सौन्दर्येच्छा* मानवीय स्वभाव है परन्तु, सुन्दरता की सबसे अधिक मांग स्त्री देह के सन्दर्भ में की जाती रही है। अब तक की कलाएं एवं साहित्य स्त्री सुन्दरता के आख्यान* पर ही टिकी हुई हैं। (स्त्री पुरुष : कुछ पुनर्विचार, राजकिशोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली। पेज- 84)
आज विज्ञापन का बहुत बड़ा बाज़ार है। कोई भी उत्पाद हो उसे बेचने के लिए विज्ञापनों का सहारा लिया जाता है। आज चाहे विज्ञापन टूथपेस्ट का हो या कॉस्मेटिक या फिर कोई डिब्बाबंद सामग्री का, अधिकतर विज्ञापनों में सुन्दर स्त्रियों को दिखाया जाता है। दुर्गंध को मिटाने वाले उत्पादों में तो स्त्री को अर्धनग्न और बहुत ही कामुक अंदाज में पेश किया जाता है ताकि कोई पुरुष देखकर उस उत्पाद को झट से खरीद ले।
अब ज़रा मोटापा कम करने वाले उत्पादों जैसे “स्लिम फिट” को देखिए, एक तरफ मोटी औरत बिकनी पहने हुए दिखाई जाती है और दूसरी तरफ स्लिम और फिट स्त्री कामुक अंदाज़ में। भूमंडलीकरण* के बाद इन विज्ञापनों का भी चरित्र बदला, पूंजी आज़ाद हो चुकी थी। आवारा पूंजी बिना रोक-टोक एक देश से दूसरे देश आने-जाने लगी, जिसे हम काला धन कहते हैं। भूमंडलीकरण को लेकर बहुतों का मानना था कि भूमंडलीकरण के बाद स्त्री पितृसत्ता से आज़ाद हो जाएगी। लेकिन उसके बाद भी पूंजी ने अपनी ही मर्जी के अनुरूप जो चाहा वो करवाने लगी।
अभय कुमार दूबे ने कहा है कि “औरतों को देह के बंधन से निकालकर सचेत बनाने में उसकी (पूंजी की) कोई दिलचस्पी नहीं है, इसलिए उसने सुन्दर औरत को विदुषी* और विदुषी औरत को सुन्दर मानने से इंकार किया है।” ( पितृसत्ता के नये रूप, सं० राजेन्द्र यादव, प्रभा खेतान, अभय कुमार दूबे, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली। पेज- 63)
देश में लगभग हर राज्य में सुन्दर स्त्रियों की प्रतियोगिता करायी जाती है, जहां एक स्त्री को उसकी मेधा के आधार पर सुन्दर नहीं माना जाता। प्रतियोगिताओं में जीतने के बाद उनको तरह-तरह के विज्ञापन और फिल्में मिलने लगती हैं। इस तरह की प्रतियोगिताएं अन्य महिलाओं को असहज बनाती हैं, यही नहीं महिलाओं के बीच एक दीवार खड़ी करती हुई भी मालूम पड़ती हैं।
इस तरह की प्रतियोगिताओं के ऊपर रोहिणी अग्रवाल ने लिखा है और बिल्कुल ठीक पहचान कर लिखा है “रंगीन रौशनियों की चकाचौंध और मिस यूनिवर्स/ मिस वर्ल्ड जैसी खूबसूरत उपलब्धियों ने देखते ही देखते भारत जैसे देश को विदेशी कास्मेटिक इडंस्ट्री के सबसे बड़े बाज़ार में बदल दिया है।” (इतिवृत्त की संरचना और संरूप, रोहिणी अग्रवाल, आधार प्रकाशन। पेज- 10)
स्त्रियां भी इस तरह के प्रतियोगिताओं में खूब भाग लेती हैं ये जानते हुए भी ये प्रतियोगिताएं आधी आबादी के बीच एक बड़ी खाई बनाने का काम कर रही हैं। मध्यम और उच्च वर्ग की महिलाएं तरह-तरह के कास्मेटिक्स का प्रयोग करती हैं ताकि वो सुन्दर दिख सकें। ये सुन्दरता का कांसेप्ट दरअसल बाजार का कांसेप्ट है जिसने विज्ञापनों और प्रचार के अन्य मध्यमों से महिलाओं की मानसिकता को बदल डाला है।
इसका स्त्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है इसकी पहचान जर्मन ग्रीयर कुछ इस तरह करती हैं- “हर मनुष्य की देह का अपना एक आदर्श वजन और आकार होता है जिसे सिर्फ स्वास्थ्य और दक्षता ही नियत कर पाती हैं। स्त्रियों के शरीरों से निष्क्रिय सुंदर वस्तुओं की तरह पेश आकर हम स्त्री और उसके शरीर दोनों को विकृत कर देते हैं। ( विद्रोही स्त्री, जर्मन ग्रीयर)
