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इराक़ में शिया-सुन्नी नफ़रत और फायदे में आतंकवाद

इराक़ और सीरिया में आतंकवाद और हिंसा को अक्सर सुन्नी-शिया सांप्रदायिक नज़रिये से देखा जाता है। आतंकी गुट आईएसआईएस या दाएश के ख़िलाफ़ सफल सैन्य कार्रवाई के बाद एक बार फिर सवाल उठ रहा है कि क्या वहां इराक़ में संप्रदायों के बीच दूरी बढ़ेगी या बहुसंख्यकों के बीच अल्पसंख्यक हाशिये पर रहेंगे? इन सवालों के जवाब इराक़ के सामाजिक तानेबाने में छुपे हुए हैं।

2008 में मेरी मुलाक़ात इराक़ के एक ऐसे अफ़सर से हुई थी जो भारत में शरणार्थी के रूप में रह रहा था। उसे बग़दाद में 9 गोलियां मारी गई थीं, बावजूद इसके वो बच गया था। तब इराक़ में सुन्नी-शिया के बीच सांप्रदायिक हिंसा पर बात हुई, उनके जवाब से एहसास हुआ कि इराक़ में सुन्नी-शिया तो भारत के मुक़ाबले ज़्यादा जुड़कर रहते हैं। उन्होंने मिसाल दी कि इराक़ में ऐसे परिवार हैं जिसमें पति सुन्नी है, पत्नी शिया है जबकि उनका शिया बेटा घर में सुन्नी बहू लाया है। अगर दोनों संप्रदायों में नफ़रत होती तो दोनों बीच सड़कों पर नहीं बल्कि अपने घरो में एक दूसरे की जान ले रहे होते।

हालांकि हालात बदले हैं, 2003 में अमेरिका ने जब सद्दाम की सरकार को सत्ता से बेदख़ल किया तब इराक़ तानाशाही के बीच भी एक सेक्यूलर देश था। इराक़ में 60 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी शियों की है, 25 फ़ीसदी सुन्नी और बाक़ी ईसाई समेत अन्य समुदाय के लोग हैं। अमेरिका इराक़ से बाहर निकला तो बहुसंख्यक शियों के हाथों में सत्ता आई। 2005 के बाद 2010 में लगातार सरकार बनाने के बाद नूरी अल मलिकी के सामने सबसे बड़ी चुनौती इराक़ की एकता बनाए रखना था। लेकिन उनकी सांप्रदायिक नीतियों ने माहौल ख़राब किया। मलिकी के राज में सुन्नी हाशिये पर चले गये और इस तरह उन शहरों में अल-क़ायदा और बाद में दाएश को पनपने में मदद मिली जहां सुन्नी नागरिकों की तादाद ज़्यादा थी।

इराक के मौजूदा प्रधानमंत्री हैदर अल अबादी

तिकरित, फलुजा, रमादी, मोसुल, ये शहर अब दाएश से आज़ाद तो हो चुके हैं लेकिन मौजूदा प्रधानमंत्री हैदर अल अबादी के सामने आज फिर वही चुनौतियां हैं जो नूरी अल मलिकी के सामने थीं। नूरी अल मलिकी की सरकार में सुन्नी आबादी वाले इलाक़ों के विकास में काफ़ी अनदेखी की गई थी। रोज़गार के मौक़े ना होने और सौतेले रवैये इन दाएश की स्थापना में बड़ी भूमिका अदा की थी। मोसुल से दाएश के सफ़ाये के साथ नये इराक़ में क्या सेक्यूलर नीतियां स्थापित की जाएंगी या फिर शिया आधारित बहुसंख्यकवादी सरकार चलेगी।

