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150 साल पहले की दुनिया में ले जाएगा ये ट्रेन आपको

अगर आप कोलकाता की ट्राम के इतिहास से रूबरू होना चाहते हैं, तो ट्राम म्यूज़ियम आपके लिए सबसे मुफीद जगह हो सकती है। मध्य कोलकाता के धर्मतल्ला में स्थित इस ट्राम म्यूज़ियम के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे, लेकिन अगर एक बार इसका दीदार कर लें, तो आपको ट्राम के बारे में बहुत रोचक जानकारियां मिलेंगी।

वर्ष 1938 में बनी एक ट्राम जो काफी जर्जर हो चुकी थी, उसी ट्राम को अत्याधुनिक रूप देकर उसे म्यूज़ियम में तब्दील कर दिया गया है। इसमें ट्राम से जुड़ी कमोबेश हर तरह की जानकारी उपलब्ध है। कहा जा सकता है कि एक ट्राम अपने भीतर 150 वर्षों के इतिहास को समेटे हुए है।

ट्राम म्यूज़ियम में लगने वाला टिकट

19 सितम्बर 2014 को अस्तित्व में आये इस म्यूज़ियम में दो डिब्बे हैं। पहले डिब्बे को कैफेटेरिया बनाया गया है जहाँ आप कॉफी या कोल्ड ड्रिंक्स के साथ ट्राम पर चर्चा कर सकते हैं। कैफेटेरिया से सटे दूसरे डिब्बे में ट्राम के डेढ़ शतक का इतिहास दर्ज है जिसमें ट्राम के स्वर्णिम काल और फिर विकास की आंधी में अस्तित्व के लिए जद्दोजहद की इबारत दर्ज है।

इस म्यूज़ियम में सौ वर्ष से पुरानी टिकटें, ट्राम कर्मचारियों के बैज, वैगन ट्राम के मॉडल, घोड़े से खींची जाने वाली ट्राम के मॉडल समेत कई चीजें हैं जिन्हें देखकर आपको हैरत होगी। मिसाल के तौर पर क्वाइन एक्सचेंजर मशीन को ही ले लीजिए। इस मशीन में 6 चेम्बर होते थे। एक चेम्बर में 1 पैसा, दूसरे चेम्बर में 2 पैसे, तीसरे चेम्बर में 5 पैसे, चौथे चेम्बर में 10 पैसे, पाँचवे चेम्बर में 25 पैसे और छठवें चेम्बर में 50 पैसे के क्वाइन रखे जाते थे। टिकट लेनेवाले को बैलेंस देने के लिए कंडक्टर जिस चेम्बर के नॉब को दबाता, पैसा खुद-ब-खुद बाहर निकल आता। इस मशीन का इस्तेमाल 50 के दशक तक किया गया था। बाद में चमड़े के बैग ने इसकी जगह ले ली।

म्यूज़ियम में 150 वर्ष पहले इस्तेमाल किये जाने वाले काना पैसे, एक आना, दो आना समेत 25 सिक्के देखे जा सकते हैं। म्यूज़ियम में रखे गये टिकटों से पता चलता है कि आज़ादी से पहले 4 आने में लोग ट्राम में सफर किया करते थे।

यही नहीं, ट्राम के कंडक्टर और ड्राइवर जो टोपियाँ पहना करते थे, प्वाइंट्समैन और कंडक्टर को दिया जाने वाला पहचान पत्र, विभिन्न कर्मचारियों द्वारा पहने जाने वाले बैज आदि को भी म्यूज़ियम में जगह मिली है। यहाँ तक कि दिवाकर बनर्जी की फिल्म डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी में इस्तेमाल किये गए वातानुकूलित ट्राम का मॉडल भी यहाँ मौजूद है। इन सबके अलावा भी बहुत कुछ है, जो इतिहास अनुरागियों को एक अलग तजुर्बा देगा।

फिल्म ब्योमकेश बक्शी में इस्तेमाल किये गए ट्राम का मॉडल

इस ट्राम म्यूज़ियम की नीव वर्ष 2013 में डाली गयी थी। इसके लिए शोधकर्ताओं की एक टीम तैयार की गयी थी। टीम ने गहन शोध किया और वर्ष 2014 के सितम्बर महीने में म्यूज़ियम का सपना साकार हुआ। इसे बनाने के पीछे उद्देश्य था ट्राम के इतिहास को संजोना।

