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बिहार में आई बाढ़ की पूर्णिया से ग्राउंड रिपोर्ट

आशुतोष:

आज पूर्णिया के शहरी इलाके और उसके आसपास के ग्रामीण बाढ़ प्रभावित इलाकों से घूमकर वापस लौटा हूं। इस दौरान मैं बाढ़ प्रभावित इलाके के रास्ते में पड़ रहे कई राहत शिविरों में गया था। राहत शिविर में हो रहे काम ने दिल को झकझोर कर रख दिया। वहां हो रहे काम से दिल बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं है, ना ही दिमाग उस खालीपन को भर पा रहा है जिसे मैंने अपनी आंखों से महसूस किया है। राहत शिविर मात्र कहलाने के लिए ‘फ्लड कैंप’ बनकर रह गए हैं। बहुतेरे जगहों पर मिल रहे भोजन की गुणवत्ता बहुत खराब है। राहत शिविर महज़ अखंड लूट का अड्डा बनकर रह गए हैं। जिला प्रशासन अपनी पीठ जितनी चाहे थपथपा लें, लेकिन ज़मीनी हकीकत इसके काफी अलग है।

खैर, बाढ़ राहत शिविरों के नाम पर सरकार को कुछ कागज़ पेश कर दिए जाएंगे। मौत और ज़िंदगी के बीच जूझ रहे लोग आखिर इन परिस्थितियों में कर भी क्या सकते हैं, जहां हज़ारों ज़िंदगियां दांव पर लगी हुई हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण और गर्व करने वाली बात है, आम लोगों द्वारा बाढ़ पीड़ितों की मदद करना जो दिल को छू जाता है। कई संस्था व स्वतंत्र संगठन बाढ़ पीड़ितों के बीच राहत कार्यों में दिलो-जान से जुटे हुए दिख रहे हैं। पटना और पटना से बाहर के भी कई सारे समूहों का बाढ़ पीड़ितों के बीच आना सुकून पहुंचाता है। लोग हर तरीके से सहयोग कर रहे हैं, सोशल मीडिया से लेकर ज़मीनी स्तर तक एक-दूसरे से संपर्क में हैं। ये लोग कार्यकर्ताओं और बाढ़ पीड़ितों के बीच एक पुल की तरह खड़े दिखाई देते हैं।

उधर पूर्णिया से सटी सौरा नदी का बहाव अभी स्थिर है और पामर बांध से लेकर पूर्णिया सिटी व कप्तान पुल तक का बांध फिलहाल सुरक्षित है। फिर भी प्रशासन व आम लोग बांध की सुरक्षा के लिए दिन-रात निगरानी कर रहे हैं। लेकिन जिनके आशियाने से लेकर अरमान तक डूब गए हैं, उनका दुःख शायद ही कोई साझा कर सकता है। सौरा नदी ने जब अपना रौद्र रूप धारण किया, जब अपने बहाव का विस्तार किया तो शहर के निचले इलाके में रहने वाले लोगों के घर-ज़मीन, सब अपने भीतर समाहित कर लिया।

सौरा नदी बाकी छोटी-छोटी नदियों की अपेक्षा तबाही फ़ैलाने की क्षमता कहीं ज़्यादा रखती है। इस विस्तृत रूप में यह अपने भीतर कई छोटे-मंझोले शहरों को समा सकती है। कई घरों की ऊपरी सतह अभी भी डूबी हुई हैं, कई जगह जहां पहले लोगों के आने-जाने के रास्ते हुआ करते थे, वो अब पानी के नीचे गायब हो चुके हैं। लोग रास्तों पर से भी पानी कम होने का इंतज़ार कर रहे हैं। इन इलाकों के बुर्जुर्गों का कहना है कि- “बांध से सटाकर नदी के पेट में ही बांध बनाइयेगा तो भला कौन नदी खुश होगी। नदी का रास्ता रोकियेगा तो नदी अपनी रौद्र रूप कभी तो प्रकट करेगी ना!”

सूर्य डूबने लायक बादलों के बीच पहुंचकर छिप रहा है। मैं और मेरा बाइक धीमी रफ्तार में सांझ के ओझल होने का इंतजार कर रहे हैं। मैं कस्बे से लौट रहा हूं, वहां की ओर जाने वाले रास्ते से मैं पूर्णिया सिटी आ पहुंचा हूं। फिर से उसी पामर बांध को निहारते हुए आगे बढ़ रहा हूं। लगातार चलते हुए मैं पामर बांध के अन्तिम छोर पर आ पहुंचा। लेकिन अब भी पामर बांध से सटे इलाकों में बह रहे पानी से नज़र नहीं हटा पा रहा हूं। दिमाग उफनती हुई सौरा नदी पर है। सौरा नदी के रौद्र रूप का दृश्य आंखों के सामने से हट नहीं पा रहा है। पानी कम हुआ है और आतंकित होने जैसा माहौल अब नहीं है। इसलिए क्योंकि अब पूरी उम्मीद है कि नदी अपनी नाराज़गी खत्मकर मान जाएगी। बाइक चलाते वक्त बुर्जुर्गों की कही हुई बातें याद आ रही हैं।

विश्वास है कि वीरान व डरावनी धरती और पूरा का पूरा गमगीन इलाका अपना रंग बदलेगा। सूर्य अपनी किरणों से पहले की तरह धरती व प्रकृति को हंसता-खेलता बना जाएगा। घर पहुंचने से कुछ ही पहले कहीं से लाउडस्पीकर पर गीत बजता हुआ सुनाई दे रहा है। सड़क के पश्चिमी छोर से दूर एक बस्ती से कुछ रौशनी जलती हुई दिख रही है। खुद के मन में बंधे हुए बांध की मरम्मत कर रहा हूं। मन के जिस बांध के टूट जाने का संकेत है, उसे बचाने की जद्दोजहद कर रहा हूं। राहत शिविरों में हल्ला कर रहे लोगों की चीख-चिल्लाहट, बच्चों के रोने-बिलखने ध्वनि से खुद से बांधने का जतन कर रहा हूं। हर उन कार्यकर्ताओं का काम याद आ रहा है जो निष्ठा भाव से बाढ़ पीड़ितों तक खाने-पीने से लेकर दवाई तक पहुंचा रहे हैं। विपदा के इस विषम संकट के परिस्थितियों में धैर्य व साहस के साथ निपटना होगा। अफवाहों की भी जांच-परख करते हुए इन खबरनवीसों से बचते रहना होगा।

नोट: ये तस्वीरें बिहार में आई बाढ़ की ही तस्वीरें हैं लेकिन पूर्णिया की नहीं, असल तस्वीरें मिलते ही स्टोरी अपडेट की जाएगी। 

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