शहर! शहर एक ऐसी दुनिया है जो दूर से चहकती हुई दिखाई देती है, महकती हुई दिखाई देती है। हिन्दुस्तान में एक तरफ है पिछड़े हुए लाखों गाँव और दूसरी तरफ तेज़ी से “विकास” की मशीन में डाले जाने वाले कुछ शहर।
लेकिन शहर की इस बाहरी चकाचौंध में अनगिनत वास्तविक विरोधाभास छिपे हुए हैं। ये विरोधाभास सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि हम कौन से विकास और आधुनिकता की तरफ इतनी तेज़ी से बढ़ रहे हैं? एक छोटे से संवाद ने मुझे यही सोचने के लिए मजबूर कर दिया। संवाद के दो पात्र थे, एक मैं, 27 साल का युवक जो एक शहर से दूसरे शहर में रिसर्च के लिए आया हूं और एक सत्या (बदला हुआ नाम) जिसकी उम्र 11 साल थी और वो एक गांव से चाय की लॉरी पर काम करने के लिए हाल ही में शहर आया था।
मैं – तुम स्कूल नहीं जाते?
सत्या – नहीं। पांचवी तक गया, बाद में छोड़ दिया।
मैं – क्यों?
सत्या – वो स्कूल में बहुत मारते थे ना… मुझे नहीं अच्छी लगती थी पढ़ाई। (दरवाज़े के हैंडल की ओर इशारा करके) ये ऐसी छड़ी थी उनके पास, एक लड़के को बहुत मारा था। उसने ये स्कूल का ड्रेस नहीं पहिना था ना। ऐसा रंगीन कपड़ा (अपने शर्ट को दिखा के) पहिना था। बहुत मारा था। मुझे भी 2-3 बार मार पड़ी है। मुझे नहीं अच्छा लगता स्कूल।
मैं – कहां, गांव में था तुम्हारा स्कूल? यहां सूरत में नहीं जाते तुम स्कूल?
सत्या – हाँ, गांव में, तुम्हारा गाँव कौन सा है?
मैं – मेरा? पुणे, पूणा का नाम सुना है तुमने?
सत्या – (सिर हिलाकर) एक रात लगती होगी ना जाने को? मेरे गाँव जाने में एक रात लगती है, और जोधपुर उतर के वहां से भी अन्दर दूर जाना पड़ता है। तुम्हारे गांव में भी दूर अन्दर जाना पड़ता होगा ना?
मैं – (मुस्कुराकर) मैं दरअसल शहर में रहता हूं, शहर समझते हो ना? ये सूरत कैसा शहर है, वैसे मेरा भी शहर है। ट्रेन सीधा वही रुकती है, अन्दर नहीं जाना पड़ता है।
सत्या – हम्म! यहां के मास्टर मारते नहीं होंगे ना बच्चों को? ये तो शहर है।
मैं – (मुस्कुराकर) यहां नहीं मारते है, हां, थोड़े चिल्लाते होंगे पढ़ाई ना करने पर। पर मारते नहीं होंगे। तुम्हारा मन नहीं करता यहां स्कूल जाने के लिए? पढ़ाई करने के लिए?
सत्या – नहीं।
मैं – तुम्हें कभी ऐसा नहीं लगता कि तुम बड़े अफसर बनो, ऐसे ऑफिस में बैठो, काम करो।
सत्या – हम छोटे घर से है ना, तो हम बड़े अफसर नहीं बन सकते।
मैं – मतलब?
सत्या – हम भील हैं ना, मतलब यहां सूरत में तो कोई मानता नहीं है ज़्यादा, लेकिन हम गांव में छोटे है सबसे।
मैं – अच्छा। तो तुम बड़े हो कर क्या बनोगे?
सत्या – (थोड़ी देर शांत रह कर) पता नहीं। ऐसे ही काम करूंगा कुछ। मेरा भाई है ना, फैक्ट्री में जाता है, वैसे ही कुछ।
मैं – अच्छा, तो यहां सूरत में अच्छा लगता है तुम्हें?
सत्या – अभी लगता है। पहले नहीं लगता था। मैं पहले भी एक बार आया था। तब मेरा भाई ये (चाय की लारी पर, लोगों को चाय देने) का काम करता था। फिर पांचवीं के बाद मेरा स्कूल छूट गया, अब मैं आ गया। मेरे भाई की शादी हो गई और उसको फैक्ट्री में काम मिल गया।
मैं – अच्छा, तो ये चायवाले अंकल तुम्हारे रिश्तेदार है?
सत्या – हां। रिश्तेदार मतलब गांव के है।
मैं – तो आगे जाके तुम क्या सूरत में ही रहोगे?
सत्या – हां मतलब जहां अच्छा काम मिलेगा वहां रहूंगा। तुम क्या करते हो यहां पर? स्कूल में पढ़ाते हो?
मैं – (मुश्किल से जवाब इकठ्ठा करके) मतलब, वातावरण बदल तो रहा है, जानते हो?
सत्या चेहरे पर गहरा प्रश्नचिन्ह लिए मुझे देख रहा था।
मैं – मतलब, मानो जैसे गर्मी बढ़ रही है, बारिश कम हो रही है, रेत आ रही है, सूखा पढ़ रहा है, मलेरिया-डेंगू जैसे बीमारी बढ़ती है, उसके बारे में काम है मेरा।
सत्या – मतलब, डॉक्टर हो?
मैं – नहीं, नहीं, रिसर्च करते है ना, म्म्म्म… जैसे सायंटिस्ट होते है ना.. क्रिश फिल्म में होता है ना ह्रितिक रोशन।
सत्या – हाँ। अच्छा-अच्छा।
मैं – कुछ वैसा ही समझो।
सत्या, मैंने जो बताया उस पर कुछ देर सोच रहा था..
मैं – तो अब क्या करोगे? दिनभर यहीं लॉरी पे रहते हो?
सत्या – हां, 8 बजे तक। सुबह और शाम में काम ज़्यादा रहता है।
मैं – क्या क्या काम होता है?
सत्या – चाय देना, गिलास धोना, ऑफिस में जाकर चाय देना, पानी भर के रखना।
मैं – और रहते यहीं पर हो?
सत्या – हां, अंकल के साथ। शाम को जाते हैं घर।
मैं – गांव की याद नहीं आती?
सत्या – आती तो है मगर क्या करूं? आपको आती है?
मैं – (उसकी ही अदा में) हां, आती तो है, मगर क्या करूं?
हम दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े
मैं – और ये तुमने बालों का स्टाइल किया है, ये तुम्हें अच्छा लगता है?
सत्या– हां वो भगवान का होता है ना। चलो अब मुझे चलना पड़ेगा। नहीं तो सेठ चिल्लाएगा, बहुत टाइम हो गया।
मैं – ओके, बाय। बिस्किट रखे है वहां पे क्रीम वाले, खा के जाना।