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हिंदी साहित्य के शेक्सपियर हैं मुंशी प्रेमचंद:-

मदरसे से तालीम हासिल कर हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा स्तम्भ बनना इतना आसान ना था, लेकिन मुंशी प्रेमचंद ने इस मिथक को तोड़ा है। 31 जुलाई तारीख़ के पन्नों में गुम-सी हो गयी है जिसके जन्मदिन पर प्रेमचंद जैसे खांटी गंवईं नामचीन साहित्यकार का कोई नामलेवा नहीं है!

हिंदी के सबसे बड़े यथार्थवादी लेखक मुंशी प्रेमचंद की “ईदगाह” कहानी शायद ही कोई हो जिसने ना पढ़ी हो—एक छोटा बच्चा हामिद जो दूसरे हमउम्र बच्चों की तरह खेल-खिलौनों, गुड्डे-गुड़ियों के लालच में नहीं पड़ता और अपनी दादी के लिए मेले से एक चिमटा ख़रीद कर लाता है…मगर चिमटा ही क्यों?—वो इसलिए कि रोटियां सेंकते वक़्त उसकी दादी के हाथ जल जाते थे।

एक छोटी-सी कहानी “ईदगाह” में प्रेमचंद ने हामिद से बड़ी-बड़ी बातें कहलवा दीं—वो बातें जो ना केवल पाठक के दिल को भेद जाती हैं बल्कि पाठक उसे अपनी आत्मा में समेट लेने को आतुर दिखता है।

प्रेमचंद मनुष्य के मनोविज्ञान को समझने वाले लेखक थे…देश की आज़ादी से पहले भारतीय समाज पर अंग्रेज़ों के दमन का जैसा चित्रण प्रेमचंद ने अपनी साहित्य में किया वैसा कोई दूसरा लेखक नहीं कर पाया है।

प्रेमचंद ने “कफ़न”, “नमक का दारोग़ा”, “पूस की रात”, “ईदगाह”, “बड़े घर की बेटी”, “घासवाली” जैसी कहानियों में और “गोदान”, “ग़बन”, “निर्मला”, “कर्मभूमि”, “सेवासदन”, “कायाकल्प”, “प्रतिज्ञा” जैसे उपन्यास लिखकर आम लोगों की भाषा में यथार्थ के नए प्रतिमान गढ़े।

फ़िरंगियों के आधिपत्य-काल के शोषण, ग्रामीणांचल के किसानों की दरिद्रता, गाँवों में व्याप्त ग़रीबी, उत्पीड़न, जहालत, अशिक्षा, भेदभाव, मज़हबी छुआछूत, वंचना, औरतों की बदहाली प्रेमचंद के शब्द पाकर जीवंत हो उठे और अंग्रेज़ों के अत्याचार का असली चेहरा प्रेमचंद द्वार रचित साहित्य के मार्फ़त आम जनमानस के सामने आ पाया।

दरअसल प्रेमचंद जिस तरह का साहित्य लिख रहे थे उसके पीछे उनकी ग़ुरबत और मुल्क का साम्राज्य अंग्रेज़ों के आधिपत्य में होना था…इस तरह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने जो जिया वही लिखा—जिस तरह उनके दिन पैसों की तंगी में बीत रहे थे उसी तरह के पात्र उनकी कहानियों में देखने को मिल जाएंगे।

देश की जनता के दर्द को को अपनी लेखनी में उतारने की वजह से अंग्रेज़ हुक्मरानों को प्रेमचंद के अंदर बग़ावत की बू महसूस होने लगी थी—इसलिए प्रेमचंद नवाब राय के नाम से लिखा करते थे। अंग्रेज़ों ने नवाब राय को खोज निकाला और सज़ा के तौर पर उनकी कहानी-संग्रह “सोज़े-वतन” को उनकी आंखों के सामने जला दिया गया…इसके बाद धनपत राय नवाब राय नहीं हमेशा के लिए “प्रेमचंद” हो गए और ये नाम सुझाया था इनके क़रीबी मुंशी दया नारायण निगम ने।

परिवार की दरिद्रता दूर करने और इनका पालन-पोषण करने के लिए प्रेमचंद अपनी क़िस्मत आज़माने 1934 में मायानगरी मुम्बई भी पहुंचे थे लेकिन उनकी कहानियों पर बनने वाली फ़िल्मों को लेकर जनता ने उनके साथ न्याय नहीं किया।

प्रेमचंद के ज़िंदा रहते और उसके बाद भी जैनेंद्र, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, यशपाल जैसे हिंदी के धुरंधर लेखक हुए लेकिन पॉपुलैरिटी और कालजयी छाप के मामले में प्रेमचंद के आगे कोई नहीं टिक पाया।

ये ठीक ऐसे ही है कि जैसे अंग्रेज़ी साहित्य में शेक्सपियर जैसा दूसरा बड़ा साहित्यकार पैदा नहीं हुआ वैसे ही प्रेमचंद जिस क़द के लेखक थे वैसा लेखक हिंदी साहित्य में शायद दोबारा जन्म न ले पाए! प्रेमचंद ने जिन समस्याओं और विसंगतियों पर कहानी और उपन्यास लिखे वो परेशानियां और विसंगतियां आज भी जस की तस मौजूद हैं; पर प्रेमचंद की तरह धारदार तरीक़े से क़लम चलाने वाला आज के दौर में कोई लेखक है ही नहीं!

