दो वक़्त की सूखी रोटियों की बोली लगाकर, गहने-कपड़े बेचकर, दर-दर भीख माँगकर जब 30 लाख की रक़म जुटाई जा रही थी, अंग्रेज़ों के राज में जब ये शर्त जोड़ी गयी कि अगर मुसलमानों के लिए अलीगढ़ में यूनिवर्सिटी बनानी है 30 लाख रुपए का रिज़र्व फ़ण्ड क्रिएट करना होगा, कितना दुश्वार रहा होगा सर् सैय्यद के अनुयायियों और दोस्तों के लिए, उस वक़्त MAO College(Muhammadan Anglo Oriental College) से AMU बनाने के लिए ये रक़म जुटाना!
ये सब बातें भ्रामक नशे, हेकड़ी, खोखले टशन, बेमतलब की तुनक-मिज़ाजी में चूर आज के AMU के तालिब-इल्म(स्टूडेंट्स) के लिए एक कपोल-कल्पना से कम नहीं। आज की घड़ी में इस 30 लाख की क़ीमत क़रीब 300 करोड़ से ज़्यादा बैठेगी। अब आप अंदाज़ा लगाइए कि AMU को बनाने में आख़िर किसका ख़ून-पसीना लगा, सर् सैय्यद की क़यादत में जिन लोगों ने अपनी ज़मीनें दीं, पाई-पाई जोड़ा वो लोग कौन थे?
माइनॉरिटी इंस्टिट्यूट का नाम आते ही अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया का नाम ही खट से ज़ेहन में आता है।जबकि भारत में मज़हब, ज़ुबान, बोलचाल, तहज़ीब के एतबार से 13 हज़ार अक़लियती इदारे हैं( माइनॉरिटी इंस्टिट्यूशन) जो मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी, बौद्ध और जैन मज़हब के मानने वालों के हैं। इससे साफ़ हो जाता है कि अल्पसंख्यक के नाम पर सिर्फ़ AMU और Jamia का बार-बार नाम उछालना जायज़ नहीं है।
मैं ख़ुद लखनऊ क्रिश्चन कॉलेज से वाक़फ़ियत रखता हूँ। यहां ईसाइयों को दाख़िले में रिज़र्वेशन है और यहाँ एक चर्च भी है…यहां 11वीं से तालीम दी जाती है और इस शिक्षण-संस्थान का प्रिंसिपल क्रिश्चियन ही रहेगा…इसी तरह पंजाब में जैन धर्म के, सिखों के, आर्य समाज के इदारे हैं और यहां बाज़ाब्ता जैन धर्मावलंबियों के मंदिर और गुरूद्वारे भी हैं।
पंजाब में सिखों के जितने भी इदारे हैं चाहे वो गुरूनानक मेडिकल कॉलेज हो—वहाँ डंके की चोट पर सिख अनुयायियों के लिए कोटा सुरक्षित है और इन संस्थानों के अंदर गुरूद्वारे भी हैं जहां तलबा अपने धार्मिक अनुष्ठान का पालन करने के लिए पूरी तरह से आज़ाद है।
इसी तरह अखिल भारत में ईसाई मज़हब के सैंकड़ों इदारे हैं और इनके कैंपस में ही चर्च भी बने हुए मिल जाएंगे जहां स्टूडेंट्स आज़ादाना तौर पर अपने मज़हब के मुताबिक़ पोषित होता है।
आख़िर, सारी दिक़्क़त AMU और Jamia को लेकर ही क्यों है? शायद दिक़्क़त और सोच यही है कि एएमयू के अक़लियती किरदार छिनने से मुस्लिम अल्पसंख्यकों की एक बड़ी खेप देश की मुख्यधारा से कट जाए और मुम्बई-चेन्नई-दिल्ली में मज़दूरी करे, ठेला चलाए, ढकेल लगाए, खोमचा बेचे, मिस्त्रिगिरी का काम करे, रिंच-पैना चलाए, पंक्चर जोड़े, कबाड़ का धंधा करे, मुर्ग़ी और बकरियां पाले-चराए। सरकार को तकलीफ़ है क्या कि भारत भूमि पर विदेशी कमाई से एक मुस्लिम ज़िम्मेदार शख़्स अपने परिवार का भरण-पोषण करे तो पर पढ़कर विदेश में प्रोफ़ेसर बनकर, डॉक्टर-सर्जन, इंजीनियर बनकर नहीं एक कामगार मज़दूर बनकर!
