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हम नेता चुन रहे हैं या असामाजिक तत्व?

रविन्द्र कुमार अत्री


भारतीय समाज में अभद्र भाषा को इस्तेमाल करने वाले को, नशा करने वाले को, लोगों के साथ लड़ाई-झगड़ा करने वाले को, किसी को भी मां-बहन की गालियां देने वाले को असामाजिक तत्व कहा जाता है। क्या यह असामाजिक तत्व सिर्फ आम लोगों के बीच में ही रहते हैं या फिर इनकी पहुंच दूर तक? नहीं इनकी पहुंच आम लोगों से लेकर सरकार तक होती है और यह सरकार पर एक प्रकार से धब्बा होते हैं, जिसको मिटाना मुश्किल होता है।
नेताओं को हमने चुनकर भेजा है, ताकि वह हमारी समस्याओं को सरकार के समक्ष रखकर उनका हल करवा सके। समाज के विकास में अपना अहम योगदान दे सके। लेकिन भारतीय राजनीति ऐसी हो गई है कि आप काम रुकवाओ नेता बन जाओ, भ्रष्टाचार करो नेता बन जाओ, दंगे करवाओ नेता बना जाओ और न जाने कितने ही ऐसे काम हैं जिनको करके आप नेता बन सकते हैं। मैं पूरे भारत की बात नहीं करूंगा। कारण यह है कि जिसका घर का माहौल ही ठीक न हो हम समाज सुधार की बात कैसे कर सकते हैं? खैर अब छोड़ो में आपको हिमाचल की राजनीति में नेता बनने के गुण बताता हूँ। हिमाचल में आप अपनी विपक्षी पार्टियों को जितनी अभद्रता के साथ गालियां यानी मां-बहन की गालियां दे सकते हो दो नेता बन जाओगे। इसके हिमाचल में कई उदाहरण हैं। उन उदाहरणों को छोड़ों सरकार में भी कई ऐसे लोग हैं जो विकास कार्यों को महत्व देने के बजाय मां-बहन की गालियां निकालने में ज्यादा रुचि रखते हैं। हिमाचल प्रदेश सरकार में वर्तमान में कांगड़ा जिला के ज्वाली विधानसभा क्षेत्र से पूर्व सांसद चंद्र कुमार के बेटे और वर्तमान विधायक, सरकार में सी.पी.एस. व शिक्षा विभाग का अहम जिम्मा संभाले हुए नीरज भारती विपक्ष के नेताओं को सोशल मीडिया पर इस तरह की गालियां देकर निशाना बनाते हैं कि शायद उनकी पोस्ट को पढ़ते वक्त पढऩे वाले को तो शर्म आएगी है साथ मैं उसके मन में कई आशंकाएं पैदा हो जाएंगी, कि आखिर हमने ऐसे लोगों को अपना नेता चुना है, जो इस तरह की अमर्यादित भाषा को प्रयोग करता हो। खैर जनता ने उनको पिता से विरासत में मिली सत्ता के आधार पर विधानसभा में भेज दिया हो ऐसा साफ झलकता है। एक जमीन से जुड़ा हुआ व्यक्ति कभी भी दूसरे को ठेस पहुंचाने वाली भाषा का प्रयोग नहीं करता है। ऐसा नहीं है इन गालियां देने वाले नेताओं में सिर्फ कांग्रेस के विधायक ही हैं, इसमें भाजपा के भी कुछ नेता हैं जो कहीं न कहीं अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं।
आखिर मां-बहन की गालियां देकर उनको मिलता क्या है? शायद कुछ भी नहीं बस अपनी भड़ास निकालनी होती है तो इस तरह की भाषा को फुल स्पीड़ के साथ सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देते हैं। अच्छी बात है कि अधिक से अधिक लोगों से संपर्क साधने के लिए आज के दौर में सोशल मीडिया एक अच्छा प्लेटफार्म बन गया है, लेकिन हमें अपनी मर्यादा को नहीं भूलना चाहिए। राजनीति के साथ साथ हमारी कुछ सामाजिक जिम्मेदारियां भी हें, जिनका हमें पालन करना चाहिए। पर आज के दौर में सामाजिक जिम्मेदारियों को भूल कर हम बस एक दूसरे को नीचा दिखाने में मशगूल हैं। शिक्षा विभाग जैसा अहम विभाग संभालने के बाद इस तरह की भाषा का प्रयोग करना से समाज में किस प्रकार की सार्वजनिक तौर पर शिक्षा दी जा रही है। इसका सहजता है अंदाजा लगाया जा सकता है।
खैर लिखने को तमाम ऐसी बातें हैं, लेकिन क्या करूं कभी कभी मन में सवाल उठता है कि कैसे नेताओं का चुनाव कर रहे हैं। आज लोग इतना भी भूल गए हैं कि आमुख नेता में क्या खासियत है और क्या खामियां हैं? अगर उन खामियों और खासियत को देखकर हम नेताओं का चुनाव करें तो शायद प्रदेश का भला हो सकता है।
अगर नेता चुने जाने के बाद भी वह अपनी गलतियों में सुधार नहीं करता है तो वह नेता नहीं बल्कि एक असामाजिक तत्व है, जिसे हमने सत्ता में जिम्मेदारियां उठाने के लिए भेज दिया है। परंतु असल में वह रहता तो असामाजिक तत्व ही। उसमें सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती है। अगर राजनीति को स्वच्छ बनाना है तो ऐसे नेताओं का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए जो हाथ में सत्ता में आते ही अपने आप को शक्तिशाली समझने लगते हैं।

डिसक्लेमर : यह लेखक के निजी विचार हैं।

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