…या यूँ कहा जाए कि आज के दौर की समस्याएं प्रेमचंद के ज़माने से भी ज़्यादा जटिल और भयावह हैं लेकिन इसे शब्दों में उतारने वाला कोई साहित्यकार मौजूद नहीं है क्योंकि हिंदी भाषा में आज का कथालेखन तो एक विशेष विचार को आगे बढ़ाने के लिए हो रहा है…आज के दौर का हिंदी-साहित्य सत्ता के स्तुति-गान तक महदूद होकर रह गया है।

आज जब साहित्यकार का जुड़ाव समाज से होना चाहिए तो वो सत्ता के गलियारों में भ्रमण करता मिल जाएगा, आज का लेखक अपनी परंपराओं से कटकर वर्तमान और भविष्य की बाट जोह ही नहीं पा रहा है। आज का लेखक समाज के गूढ़तम रहस्यों का पर्दाफ़ाश कर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ का प्रसार करने की बजाय अपनी लेखनी का प्रचार-प्रसार करने की उधेड़बुन में रहता है—ऐसे आलम में एक ‘महान साहित्य’ की कल्पना करना बेईमानी-सा जान पड़ता है।

देश की आज़ादी के बाद हिंदी साहित्य में श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास “रागदरबारी”, निर्मल वर्मा के उपन्यास “वे दिन”, मन्नू भंडारी के उपन्यास “महाभोज” और “आपका बंटी” ख़ूब चर्चित रहा था। अभी हालिया सालों में कमलेश्वर के “कितने पाकिस्तान” और निर्मल वर्मा के “अंतिम अरण्य”, कृष्णा सोबती के “समय सरगम” जैसी कृतियों की जमकर तारीफ़ हुई। इधर सबसे ज़्यादा चर्चा में रही विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास “दीवार में खिड़की रहती थी” और अलका सरावगी के उपन्यास “कलिकथा वाया बाईपास” रही। इसके बावजूद ये रचनाएं मानव मन के अंतस्थल में प्रवेश करने में नाकाम रहीं क्योंकि प्रेमचंद केव तरह समाज का सटीक विश्लेषण और मनुष्य के हृदय के गूढ़तम रहस्यों को टटोलने में ये लेखक असमर्थ रहे हैं। इसीलिए ग़ैर हिंदी भाषियों के लिए हिंदी साहित्य का मतलब आज भी प्रेमचंद ही है।

एक वजह और है कि आज का हिंदी लेखक समाज के आख़िरी पायदान पर खड़े शख़्स से कनेक्ट नहीं कर पा रहा है क्योंकि आज का भारतीय समाज चेतन भगत को तो चाव से पढ़ता है लेकिन जहां उसे समाज की नग्न सच्चाई से दो-चार होना पड़ता है तो वो किनाराकशी अख़्तियार करने लगता है क्योंकि आज के दौर का मनुष्य साहित्य में मनोरंजन चाहता है, चटखारा चाहता है—जो हिंदी साहित्य में उसे मिल नहीं पाता है।

आज हिंदी साहित्य का रुझान शहरी मध्यवर्ग की तरफ़ एकांगी हो चला है जिसमें उनकी ही बातें, उनकी ही पीड़ा, उनकी ही जीवन-शैली, उनका ही समाज केंद्रित होकर रह गया है, आज के साहित्य में किसानों, मज़दूरों, दलितों-शोषितों पर लिखने वाले को पिछड़ा हुआ लेखक माना जाता है…इसिलए इस विधा पर कोई क़लम चलाना नहीं चाहता और उनकी सोच भी ग्रामीणांचल की बयार से हटकर बहती है जहां भौतिकतावाद का दुर्गंध बसता है!

आज हिंदी साहित्य की कोख प्रेमचंद के बिना सूनी नज़र आ रही है…आज हिंदी साहित्य को एक प्रेमचंद चाहिए जो भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण के इस दौर में भारतीय समाज में आये बदलाव को रेखांकित कर सके, भारतीय समाज में आये बदलाव और स्थायी समस्याओं पर एक कालजयी कृति पेश कर सके और समाज की स्थायी समस्याओं के द्वंद्व को शब्दों की लड़ियों में पिरोकर मानव मन की छटपटाहट को एक नया रूप दे सके!

 

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आफ़ाक़ अहमद

शोध छात्र: पत्रकारिता एवं जनसंचार

एएमयू, अलीगढ़

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