नर्मदा नदी पर बांध बनने से विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए सालों से संघर्ष करती मेधा पाटकर और उनके साथी अभी आमरण अनशन से उठे नहीं थे, क्योंकि सरकार ने उनसे बात करने की ज़रूरत ही नहीं समझती। उसके पास उनकी आवाज़ सुनने के बजाय उसे दबाने का तंत्र और अनैतिक साहस अधिक है। लोकतांत्रिक देश में प्रतिरोध का यही मार्ग तो हमारे स्वतंत्रता सेनानी सुझा गये थे लेकिन अब ये सभी तरीके कारगर साबित होते हुए मुझे दिखाई नही दें रहे या शायद मुझमे उतना धैर्य ही नहीं है।
अब उत्तराखंड के महाकाली नदी(जिसे शारदा नदी के नाम से भी जाना जाता है) पर पंचेश्वर बांध बनाने का निर्णय केंद्र सरकार ने ले लिया है। उसके बाद उसको जस्टिफाई करने के लिए तमाम कुतर्क भी दिए जाने लगे हैं। मसलन यह इतना बड़ा बांध होगा, इतने लोगों को रोज़गार देगा, इतने हज़ार मेगावाट बिजली तैयार होगी, ‘विकास’ की नई बयार आएगी आदि आदि। हैरानी की बात ये है कि इतने फायदे होने का सब्ज़बाग दिखाए जाने के बावजूद भी वहां की जनता इस बांध का विरोध कर रही है। क्यों? क्या वे इतने नासमझ हैं कि उन्हें ये फायदे नज़र ही नहीं आ रहे है जो सरकार गिनाने की कोशिश कर रही है ? या बात कुछ और है ?
हम सभी जानते हैं कि हिमालय क्षेत्र पारिस्थितिकीय(इकोलॉजी) दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है। ये तथ्य है कि वहां प्रकृति से छेड़छाड़ के भयानक परिणाम हो सकते हैं और ऐसा नहीं है कि ये महज़ अनुमान है। ऐसा परिणाम हमने देखा भी है, याद करिए कुछ साल पहले ही बादल फटने की घटना ने हज़ारो लोगों, जीवों, को किस तरह समाप्त कर दिया था। बादल फटने की घटना हिमालय क्षेत्र के लिए कोई नई बात नहीं थी किन्तु ‘विकास’ के नाम पर बड़े बड़े निर्माण कार्यों के लिए पहाड़ों को वृक्षों से विहीन करते जाना, भारी तबाही लेकर आया। क्योंकि तीव्र गति से बहते पानी को रोकने का कोई आधार ही नहीं था।
अब वहां बांध का निर्माण कर एक ही जगह पर ढेर सारे जल को बांध के रखने से ज़मीन पर दबाव पड़ेगा जिससे उस क्षेत्र में भूकंप आने की सम्भावना बढ़ जायेगी। जबकि वह क्षेत्र पहले से ही सिस्मिक जोन चार में आता है।
इन सारे जोखिमो को उठाये जाने के पीछे तर्क यह है की इस से लगभग 5000 मेगावाट बिजली पैदा होगी। किंतु क्या सच में वहां रहने वाले लोगों को इतनी बिजली की आवश्यकता है? या यह बिजली उतराखंड से बाहर कहीं और जाएगी, किसी अन्य के विलासी जीवन को तृप्त करने के लिए| सवाल यह है कि जिन पर्यावरणीय संसाधनों का दोहन करके उसके लाभ कहीं और पहुचाये जा रहे हैं, तो उससे उत्पन्न हानियों का बोझ केवल वहां के निवासियों के कन्धों पर ही क्यों पड़े वो भी अपना रोजगार, घर, संस्कृति और जीवन गवांकर।
ध्यान रहे की इस परियोजना से लगभग 134 गाँवों के डूब जाने की सम्भावना है और उसमे निवासित लगभग 50000(लगभग 30 हज़ार भारत में और 20 से 22 हज़ार नेपाल में) लोगों के विस्थापित हो जाने की। पर्यावरणीय हानियों और लाभों का न्याय पूर्ण बंटवारा कब होना शुरू होगा। चलिए एक बार को मान भी लें कि यह बांध विशुद्ध रूप से ‘विकास’ की लहर ले कर आएगा पर ‘विकास’ की जिस परिभाषा को सर्वस्वीकृत कराने पर सरकारें मजबूर कर रही हैं वह कहां तक न्यायपूर्ण है ? जिस तरह अंग्रेज़ हम पर ‘सभ्य’ होने की परिभाषा लाद रहे थे उसी तरह सरकारें लोगों पर ‘विकास’ की अपनी परिभाषा थोप रही है। ऐसी परिभाषा जो सभी नदियों, पर्वतो, पशु-पक्षियों को उजाड़ कर मिलेगी। और विकसित होने में भी हाईरारकी होगी जो सबसे ज्यादा उजड़ेगा वो सबसे कम विकसित दिखाई देगा। जनता को रोज़गार और पर्यावरण में से कोई एक ही चुनने को मजबूर क्यों किया जा रहा है ?
सरकारें मुअावज़ा देने की बात कर क्षतिपूर्ति करने का वादा करती हैं, जो कितना होता वो जानने के लिए हम इतिहास देख सकते है ? पर उन जीवों का क्या जिनके छतिपूर्ति की कोई बात ही नही उठती। पूरे पारिस्थिकी को बदलने की कोशिश करने से जितने जीव नष्ट हो जाते हैं, उनका आवास नष्ट हो जाता है ? पूरी की पूरी प्रजाती नष्ट होती जा रही है, उसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी? क्या इसको कैलकुलेट करने का कोई माध्यम और मंशा है सरकारों के पास ? क्या धरती के संसाधनों पर केवल और केवल मनुष्य का अधिकार है ? क्या पर्यावरणीय संसाधनों का न्यायपूर्ण बंटवारा मनुष्य एवं गैर मनुष्य जीवो के मध्य नहीं किया जाना चाहिए ?
इस पीढ़ी के साथ क्या उन आने वाली पीढ़ियों के अधिकारों का भी हनन नहीं हो रहा है जिनके दुनिया में आने से पहले ही हम कई नदियों को सुखा चुके होंगे ? जिनके बारे में वे केवल पुस्तकों में पढ़ा करेंगे ? या कुछ पर्यावरणीय छेड़-छाड़ का खामियाज़ा आने वाली पीढ़ियों को तब भुगतना पड़ेगा जबकि इसको नष्ट करने में वो ज़रा भी जिम्मेदार नही होंगे ?
पंचेश्वर बांध का विरोध तो वहां की जनता कर ही रही है किन्तु सभी भारतवासियों को भी अपने नैतिक कर्तृत्व को पूरा करना चाहिए। क्योंकि हिमालय क्षेत्र की पारिस्थितिकी के नष्ट होने से सिर्फ उत्तराखंड ही नष्ट नहीं होगा।
फोटो आभार- पंचेश्वर प्रॉजेक्ट, नेपाल सरकार वेबसाइट
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