इराक़ के उपराष्ट्रपति आयआद अलावी ने अप्रैल में कहा था कि एक बहुलवादी, ग़ैर-सांप्रदायिक इराक़ संभव है।  प्रधानमंत्री हैदर अल अबादी की सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि मोसुल की मुक्ति को सांप्रदायिक विजय के रूप में ना पेश किया जाए। यहां ईरान की भूमिका भी अहम होगी, कोई शक नहीं कि उसकी मदद से इराक़ के हश्द अल शाबी फोर्स ने दाएश को जड़ से ख़त्म किया है। इसे इराक़ी हिज़बुल्लाह बताकर प्रचार किया गया कि शिया फ़ौज सुन्नियों को ख़त्म कर देगी। लेकिन हैदर अल अबादी ने 2016 में इस फोर्स में 40 हज़ार सुन्नी अरब नौजवानों को भर्ती करने का आदेश दिया। आज क़रीब डेढ़ लाख सैनिकों की इस फ़ौज में लगभग 50 हज़ार लोग सुन्नी ही हैं। फ़लुजा और रमादी शहर को दाएश से आज़ाद कराने में उनकी भूमिका अहम थी। दोनों शहरों में शिया और सुन्नी एक साथ मिलकर दाएश के ख़िलाफ़ जंग लड़ रहे थे। इन शहरों में हश्द अल शाबी के सुन्नी जवानों को आगे रखा गया ताकि मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप ना लगे और सुन्नी बहुल इलाक़ों में सैन्य ऑपरेशन में स्थानीय लोगों का भी विश्वास जीता जा सके।

इराक़ में दाएश की वापसी का ख़तरा तब तक बरक़रार रहेगा जब तक सरकार दोनों संप्रदायों से समानता के साथ काम नहीं करेगी। अगर मोसुल या दूसरे शहरों से दाएश का अंत बड़ी कामयाबी लग रही हो तो उन्हें फिर सोचना होगा क्योंकि इन सभी इलाक़ों में अबु बक्र अल बग़दादी के आतंकी संगठन ने कुछ सैकड़ों लोगों के साथ पूरे शहर पर क़ब्ज़ा किया था। ज़ाहिर है आम शहरी दाएश के साथ थे क्योंकि उन्हें तब नूरी अल मलिकी सरकार से न्याय की उम्मीद ख़त्म हो गई थी।

इराक़ को एक करने के लिये आर्थिक रूप से देश को एकजुट करना होगा। तेल जो इराक़ की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है उसका बड़ा फ़ायदा शिया बहुल देश के दक्षिण हिस्से या फिर उत्तर में कुर्दों को मिलता रहा है। तेल को लेकर कुर्दों की क्षेत्रीय हुकूमत और इराक़ी सरकार के संबंध खटास भरे ही रहे हैं। पिछले कुछ सालों में कुर्द सरकार ने 50 से ज़्यादा तेल और गैस के ठेके विदेश कंपनियों को दिये हैं। ऐसे में एक मज़बूत देश होने के लिये संगठित इराक़ होना बहुत ज़रूरी है। इराक़ के सभी मुख्य शहर सामांतर विकास के गवाह नहीं बन पा रहे। उत्तरी कुर्द और दक्षिणी इराक़ में हालात बेहतर हुए हैं तो वहीं सुन्नी आबादी वाले मध्य इराक़ को मायूसी मिली है। नजफ़ और कर्बला में विदेशी निवेश हो रहा है। निजी क्षेत्र की कंपनियां फल फूल रही हैं, ज़्यादातर इलाक़ों में बिजली 24 घंटे मिलती है वहीं राजधानी बग़दाद और आसपास के शहरों में हालात चिंताजनक हैं। इसलिये मोसुल की जीत पर किसी तरह का अहंकार बड़ी ग़लती साबित हो सकता है।

इराक़ की राजनीति में भी सुन्नियों को अधिकार और बराबर का प्रतिनिधित्व देना होगा। इसी साल इराक़ में प्रांतीय स्तर पर चुनाव हैं जबकि 2018 में आम चुनाव होने हैं। हैदर अल अबादी के बाद अवसर है कि वो सुन्नी आबादी का विश्वास जीतें और इराक़ को इस्लामिक दुनिया के बीच फिर एक सेक्यूलर और बहुलवादी देश के रूप में स्थापित करें। वैसे सरकार की नीयत के अलावा इराक़ के भविष्य में बाहरी ताक़तों का दख़ल भी निर्भर करेगा।

 

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