आज बड़ी बजट की फिल्मों को ही देख लीजिए, किस तरह से इन फिल्मों में स्त्रियों को पेश किया जाता है। बिल्कुल एक वस्तु की तरह, सुन्दर स्त्रियां ही इन फिल्मों में भी होती हैं, आखिर क्यों? क्या स्त्री शरीर व्यापार का मोहक और आवश्यक अंग हैं? बात फिल्मों और विज्ञापनों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यही बात साहित्य में भी हैं। अधिकतर उपन्यास जो स्त्रियों को केन्द्र में रखते हुए लिखे गए हैं, उन उपन्यासों में भी हमें
सुन्दर स्त्री ही दिखती हैं।
प्रभा खेतान के उपन्यास ” छिन्नमस्ता” को ही ले लीजिए। इस उपन्यास की नायिका प्रिया अपने भाई बहनों में सांवली है पर सुंदर है। प्रभा खेतान का ही दूसरा उपन्यास है “पीली आंधी”। इस उपन्यास की तीनों पीढ़ियों की प्रमुख पात्र सुन्दर हैं। मृदुला गर्ग का उपन्यास “अपने हिस्से की धूप” की नायिका मनिषा भी सुन्दर है, चित्रा मुद्गल की “आवां” की नायिका नमिता सुन्दर है। मैत्रेयी पुष्पा के इदन्नम् की नायिका “मंदाकिनी” सुन्दर है, उषा प्रियंवदा का उपन्यास “नदी” की नायिका आकाशगंगा सुन्दर है, मैत्रेयी की “अल्मा कबूतरी” की कदमबाई इत्यादि।
इसके आलावा बहुत ऐसे उपन्यास हैं जिनकी नायिकाएं सुन्दर हैं, नहीं तो बहुत सुन्दर हैं। मैत्रेयी पुष्पा, उषा प्रियंवदा, प्रभा खेतान, अलका सरावगी, चित्रा मुद्गल, मृदुला गर्ग, नमिता सिंह के ही उपन्यासों को ही ले लीजिए। एक दो उपन्यासों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो शेष उपन्यासों की नायिकाएं सुन्दर हैं। यानि सुन्दर स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हुई दिखाई देती हैं, जैसे हमें विज्ञापनों में सुन्दर स्त्रियां ही दिखाई देती हैं। हमारे बीच बहुत कम ऐसे उपन्यास हैं जिनकी नायिकाएं खेत में काम करने वाली हो, ईंट भट्टे पर काम करने वाली हो या फिर मजदूरी करने वाली हो।
नारी विमर्श पर टिप्पणी करते हुए राजकिशोर लिखते हैं “सुंदरता अपनी जगह, एक सच्चाई है। उसकी ओर तारीफ भरी नज़र से देखना एक बात है, लेकिन उसे ही स्त्री के मूल्यांकन की एकमात्र कसौटी बना देना बिलकुल दूसरी बात है।” (स्त्री परंपरा और आधुनिकता, संपा० राजकिशोर। पेज- 82)
एक बार फिर से विज्ञापन पर आते हैं। विज्ञापनों में बहुत से विज्ञापन प्रसारित किये जाते जैसे- कपड़े धोने वाले उत्पाद, चावल, आटा, मसाले ये सारे प्रचार पुरूषवादी मानसिकता को ही बढ़ा रहे होते हैं और औरत को उस रूप को प्रधानता देते हैं, जो शरीर के प्रदर्शन से संबंध रखता है। तब स्त्रियों को सोचना होगा कि इससे कैसे निकला जाए और इस साजिश को पहचानकर लड़ा जाए, अपनी अस्मिता के लिए, स्वतंत्रता के लिए।
हालांकि नारी विमर्श से महिलाओं के सवाल बहस के केन्द्र में आने लगे हैं। स्त्रियों को ही इस लड़ाई को आगे ले जाना होगा और लड़ना होगा और उन कामगार औरतों को भी जो दिहाड़ी पर मजदूरी करती हैं, खेती करती हैं इसमें शामिल करें। इस लड़ाई में प्रगतिशील तबकों का समर्थन हो सकता है, लेकिन स्त्रियां अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगी तो नये प्रतिमान स्थापित होंगे।
1- सौन्दर्येच्छा – Wish for beauti 2- आख्यान – Narration 3- भूमंडलीकरण – Globalization 4- विदुषी – Intelligent Woman