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विरोध के आगे झुका DDA, नहीं ढहाई जाएंगी बलजीत नगर में और झुग्गियां

एडिटर्स नोट:- यह रिपोर्ट YKA पर 5 जुलाई और 25 जून को डीडीए द्वारा बलजीत नगर की गुलशन चौक बस्ती में डेमोलिशन वाली रिपोर्ट का फॉलोअप है।

समुदाय के बीच जाकर काम करने वाले कम्यूनिटी ऑर्गनाइज़र के लिए अमेरिकी ऐक्टिविस्ट सॉल एलिन्स्की ने एक किताब “रूल्ज़ फ़ोर रैडिकल्ज़” लिखी है, जिसमें उन्होंने रैडिकल बनने के लिए 13 नियम दिए हैं। उन नियमों में पहला नियम है- 

“आपकी शक्ति वो नहीं है जो आपको लगता है कि आपके पास है, बल्कि असली शक्ति वो है जो आपके शत्रु को लगता है आपके पास है।”

ये नियम कम आय वाले लोगों के लिए सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और कानूनी शक्ति प्राप्त करने के लिए लिखा गया है। साथ ही कट्टरवाद को विशेष रूप से संकट की स्थिति में सामाजिक हस्तक्षेप के लिए सबसे शक्तिशाली तरीक़ों में से एक वर्णित किया गया है।

डीडीए अधिकारियों और पुलिस ने 5 जुलाई, 2017 को बलजीत नगर की गुलशन चौक झुग्गी में 200 घरों को ध्वस्त कर दिया था, जिसने 2000 से अधिक लोगों को बेघर और असहाय बना दिया गया। उन्हें एक हफ्ते से भी ज़्यादा समय तक खुले आसमान के नीचे रहना पड़ा। खाने-पीने की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। फिर उन्हें ख़बर मिली कि 12 जुलाई को वो आस-पास के घर तोड़ने फिर से आने वाले हैं और सूत्रों की माने तो 14 और 20 को भी वो बलजीत नगर की अलग-अलग झुग्गियों को तोड़ सकते हैं। दिन-ब-दिन बिगड़ती स्थिति और आगे होने वाले विनाश के विरोध में सभी बस्तियों को एक साथ आना पड़ा। उन्होंने कुछ सिविल सोसाइटी संगठनों की सहायता से डीडीए अधिकारियों के साथ इस पर चर्चा करने का निर्णय लिया।

इन संगठनों ने इस मुद्दे का अध्ययन करने के लिए एक साथ मिलकर काम किया है और विध्वंस के बाद पुनर्वास और मुआवज़े के लिए दिल्ली की उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है। उन्हें पता चला है कि सभी घर बिना किसी अग्रिम सूचना के तोड़े गए हैं।

बस्ती के लोगों ने डीडीए के विरोध में धरने पर बैठने का फैसला किया और बलजीत नगर की सभी झुग्गियों के लोग विकास सदन आईएनए, दिल्ली में डीडीए कार्यालय के सामने विध्वंस का विरोध करने के लिए निकल पड़े। 11 जुलाई, 2017 की सुबह 10 बजे इस उद्देश्य के लिए बड़ी संख्या में बस्ती के लोग एकत्रित हुए। विभिन्न संस्थानों के छात्र-छात्राएं और कई नागरिक समाज संगठनों के सदस्य उनके साथ इस प्रदर्शन में शामिल हुए। उन्होंने डीडीए के प्रधान आयुक्त को अपनी मांगों का एक ज्ञापन प्रस्तुत किया। मांगों पर चर्चा के लिए एक प्रतिनिधिमंडल कार्यालय के अंदर बुलाया गया। जिस समय कार्यालय में चर्चा चल रही थी, लोग सड़क पर कार्यालय के सामने इकट्ठा होकर अपने अधिकारों के नारे लगा रहे थे।

नारे जैसे “जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है”, “हम अपना अधिकार मांगते, नहीं किसी से भीख मांगते” और “घर तोड़ेने वालों को, एक धक्का और दो” से पूरा माहौल गुंजायमान हो गया।

