना, यह बस एक इत्तेफ़ाक नहीं हो सकता।

माननीय मुख्यमंत्री के इस कदम को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मास्टरस्ट्रोक बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि नीतीश भ्रष्टाचार को लेकर काफी असहिष्णु हैं। उन्होंने प्रदेश हित में अपनी कुर्सी का भी त्याग कर दिया। मगर समर्पण और सेवा भाव के इतर उनके इस फैसले से मौकापरस्ती व सोची समझी साजिश की झलक साफ नज़र आती है। राजद और भ्रष्टाचार का रिश्ता कोई एक-दो साल पुराना नहीं है, जिससे नीतीश अभी-अभी अवगत हुए हों और अचानक ही बिहार की जनता के हित का ख़याल आ गया हो।

2015 में राजद के साथ गठबंधन करने के वक्त क्या नीतीश को ईमानदारी और भ्रष्टाचार के बीच का अंतर नहीं मालूम था। बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान हर पब्लिक मीटिंग, कांफ्रेंस या सम्मेलन में नीतीश से एक ही सवाल किया जाता- ‘आखिर सुशासन बाबू, जंगलराज चलाने वालों के साथ क्यों मिल गए?’ तब नीतीश भाजपा विरोध और देशहित की बात करते थे। उन्हें गुजरात के साथ अपार संवेदनाएं थी। सांप्रदायिकता और फासीवाद के विरूद्ध भ्रष्टाचार जैसी चीज़ों को नकार दिया गया था और धर्मनिरपेक्षता उनकी पहली वरीयता बन गई थी। उन्होंने यहां तक कहा था कि मिट्टी में मिल जाऊंगा पर भाजपा से हाथ नहीं मिलाऊंगा। मगर इन 2 सालों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में शायद भाजपा एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनकर उभर रही है, तभी तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दोनों फिर साथ-साथ हो लिए।

मुझे नोटबंदी के वो दिन याद आते हैं जब जदयू ने ही भाजपा पर जिलों में कार्यालय के नाम पर निवेश के आरोप लगाए थे। यह सवाल उठाया गया था कि नोटबंदी से पहले, जिलों में पार्टी दफ्तरों के लिए जिस तरह से ज़मीन खरीदी गई, इससे यह साफ़ है कि भाजपा के बड़े नेताओं से लेकर छोटे कार्यकर्ताओं तक को नोटबंदी की खबर थी।

इसके इतर ललित मोदी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप, मध्यप्रदेश का व्यापम घोटाला, छत्तीसगढ़ का चावल तथा प्रियदर्शनी बैंक घोटाला, गुजरात का एसजीपीसी घोटाला, विजय माल्या को देश से बाहर भगाना, गीर बाघ अभयारण्य जमीन आवंटन घोटाला, पनामा पेपर्स घोटाला, फेयर एंड लवली एमनेस्टी स्कीम घोटाला, टेलीकॉम घोटाला आदि भाजपा की ईमानदार छवि के बेहतरीन उदाहरण हैं!!

नीतीश विपक्ष के लिए एक अच्छे नैरेटिव हो सकते थे। सहयोगी पार्टी पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों से नीतीश को काम करने में इतनी ही परेशानी थी तो बिहार की जनता के जनादेश का सम्मान करते हुए साहस पूर्वक तेजस्वी यादव से इस्तीफा मांगते। इस्तीफा ना देने की स्थिति में उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने के साथ महागठबंधन विधायक दल की बैठक में अपना पक्ष रखते हुए त्यागपत्र दे देते।

दोबारा चुनाव कराने का विकल्प भी जोखिम भरा मगर एक अच्छा विकल्प था, हां ऐसे में उनके फिर मुख्यमंत्री बनने की संभावनाएं उतनी नहीं थी। यह निर्णय भ्रष्टाचार व सांप्रदायिकता दोनों के विरुद्ध उनकी प्रतिबद्धता को तो सिद्ध करता ही साथ ही एक आदर्श नेता के रूप में उनकी छवि को भी मजबूत करता। मगर नीतीश ने राजनीति करना ठीक समझा और इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं। जंगलराज को खत्म कर के सुशासन राज लाने का वादा करने वाले नीतीश जब कुर्सी मोह में लालू से हाथ मिला सकते हैं तो वह कुछ भी कर सकते हैं। आखिर कब तक वह पाले की अदला-बदली कर बिहार की कुर्सी पर काबिज़ रह पाएंगे?

बिहार की जनता को अब समझना होगा कि प्रदेश हित कुछ नहीं होता, बस स्वयंहित होता है। नीतीश, लालू व मोदी की राजनीति से अब ऊपर उठना होगा। ऐसा ना हो कि एनडीए के विरोध में आप लालू प्रसाद का समर्थन करने लगें, जैसा कि कुछ लोग कर रहे हैं। उनके लिए अंत में एक छोटी सी दरख्वास्त- आपके बेवजह चिल्लाने से माननीय लालू प्रसाद जी, महात्मा गांधी नहीं हो जाएंगे और ना ही राजद एक ईमानदार पार्टी। नैतिकता आपकी पूंजी है। धर्मनिरपेक्षता को वरीयता देना बिल्कुल सही है, मगर भ्रष्टाचार को नजरअंदाज़ करना घातक हो सकता है।

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