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ये खज़ाने वाला कुंआ है, इसके बर्बाद होने पर उजड़ जाएंगे ये घर

इश्तियाक अहमद:

लगभग दो बरस पहले की बात है। हमारे साथी रवि चेल्लम और आशीष कोठारी केड़िया (बिहार के जमुई ज़िले का  गांव) आए थे और उन्होंने इच्छा ज़ाहिर की थी कि वे कुछ किसानों से बतियाना चाहते हैं। किसानों से मिलना है मतलब रात में ही खुलकर बात हो सकती थी। हालाँकि तब सर्दी उतार पर थी पर उस रात बहुत ज़्यादा ठंढ थी। शाम 5.30 बजे ही गहरा अंधेरा उतर चुका था। किसान एक-दो करके जुटने लगे थे।

सूती की धोती और सफ़ेद मटियाली गंजी के ऊपर मोटे ऊन का दुशाला ओढ़े कोई 70-72 साल के जानकी दा कुछ किसानों के साथ हँसते-बतियाते कमरे में दाख़िल हुए तो कमरे का माहौल अचानक ही ख़ुशनुमा हो चला।

ठिठुरे-सिकुड़े दूसरे लोग भी मानो फरहर होने लग गए। कुछ देर बाद औपचारिक बातचीत शुरू हुई। रवि तमिल भाषी हैं पर जोड़-तोड़ कर हिंदी बोल लेते हैं। थोड़ी देर की बात चीत के बाद वे बेहिचक संवाद कर रहे थे। आशीष के पास भी जानने समझने को काफ़ी कुछ था सो वे भी नए-नए सवालों के साथ किसानों से मुख़ातिब हो रहे थे। तभी किसी बात पर बचत और बैंक खातों का ज़िक्र आया।

अबतक गठीली देह और बुलंद आवाज़ वाले जानकी दा ख़ामोश से ही थे पर अब मानो उनके मन की बात हुई थी। लपककर खड़े हुए एक हाथ में लाठी और दूसरे से अपना दुशाला संभालते हुए कहने लगे – ‘हमरा बैंक त हमर कुंइये में है, हम त अपना कुल पूँजी ओहि में रखते हैं। अ आजतक हमको कोई धोखा नहीं हुआ है।’ (मेरा बैंक तो मेरे कुएं में है, मैं अपना सारा धन उसी में रखता हूं  और मुझे आजतक कोई दिक्कत नहीं हुई)

ठहाकों और चुहलबाज़ी चालू हो गई। बाक़ी लोग उन्हें छेड़ने लगे। पर जानकी दा को देखकर क़तई नहीं लग रहा था कि वे कोई अगंभीर बात कर रहे हैं। ख़ैर बात आई-गई हो गई। हमसब कई दिनों तक उन्हें चिढ़ाते रहे कि जानकी दा कोई दिन आपका कुइयां में से आपका सब धन चुरा लेंगे। वे बस हँसते हुए कहते कि ना चुरा पाइयेगा केतनो जतन कर लिजिए।

अभी परसों ही केड़िया से लौटे हैं। एकदिन पहले जानकी दा से मिलने गए तो उनकी मलकिनी ने बताया कि ‘खेते पर हैं, रोपा कर रहे हैं।’
‘अऊर तू नै गैलहों रोपा में?’ संतोष ने छेड़ते हुए पूछा। ‘रे, हमरा बुढ़ारी के मजाक उड़ाता है? हमरा उमिर में तोहनीअन से उठो-बईठ नहीं होगा।’ (मेरे बुढ़ापे का मज़ाक उड़ाते हो तुमलोग? मेरे उम्र में तुमलोगों से उठा-बैठा भी नहीं जाएगा।)

शाम काफ़ी हो चुकी थी और थोड़ी देर बाद ही ‘मिटिन’ शुरू होनी थी सो हमलोग खेत की तरफ़ निकल लिए। दूर से ही जानकी दा मोरी कबाड़ते दिखाई दे गए। घर की औरतें अगले खेत में रोपनी कर रही थीं। हमलोगों को देखकर जानकी दा वहीं से हाथ हिलाने लगे। आज के दौर में कोई ऐसे ख़ुलूस से मिले तो मन पसीज सा जाता है। हम और क़रीब गए तो जानकी दा ने आवाज़ देकर कुएँ के पास ही रुक जाने को कहा और हमारी ओर लपक कर आने लगे। मिट्टी में सनी देह पर वही सूती धोती ओर मटियाही गंजी।

