“First they ignore you, then they laugh at you, then they fight you, then you win.”
मैं नहीं जानता कि ये बात किसने कही और क्या सोचकर कही, लेकिन उस विचारक को पूर्ण सम्मान के साथ धन्यवाद कहना चाहूंगा। क्योंकि उसने हमारे समय की एक गंभीर समस्या को कितना पहले जान लिया था। आज सोशल मीडिया में कोई भी बात किसी के नाम से भी चिपकाई जा रही है, इसीलिए ऐसे दौर में ये वेरीफाई करना टेढ़ी खीर है। खैर, अगर आज के दौर में इन लाइनों पर कोई खरा उतरता दिखाई देता है तो वो है कन्हैया कुमार। जी सही समझे आप, जेएनयू वाला कन्हैया।
अपनी बौद्धिक, तार्किक और वैचारिक क्षमताओं के कारण कन्हैया ने यह स्थान हासिल किया है। हमारे नेताओं की बुद्धिमत्ता का स्तर समय- समय पर उनके द्वारा दिए गए वक्तव्यों आदि से पता कर सकते हैं। सबसे ताज़ा उदाहरण राजीव शुक्ला का है, जब उन्होंने महिला क्रिकेट टीम को विश्व कप फाइनल की बजाय चैंपियंस ट्रॉफी के फाइनल में पहुंचने की बधाई दी। जो व्यक्ति राजनीति, क्रिकेट और ना जाने क्या-क्या संस्थाओं में चीफ बने बैठे हैं, उन्हें इस बात का भी अंदाज़ा नहीं कि वे क्या कह-लिख रहे हैं। लेकिन इसके ज़िम्मेदार भी हम ही हैं। उनका सब कुछ हमें मंज़ूर होता गया। जो नेताओं ने कहा हमने कभी उस पर सवाल नहीं उठाया।
एक ही इंसान राजनीति भी कर रहा है, टीवी चैनल का मालिक भी है, किसी क्रिकेट बोर्ड का चीफ भी है। क्यों? क्योंकि किसी राजनीतिक घराने से उसके अच्छे संबंध हैं। कन्हैया कुमार जैसे लोग ही इस समीकरण को बिगाड़ने का काम करेंगे। यह बात भी उतनी ही सही है कि वह नेताओं की अगली कड़ी मात्र हो सकते हैं और संभव है कि उन्ही जैसे कृत्यों में लिप्त भी हो जाएं। लेकिन क्या यह अच्छा नहीं कि किसी नेता के मूर्ख पुत्र/पुत्री की बजाय हम उस छात्र नेता को हमारा प्रतिनिधि बनाएं जिसने अपने बूते एक पूरा आंदोलन खड़ा कर दिया हो।
राजनीति में केकड़े की तरह चिपके पड़े हमारे बुढऊ शूरवीरों को इस बात भी समझ भी नहीं कि अब उनका दौर खत्म होने को आया है और नई पीढ़ी के हाथ मे यह बैटन थमा देना चाहिए। लेकिन समाज को आगे बढ़ाने का ठेका लिए बैठे यही लोग नेपोटिज़्म के सबसे बड़े शिकार हैं।राजनीति में धृतराष्ट्र हुए इन लोगों को अपने दुर्योधनों से आगे कुछ दिखाई नहीं देता। नारीवाद की बात करने वाले लोग तक अपनी बेटियों को राजनीति में जगह नहीं देते। उनके लिए कोई अच्छा सा बिज़नेसमैन खोजकर ही बाप का फ़र्ज़ अदा कर देते हैं बस।
खैर, जेपी आंदोलन में ‘सिंघासन खाली करो कि जनता आती है’ बोलकर कुर्सी पर चढ़े नेता बस खुद को ही इस काबिल मानते हैं कि केवल वे ही जनता की आवाज़ हो सकते हैं और उनसे अच्छा प्रतिनिधि जनता को मिल नहीं सकता। नेहरू के ज़माने से राजनीति में चौकड़ी मारकर बैठे लोग और उनके वंशज जिन्हें किसी तरह राज्यसभा पर थोपकर राजनीति में ज़िंदा रखा गया है, सिर्फ वे ही कन्हैया जैसे लोगों के ऊपर उठने से भयभीत हैं। चाटुकारिता की राजनीति करने वाले वे लोग जो जी हुजूरी से आगे कुछ नहीं सोचते बस उन्हें इस दौर से भय लग रहा है।आंदोलनकारी तेवर उन्हें डराएंगे ही, क्योंकि जिग्नेश, चंद्रशेखर, कन्हैया और इनकी श्रेणी के दसियों लीडर वो जगह लेने के लिए तैयार बैठे हैं जिन्हें कुछ लोगों ने अपने अब्बा की जागीर समझ लिया था।
छात्र राजनीति में भी अगर एक निगाह डाली जाए तो केवल बड़े नेताओं या व्यापारी घरों के लोग ही टिकट का जुगाड़ कर पाते हैं। जेएनयू आपको मौका देता है खुद को प्रस्तुत करने का, शायद इसी कारण कन्हैया को हम इस स्तर पर देख रहे हैं। इस बात पर किसी को शंका नहीं होनी चाहिए कि अगर जेएनयू जैसा संस्थान ना होता तो शायद कन्हैया कुमार का देश के किसी अन्य विश्वविद्यालय में एक पोस्टर चिपकाने वाले कार्यकर्ता से आगे बढ़ पाना संभव ही नहीं हो पाता। भले ही वैचारिक स्तर कुछ भी रहा हो।
अन्य विश्वविद्यालयों के विचारधारा रहित छात्र नेता कितने खोखले हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जेएनयू की घटना के बाद कोई भी कन्हैया कुमार का समर्थन करने को तैयार नहीं था। क्या ऐसा होता है छात्र जीवन? साफ-साफ समझ मे आता था कि वे लोग कहां से संचालित हैं। उन्हें बस पैसों के दम पर भीड़ जुटाना आता है और कन्हैया को अपने विचारों के बल पर। उसकी संगठनात्मक शैली के कारण लोग खुद ब खुद खिंचे चले आते हैं। शक्ति का केंद्रीकरण तोड़ा जाना आवश्यक है, तोड़ना ही होगा और कन्हैया जैसे लोग उसी काम को आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन इतनी नकारात्मकता भर दी गयी है लोगों के ज़ेहन में कि उन्हें कन्हैया का नाम सुनते ही देशद्रोही के आगे कुछ सूझता ही नहीं।
लेकिन इस कोहरे का छंटना बेहद ज़रूरी है जो देशद्रोह की बौछारों के कारण मुल्क के ठंडे पड़े माहौल के बीच कहीं से अपने आप आ गया है। इसे विचारों की गर्मी ही हटा सकती है जो एयर कंडीशनर की हवा में बैठे लोगों के पास नहीं है, कन्हैया कुमार के पास है और शायद इसीलिए हमें मंत्री नहीं, नेता चाहिए।
जैसा कि पाश ने कहा है, ‘मैं घास हूं, मैं तुम्हारे हर किए धरे पर उग आऊंगा।’ कन्हैया कुमार वही घास है जो नेताओं की वर्षों की निष्क्रियता पर उग आया है और अब इसे खोदने का जितना प्रयास किया गया यह उतना ही घना होता चला जाएगा।