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अक्षय को गाली देने वालों, विरोध तर्क से होता है ट्रोलिंग से नहीं

हम एक बेहद संवेदनशील देश हैं। बहुत भावुक, देशभक्त और जुनूनी भी। लेकिन जब ये भावनात्मकता लक्ष्मण रेखा पार कर लेती है तो असहिष्णुता भी कही जाती है। ऐसा नहीं है कि हम किसी पुराने वाकये की बात कर रहे हैं। हम रोज़ ऐसे उदाहरण छोड़ रहे हैं जो हमें एक देश के रूप में निरंतर आत्ममंथन करने पर मजबूर करते हैं।

मामला महिला विश्व कप फाइनल का है। अक्षय कुमार, जो निरंतर राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी बात रखते हैं, यहां भी उत्साहवर्धन करने पहुंच गए। लेकिन तिरंगे को गलत तरीके से पकड़कर गलती से एक फोटो ट्विटर पर अपलोड कर दी। फिर क्या था, ऐसे ही मौके तो तलाशते हैं हम लोग। सभी लग गए देशभक्ति का पाठ पढ़ाने। वे लोग जो खुद तिरंगे का इतिहास नहीं जानते समझदार दिखने के चक्कर में गाली दिए चले जा रहे थे।

हालांकि उन्होंने बाद में माफी भी मांग ली, लेकिन तब तक हम अपनी औकात दिखा चुके थे। आखिर इन्हीं गाली देने वाले युवाओं को तब गुस्सा क्यों नहीं आता जब देश की ग्रोथ रेट में असंगठित सेक्टर को शामिल नहीं किया जाता और आंकड़ों से खिलवाड़ किया जाता है। जब हर क्षेत्र में नेपोटिज़्म की जड़ें गहरी होती जाती हैं और योग्यता के बावजूद निराशा हाथ लगती है। जब शिक्षा के नाम पर इन्हे प्राइवेट सेक्टर की तरफ मोड़ दिया जाता है और नौकरी कि नाम पर सिर्फ ठेंगा मिलता है।

ऐसा मालूम होता है कि सोशल मीडिया ही इस देश की सरकारों के लिए सेफ्टी वाल्व का काम कर रहा है। उसे इस देश के युवा का मूड, उसकी पसंद-नापसंद और गुस्से की अधिकतम सीमा का अंदाज़ा यहीं से हो जाता है। फिर उसी के हिसाब से इस गुस्से का निष्कासन करने के लिए कोई ना कोई मुद्दा दे दिया जाता है। जिस दिन देश को ज़्यादा गुस्सा आएगा उस दिन कुछ नहीं होगा, बस सब लोग 5 ट्वीट ज़्यादा करेंगे या किसी फेसबुक पोस्ट में 2 गालियां ज़्यादा लिख देंगे। लेकिन इस अंधेपन के दौर में ज़रूरी है कि इस वाल्व का कंट्रोल हमारे हाथ में रहे और खुद को जज करने का कोई मौका ना दिया जाए।

देश कि सामने अनंत समस्याएं हैं। लेकिन हम किन समस्याओं को सम्बोधित करते हैं, इसका चुनाव भी हम खुद नहीं कर पाते। किसी टीवी चैनल के दिए गए हैशटैग पर ट्वीट करते वक़्त एक बार यह भी नहीं सोचते कि इस मुद्दे पर हम क्या सोचते हैं। हम सिर्फ और सिर्फ एक ही काम करते हैं, अगर सहमत हुए तो पक्ष में गाली देंगे और खिलाफ हुए तो विपक्ष में। हमें बोलने की आज़ादी कितनी है हमारी बात कहां तक सुनी जाती है, इसका अंदाज़ा हमें सोनू निगम प्रकरण से हो जाना चाहिए था। उन्होंने कोई खुश होकर अपना ट्विटर अकाउंट डिलीट नहीं किया था।

स्वयं को बुद्धिजीवी दिखाने की हमारी तत्परता और तर्क ना कर पाने की कमी ही उनके द्वारा उठाए गए इस कदम के लिए ज़िम्मेदार भी है।

अक्षय कुमार उसी कड़ी के अगले किरदार मात्र हैं और निश्चिन्त रहिये भविष्य में और भी इसी तरह के लोगों को निशाना बनाया जाएगा।दरअसल मुद्दा तिरंगे कि अपमान का था ही नहीं। लोग कब इस भीड़ को किस और मोड़ देते हैं पता भी नहीं चलता।

तिरंगे के सम्मान में सोशल मीडिया पर जान देने को तैयार वे शूरवीर उस वक़्त कहां थे, जब एक ऑनलाइन रिटेल कंपनी तिरंगा छपा डोरमैट बेच रही थी और सब खरीद भी रहे थे। लेकिन जब एक केंद्रीय मंत्री ने मामले को कैश करने के लिए इस बात को उठाया तो सबकी देशभक्ति जाग गई। राष्ट्रभक्ति शब्द आते ही ऐसा क्या अंधेरा छा जाता है हमारी आंखों पर कि हम प्रश्न करना भूल जाते हैं। राष्ट्रगान को सिनेमा घरों में जब अनिवार्य किया गया तब क्या उस वक़्त क्या किसी ने फेसबुक पोस्ट किया या एक ट्वीट किया ये पूछते हुए कि राष्ट्रगान छत के नीचे गाना भी राष्ट्रगान का अपमान है?

हमें एक दूसरे से जोड़ने के लिए बनाया गया यह जाल इतना सघन हो गया है कि अब हम इसमें फंसी मकड़ी लगने लगे हैं। जिससे निकलना बेहद ज़रूरी है। यह माध्यम कुत्ते के मुंह में उस हड्डी की तरह है जिससे वह केवल खुद का ही खून चूसता जा रहा है बिना उसे पता हुए। यही वक़्त है हम समझ लें कि संवाद गाली से नहीं तर्क से हो सकता है।

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