हम वहीं बैठ गए। जानकी दा की आँखें कमज़ोर पड़ने लगी हैं। उनके रस्ते में रेंग रहे ‘रस्सी’ (अंधेरा हो जाने के बाद साँप को रस्सी ही कहा जाता है) को वे देख नहीं पाए। संतोष ने उन्हें आगाह किया तो बोले, ‘कुछौ नै करतौ, डोरवा है।’

खेत में भरे पानी से हाथ-पैर धोकर हमारे पास आ बैठे। ‘बाकी सब के खेतो नै तैयार होलौ है और तों रोपा चालू कS देलहौं’ (बाकियों ने अभी खेत भी नहीं तैयार किया है और आपने रोपाई भी कर दी) संतोष ने पूछा।

अपने लाबालब भरे कुएं की तरफ़ इशारा कर के बोले – ‘सब इनकरे किरपा है। जबले ई जीवित रहियें हमनी गरिब्बन के रोजी-रोटी चली'(सब इनकी कृपा है, जबतक ये जीवित हैं हम गरीबों की रोज़ी-रोटी चलती रहेगी)।

‘काहे नहीं एगो तलब्बो खंदवा लेते हैं, पानी कभी नहीं कमेगा।'(एक तालाब क्यों नहीं खुदवा लेते हैं पानी की कमी कभी नहीं होगी)
जानकी दा सोचते रहे फिर बोले ‘तलाब-उलाब नहीं, हमरा त ए गो अउर कुइयां के जोगाड़ हो जाए तो हमर तीन परिवार का काम चल जाई। का समझे, हमनी के तनिये सुन त जमीन है और तीन गो परिवार चलाना है। तलाब में जमीन कहाँ फसाएंगे।'(तालाब वालाब नहीं, अगर एक और कुआं खुदवा लिया जाए उसी में हमारा काम चल जाएगा, थोड़ी सी तो ज़मीन है और उसमें तीन परिवार चलाना है, ऐसे में तालाब में कैसे ज़मीन लगा सकते हैं।)

पहाड़ी ज़मीन है, तलाब-पोखर नहीं रहेगा तो कुआं रिचार्ज कैसे होगा? हमारे मन के इस सवाल को मानो उन्होंने पढ़ लिया था, बोले – ‘हम अपना खेत सब ऐसे हीं तैयार किए हैं कि ए गो बड़ा डबरा बन जा है, पानी दौड़त-भागत एहि में जम जा है।’ (हमने अपना पूरा खेत ऐसे तैयार किया है जिससे एक ढलान बन गया है और, पानी इसी कुएं में आकर जमा हो जाता है।)

कुएं के पास बैठे जानकी दा

जमुई के अर्द्ध-शुष्क पहाड़ी इलाके में नाकाम सावन में भी जो किसान धान रोपने का माद्दा रखता हो उससे बहस करने की धृष्टता नासमझी नहीं तो क्या होती। और जिस कुएं की बदौलत तीन परिवारों को रोज़गार मिलता हो उससे बड़ा खज़ाना और क्या हो सकता है।

हमलोगों की मुख़्तसर सी बात कुछ यूँ तमाम हुई – ‘कुआं उजड़लै खेती बिसरलै, अब तोहनी सब इहे उपाय कर कि गाँव में बोरिंग न होबे। बोरिंग हो जाइत तो सब्भे बर्बादी हो जईहे।’ (एकबार कुआं उजड़ जाए तो खेती भी बर्बाद हो जाएगी, तुम लोग बस ये उपाय करो कि गांव में बोरिंग ना लगे)

और अक्षर के मालिक बने हमारी ढिठाई यह है कि ख़ुद को ज्ञानी कहते फिरते हैं।

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