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धार्मिक उठापठक की हकीकत से जूझने के बाद भारत में आपका स्वागत है

धार्मिक उठापठक की वास्तविकता से जूझने के बाद भारत में आपका स्वागत है। दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म जगत का पुरस्कार अगर प्रदान किया जाए तो उसका हकदार शायद भारत ही हो। मुझे नहीं पता हम क्या बचा रहे हैं, पर जो खत्म हो रहा है उसके नुकसान का अंदाज़ा नहीं। परसों तीन तलाक बचा रहे थे, कल बंगाल में दुर्गा विसर्जन बंद करा  रहे थे। लोकतन्त्र बाढ़ में डूबा पड़ा है और इन हालातों में अंधरे कोनों में दुबकी भुखमरी, महामारी, बेरोज़गारी इसे अपना भाग्य समझ रही है। कहते हैं लोग सच लिखने से डरने लगे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि लोग सच पढ़ने से भी डरते हैं। एक फेसबुक पोस्ट से धर्मों को खतरा हो जाता है!

जब मैं छोटा था तो सालों पहले कुछ अलग ही भारत हुआ करता था, उस भारत में भी अजीब पागलपन था। मेरे घर से थोड़ी ही दूर पर एक कोल्हू था जिसमें गन्ने के रस से गुड़ बनता था। शाम को वहीं गांव के सारे ‘लफंडर’ इक्कठा हुआ करते थे। मोहल्ले के गुलज़ार और शौकीन सब आ जाते और फिर मुल्ला-मौलवियों, पण्डे-पुजारियों पर चुटकुले सुनाते। तब शायद सबका मज़हब मजबूत रहा होगा, आज जितना कमज़ोर नहीं।

तब आस्था की भी बात होती और मजहब की भी। मंदिर में सफाई की बात आती तो ‘वो’ सबसे आगे झाड़ू लेकर चलते, मस्जिद का मामला होता तो हम भी पीछे नहीं रहते। ओह!! कितने साम्प्रदायिक थे ना सब? मेरे हिंदी के मास्टर का नाम इकबाल सिंह और बायोलॉजी के मास्टर का नाम मलखान सिंह था। दोंनो हिन्दू थे पर नाम आज के माहौल के हिसाब से साम्प्रदायिक थे। वो भारत भी कुछ अजीब था, मेरे घर की भैंस दूध ना दे तो मौलवी आटे का पेड़ा पढ़कर दे देता था और अशिक्षित धर्मनिरपेक्ष भैंस उसे खाती और दूध दे देती।

हाशिम अली गरीब था लेकिन उसकी लड़की की शादी में क्या हिन्दू क्या मुस्लिम, पूरे गांव भर ने मदद की; बारात भी हंसी खुशी विदा हुई। बाबु लोहार की लड़की की शादी का सारा सामान हाशिम अली के तांगे में आया, बाबु ने जब जेब में हाथ दिया तो हाशिम बोला “चाचा एक नया पैसा नहीं लूंगा, बेटी मेरी भी कुछ लगती है।” बाबू ने कहा घोड़ा घास से यारी करेगा… उसकी बात हाशिम बीच में रोककर बोला “इसी घास ने पिछले दिनों मेरी बेटी की शादी में मेरे मान-सम्मान की छत ढकी थी।” पागलपन की भी हद थी तब, घोड़ा घास से मानवता का रिश्ता दिखा रहा था।

अख्तर का बाप जब गुज़रा तो उस रोज़ शाम को पड़ोस के एक लड़के की घुड़चढ़ी थी। वो नहीं हुई सब बड़े बूढों ने कहा दुःख सुख साझा है, बैंड-बाजा दो दिन बाद बज जाएगा। जब पांच वर्ष बाद विभाजन की 75वीं सालगिरह आएगी तो ऐसे बूढ़ों का मिलना बहुत मुश्किल हो जाएगा। शायद लोग उस समय दुःख-सुख, धर्म के चश्मे से देखने लग जाएं।

आज नया भारत है फिर भी, वास्तविकता के आसपास उदारवादी धार्मिक नृत्य देखने के लिए आज यह मज़ेदार समय है। हम उस देश के वासी है जहां सोचने समझने के लिए विचार नहीं बदले जाते बल्कि एक सुर में सुर मिलाकर सुरों को बदल रहे हैं। या यूं कहें कि विचारों के घोड़े कल्पनाओं में घुसपैठ कर रहे हैं।

दुर्भाग्य से धर्मनिरपेक्षता, मानवतावाद और नैतिक रूप से जुड़े आत्मज्ञान के दार्शनिकों ने एक कोना पकड़ लिया है। अब राजनेता, धर्म और धर्म से जुड़े लोग राजनीति सिखा रहे है। धर्म-मजहब के नाम पर जो माहौल हम खड़ा कर रहे है उसका फायदा ये नेता उठा रहे हैं। लोगों को आस-पास गहराते संकट का अंदाज़ा भी नहीं है। लेकिन ये पूरा हिंदुस्तान तो नहीं है, हो भी नहीं सकता। परोपकार का व्यापार इतना बड़ा है कि राजा, मंत्री, सरकार, प्रशासन सभी धोखे में रहना चाहते हैं। पुराना भारत वोटों में बिक गया और नया भारत बनाया जा रहा है। मैं फिर कहता हूं धार्मिक उठापठक की वास्तविकता से जूझने के बाद भारत में आपका स्वागत है।

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