कलकत्ता ट्रामवेज कंपनी लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर नीलांजन शांडिल्य ने म्यूज़ियम की परिकल्पना कर उसे मूर्त रूप दिया है। उनका मानना है कि हम सबको इतिहास जानना चाहिए और इसलिए ट्राम म्यूज़ियम की परिकल्पना की गयी थी। विश्व के लगभग 300 शहरों में ट्राम चल रही है, लेकिन कोलकाता भारत का एकमात्र शहर है जहाँ अभी भी ट्राम की टुनटुन सुनी जाती है।

म्यूज़ियम बनाना तो आसान था, लेकिन संग्रह किये जाने वाले सामान इकट्ठा करना बेहद मुश्किल था, क्योंकि ट्राम कंपनी के पास भी बहुत सारी चीज़ें नहीं थीं। नीलांजन शांडिल्य बताते हैं, ट्राम कंपनी के विभिन्न विभागों से कुछ संग्रहनीय सामग्रियां मिलीं तो ट्राम में काम करने वाले कुछ कर्मचारियों ने ट्राम से जुड़ी चीज़ें मुहैया करवायीं। ट्राम से भावनात्मक लगाव रखने वाले महानगर के कुछ वरिष्ठ लोग भी आगे आएं और उनके पास ट्राम से जुड़े जो सामान थे, उन्होंने दिया और इस तरह म्यूज़ियम जीवंत हो उठा।

ट्राम के साथ बांग्ला साहित्य के संपर्क को भी म्यूज़ियम में दिखाया गया है जो इसका विशेष आकर्षण है। रबीन्द्रनाथ टैगोर, शरदिन्दु बंद्योपाध्याय, विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय अन्य लेखकों की रचनाओं में ट्राम के बारे में जो लिखा गया है उन्हें म्यूज़ियम में जगह दी गयी है। इसके साथ ही कोलकाता के विभिन्न लैंडमार्क्स की आधा दर्जन से अधिक तस्वीरें हैं, जिन्हें आज़ादी से पहले कैमरों में कैद किया गया था। कहा जा सकता है कि इस म्यूज़ियम में ट्राम ही नहीं कोलकाता की भी तारीख दर्ज है।

बांग्ला साहित्य में ट्राम का ज़िक्र

यहां यह भी बताते चलें कि हिन्दी के मुर्धन्य कवि बाबा नागार्जुन ने भी कोलकाता की ट्राम का ज़िक्र अपनी कविता में किया है। उन्होंने एक कविता लिखी थी, ”घिन तो नहीं आती है?” कविता यूँ है-

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पे दचका
सटता है बदन से बदन पसीने से लथपथ
छूती है निगाहों को
कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच-सच बतलाअो
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कुढ़ता है?
कूली-मजदूर हैं
बोझा ढोते हैं खींचते हैं ठेला
धूल-धुआं भाप से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ-तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अंदर पिछले डिब्बे में
बैठ गये हैं इधर-उधर तुमसे सटकर
आपस में इनकी बतकही
सच-सच बतलाओ
नागवार तो नहीं लगती है?
जी तो नहीं कुढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?
दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना था पंखे के नीचे, अगले डिब्बे में
ये तो बस इसी तरह
लगायेंगे ठहाके, फांकेंगे सुरती
भरी मुंह बातें करेंगे अपने देस-कोस की
सच-सच बताओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत?
जी तो नहीं कुढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?

म्यूज़ियम में इस कविता को जगह नहीं मिली है। शायद शोध करने वाली टीम को पता ही न चला हो कि हिन्दी के किसी कवि ने ट्राम पर भी कुछ लिखा है।

बहरहाल, ट्राम म्यूज़ियम जब शुरू हुआ था, तब बहुत कम लोग आते थे लेकिन अब इनकी संख्या में इज़ाफा हुआ है। पूरी तरह वातानुकूल (एसी) इस ट्राम म्यूज़ियम का टिकट महज़ 5 रुपये है और दोपहर 1 बजे से रात 8 बजे तक यह खुला रहता है।

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