मरकज़ी हुकूमत(सेंट्रल गॉवर्नमेंट) AMU-Jamia को फंड करती है, इन इदारों को संसद के एक्ट से कायम किया गया है; लेकिन ये भी तो कहीं दर्ज नहीं है कि अगर ये इदारे केंद्र सरकार से फंड लेंगे तो इनका अक़लियती किरदार छिन जाएगा? जिस तरह मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल (MAO) कॉलेज को यूनिवर्सिटी बनाने को लेकर 30 लाख का चंदा किया गया था, अंग्रेज़ों के एक्ट से एएमयू का क़याम हुआ और बाद में देश की संसद ने ये माना कि एएमयू का गठन मुल्क के बदहाल मुसलमानों की तालीमी पसमांदगी दूर करने के लिए किया गया है…तब बार-बार एएमयू के इस कैरेक्टर को लील जाने की मुनज़्ज़म प्लाॅनिंग हजम नहीं होती है।
क्या BHU में बहुसंख्यक तौर पर हिंदू समाज के छात्र नहीं पढ़ते हैं? यही बात अगर AMU पर लागू हो कि यहां बहुसंख्यक तौर पर मुस्लिम समाज के तलबा तालीम हासिल करें तो इसमें ग़लत क्या है? एक दौर ऐसा भी था जब देश की आज़ादी से पहले BHU माइनॉरिटी इंस्टिट्यूट था क्योंकि तब सत्ता की चाबी अंग्रेज़ों के हाथों में थी और हिन्दू समाज ने अपने बच्चों के मुस्तक़बिल को महफ़ूज़ करने के लिए बहुसंख्यक होते हुए भी BHU में हिंदू स्टूडेंट्स के लिए दाख़िले में आरक्षण लागू किया था…आज यही तस्वीर मुस्लिमों के सामने है कि वो अल्पसंख्यक हैं और सत्ता हिन्दू समाज के पास है। ऐसे में AMU में मुस्लिम समाज के बच्चों को आरक्षण मिलना एक तार्किक मौज़ूं है और ऐसा हर हाल में होना भी चाहिए!
एक मज़बूत लोकतंत्र में जब तक ये बुनियादी सोच नहीं पनपती है कि अल्पसंख्यकों के उत्थान के बिना, इनकी तालीमी बेदारी के बिना, इनकी आर्थिक उन्नति के बिना एक मुल्क का सपना अधूरा है तब तक हम ख़ालिस भाषणों में ही देश के संविधान की दुहाई देते रहेंगे। देश का संविधान हमें अपनी अंतरात्मा में आत्मसात करना होगा तभी सर्वसमाज का उत्थान सुनिश्चित हो पाएगा।
भारत सरकार सुप्रीम कोर्ट में क्या ये साफ़ नहीं करेगी कि अगर वो एएमयू और जामिया के मुस्लिम अल्पसंख्यकों का ‘तालीमी चीरहरण’ करना चाहती है तो देश के सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध के 13 हज़ार शिक्षण-संस्थानों का क्या होगा जो इसी बुनियाद कर क़ायम हैं और चल रहे हैं जिस तरह से एमयू और जामिया?!
क्या 20 करोड़ मुस्लिम, 3 करोड़ ईसाई, 2 करोड़ सिख और अन्य बौद्ध-पारसी-जैन अल्पसंख्यक समाज के बच्चों की तालीमी बेदारी के लिए और भी शिक्षण-संस्थान नहीं खुलने चाहिए? क्या एएमयू अकेला करोड़ों मुस्लिम बच्चों की तालीमी ज़रूरतों को पूरी कर सकता है? जब सरकार को देश में अल्पसंख्यकों-पिछड़ों-दलितों-आदिवासियों के शैक्षणिक -उत्थान के लिए नए तालीमी इदारे खोलने चाहिए वो एएमयू और जामिया पर पिली पड़ी है।
ये सब एक तंदुरुस्त जम्हूरियत के लिए मुनासिब नहीं। अगर सरकार अपने संविधान-प्रदत्त अधिकारों का अनुचित दोहन करती है तो इससे किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का भला होने से रहा…देश में धर्म के चश्मे से तालीमी असहिष्णुता का बीज रोपकर बीजीपी हुकूमत वोट तो ले सकती है, लेकिन इससे अन्ततोगत्वा समाज का ही अहित होगा…
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