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खुद से अलग साया !

आज के इस बदलते हुए दौर में हमने रहन-सहन, अपने पहनावे के साथ-साथ अपनी सोच और अपने साये को भी छोड़ दिया है । हम आज के समय में बस भेड़ चाल चलते हुए रह गए है । हम खुद को संभाल नहीं पाते और बात करते है दूसरो को सुधारने की, हम खुदकी नज़रो में महान नहीं और अपने वतन को महान बनाने की बात करते है । तो आज खुद से शुरुआत करते हुए अपने साये को ढूंढने की कोशिश करती हूं :-

 

अकेली अँधेरी राहो में,

सनसनाती हवाओ में,

अपनी ही निगाहों में,

ढूंढती हु फिज़ाओ में

खुद से अलग हुए साए को दवाओं में ।

पतझड़ के उन पत्तो पे,

बच्चो के उन बस्तो पे,

अँधेरे उन रास्तो पे,

सरकारी उन दस्तो पे,

खड़े हो कर देहलीज़ पर ज़माने की,

ढूंढती हु खुद से अलग हुई अपनी परछाई को ।

भाई को भाई ने लूट लिया ,

पारा ये देख कर छूट गया,

कांच का दिल वो टूट गया,

बीज भी अब वो फूट गया,

देखती हूं ज़माने की बदलती इस तस्वीर को,

मौन हो कर आवाज़ देती हूं अपनी उस पेहचान को ।

आज फिर इस आस से,

ढूंढ रही हूँ खुद की खोई हुई परछाई को,

अपने खोए हुए वजूद को,

इन समंदर की लहरों में,

शायद वक़्त फिर मुक्कम्मल हो जाए मुझ पर,

और मिल जाए मुझे खुद से अलग हुआ साया ।

 

तो खुद वो बदलाव बनाइए जो आप सभी में देखना चाहते है नहीं तो इस दुनिया की गति बहुत तीव्र है जो आपको बदल देगी ।

“कल की शुरुआत आज से,

दूसरो की शुरुआत खुद से ।”

 

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