उन्होंने विरोध के गीत गाए और अपने अनुभवों को साझा किया, जो चौंकाने वाले और भावनात्मक थे। महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों और विकलांग व्यक्तियों के साथ व्यवहार करने में पुलिस और डीडीए का कायरतापूर्ण कृत्य, असंवेदनशील और अमानवीय था। बच्चों की शिक्षा, महिलाओं और बुजुर्गों की गरिमा इससे बुरी तरह प्रभावित हुई है।

यहां आता है रैडिकल्ज़ का पहला नियम जो कहता है कि आपकी शक्ति वो नहीं है जो आपको लगता है कि आपके पास है, बल्कि असली शक्ति वो है जो आपके शत्रु को लगता है आपके पास है। किसी भी समुदाय की शक्ति उनकी एकता और उनके एकसाथ होने में निहित है। उन्हें एहसास नहीं हो सकता था कि उन पर अत्याचार हुआ था। क्रूरता के समय वे एक-दूसरे के साथ खड़े हुए और यही उनकी वो शक्ति थी कि डीडीए को उनकी मांगों को सुनना पड़ा।

बैठक में डीडीए अधिकारियों ने बस्तियों में कोई और विध्वंस नहीं करने पर सहमति व्यक्त की। सामुदायिक प्रतिनिधि मंडल के सदस्य, बैठक से बहुत खुश थे। उन लोगों के अनुसार ये अभी आधी ही जीत है और लम्बी लड़ाई लड़ी जानी बाक़ी है। बाक़ी मुद्दों पर अधिकारियों का कोई स्पष्ट मत सामने निकलकर नहीं आया। नोटिस के मुद्दे पर उन्होंने यह स्वीकार करने से ही मना कर दिया कि किसी भी विध्वंस से 3 सप्ताह पूर्व नोटिस देना पड़ता है। हालांकि उन्हें उच्च न्यायालय के आदेश की एक कॉपी देकर यह बताया गया। वहीं पुनर्वास के मुद्दे पर डीडीए के अधिकारीयों ने बस्ती के लोगों के 2006 के पहले के पहचान पत्र/ऐड्रेस प्रूफ़ का प्रमाण मांगा है, जिसे जमा करने के बाद उचित कार्रवाही की जाएगी।

पुनर्वास के मुद्दे पर वो 2006 से पहले बस्ती में रहने वाले लोगों को पुनर्वास प्रदान करने पर सहमत हुए हैं और इस हेतु पहचान के सबूत की प्रतियां डीडीए को प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। इसी तरह की एक घटना वर्ष 2011 में हुई थी जब लोगों ने साथ आकर विध्वंस का विरोध किया था और उच्च न्यायालय ने बस्तियों के सर्वेक्षण करने का आदेश दिया था जो अब तक नहीं किया गया है। फिर से सर्वेक्षण के लिए एक आदेश जारी किया गया है, अब यह देखा जाना चाहिए कि चीज़ें आगे कैसे बढ़ेंगी।

यह विरोध उन लोगों के साथ आने का एक सफल आयोजन था जो ज़्यादातर अनौपचारिक कार्यों में होते हैं और दैनिक मज़दूर हैं। उन्होंने अपने एक दिन के काम और मज़दूरी का बलिदान किया, छात्र अपने स्कूलों में नहीं गए। महिलाऐं अपनी हालत के प्रति अपमानजनक महसूस कर रही थी, इन्ही में से धरने में आई एक महिला ने बहुत ख़ूबसूरती से कहा, “जब उस जगह पर पूरी गंदगी थी, कोई नहीं रहता था, गड्ढे हुआ करते थे उस समय हमने अपनी मेहनत से इस जगह को रहने लायक बनाया और आज डीडीए कहता है कि ये उनकी ज़मीन है। नहीं ये हमारी ज़मीन है, और यहां पर हम ही रहेंगे।” उनका बोला गया हर शब्द अपने आप में सत्य की एक चिंगारी थी। ज़मीन उन लोगों से होती है जो उसे अपनी मेहनत से तैयार करते हैं। यह जीत बड़े संघर्ष की ओर बलजीत नगर के लोगों की पहली जीत है, यदि पूर्ण नहीं है तो कम से कम यह उनकी नैतिक जीत तो है ही।

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