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15 अगस्त को बचपन में मकसद डेफिनिट होता था, दिनभर पतंग उड़ाना

आज ऑफिस से वापस घर आते वक्त यूं ही आसमान पर नज़र गई तो आसमान कुछ छितरे सफ़ेद बादलों के साथ बचपन की उस बात की पुष्टि करता दिखा जब माँ ने बताया था कि “15 अगस्त और जन्माष्टमी पर बारिश ज़रूर होती है।” तभी चौराहे पर झंडा दिखा तो ये भी ध्यान आ गया कि आज 14 अगस्त है और कल है 15 अगस्त, यानि स्वतंत्रता दिवस।

सच कहूं तो बचपन में 15 अगस्त को स्वतंत्रता का मिलना और 26 जनवरी को संविधान का लागू होना एक तथ्य था, मगर हमारे लिए तो 15 अगस्त का मतलब था पतंग और 26 जनवरी का मतलब था झांकियां, जो कि सबके पापा जबरन सुबह बिठाकर दिखाते थे। भले ही किसी के घर पर केबल हो या दूरदर्शन, मगर 27 जनवरी को स्कूल में चर्चे तो झांकियों के ही होते थे और जिसके पापा ज़्यादा कड़क नहीं थे, वो बेचारा ‘left out’ हो जाता था। झांकियों के बारे में class teacher या SST की teacher भी ज़रूर पूछा करती थीं, तो इस कारण से भी इन्हें देखना ज़रूरी हो जाता था।

वैसे तो छुट्टी के दिन 9 बजे तक उठा जाता था, मगर 15 अगस्त वाले दिन सुबह 7 बजे से ही घर के बाहर नाम पुकारे जाने लगते थे, “अबे जल्दी आजा, वरना धूप आ जाएगी फिर शाम को ही पतंग उड़ा पायेंगे।” इसका मतलब ये कतई नहीं था की 15 अगस्त को धूप में पतंग नहीं उड़ाई जाती थी, मगर ज़्यादा उड़ाने की होड़ भी तो थी। उस वक़्त सबसे ऊंची छत वाले दोस्त की डिमांड एकदम से बढ़ जाती थी। कभी-कभी out होते हुए भी उसे not-out करार दे दिया जाता था।

छतों का नज़ारा इस दिन अलग ही होता था। 10-11 बजे तक लगभग हर छत पर परिवार इकट्ठे हो जाते थे। दोस्तों में जिनके घर की छत नहीं होती थी (यानी जो flat में रहते थे) वो छत वाले दोस्त के घर पहुंच जाते थे। कई दोस्तों के लुंगी-बनियान पहने पापा-चाचा भी छत पर दिखते थे (बाद में उनके सुपुत्रों की खिंचाई भी होती थी), तो कहीं-कहीं दद्दू भी छत पर देखे जा सकते थे। कई बुज़ुर्ग पार्क में बैठकर पुराना वक़्त याद कर रहे होते थे, “अरे ये भी कोई मांझा है! मांझा तो होता था अम्बरसर का, मेरी बहन की तो गर्दन कटते-कटते बच गयी थी!” ऐसे किस्से लगभग हर ‘बड़े’ के पास होते थे, जिसे हम बच्चे बड़े शौक़ से सुनते थे।

आकाश में उस दिन अलग-अलग रंग और डिज़ाइन की पतंगें उड़ती थी। नीली, लाल, कागज़ की पतंग, पन्नी की पतंग, गुड्डे वाली पतंग, पूंछ वाली पतंग, तिरंगे की पतंग, हीरो-हीरोइन की पतंग! ऊपर पतंगें और आसपास मांझे। थोड़ा फर्क पड़ता था कि किसकी ज़्यादा सुन्दर है, मगर आकाश में जाकर तो सारी पतंगें सबकी हो जाती थीं। पतंगें सबको उस दिन बराबर कर देती थी, कम से कम ‘अमीरों’ और ‘मिडिल क्लास’ को तो कर ही देती थी।

बात पैसे की जगह ‘स्किल’ पर आ जाती थी, हर घर की पतंगों के रिकॉर्ड रखे जाते थे जो अगले दिन स्कूल में साझा होने होते थे और अलग ही local hierarchy बन जाती थी। “अरे भाई गौरव की छत की सबसे ज़्यादा पतंगे, भाई सोनू की छत ने सबसे ज़्यादा पतंग लूटी है!” गली में एक घर ऐसा होता था जो कि शायद पूरी गली के सुनने के लिए (क्यूंकि आवाज़ काफी तेज़ होती थी) छत पर ही स्पीकर लगवा देता था और देश भक्ति से लेकर अलग-अलग तरह के गाने उस पर चलते रहते थे। वो बच्चे जो झुग्गियों में रहते थे (उस वक़्त हम ऐसे ही कहा करते थे, वो ‘socially sensitive’ नहीं थे ना। आज हम कहें चाहे कुछ भी, मगर बांट बेहतर पाते हैं), बड़े-बड़े झाड़ लिए पतंग लूटते रहते थे। इनमें छोटे बच्चे अक्सर पिस जाते थे या फिर वो लोग खुले मैदान से पतंग को परवाज़ देते थे। इन सबसे परे रात को चांद-तारों के बीच कंदील (candle वाली पतंग) को उड़ते देखने का मज़ा ही अलग था।

मुझे उड़ती पतंगे देखना तो पसंद था मगर ’15 अगस्त’ बिलकुल पसंद नहीं था, क्यूंकि मुझसे पतंग तभी उड़ती थी जब उसका मन हो। सब लड़के उस वक़्त 15 अगस्त के लगभग 15 दिन पहले से ही पतंगों में लग जाते थे और क्रिकेट की टीम छोटी होती जाती थी। मुझे अक्सर छतों पर या तो चरखड़ी पकड़कर खड़ा होना पड़ता था या किसी बड़े से मिन्नत करनी पड़ती थी कि पतंग उड़ा के दे दे। जिस दिन मेरी पतंग उड़ जाए तो अपनी तो 15 अगस्त को ही दीवाली, “अबे! ‘इसकी’ पतंग उड़ गयी!”

ये सिलसिला 15 अगस्त से लगभग 15 दिन पहले शुरू होकर लगभग 15 दिन बाद तक चलता था। महीने भर बाद भी आकाश में उड़ती पतंग दिखना किसी भी तरीके से चौंकाने वाली बात नहीं थी। लोग जाने कौन-कौन से त्यौहारों को पतंगों से जोड़ देते थे – “भाई! हमारे यहां तो राखी पर भी पतंग उड़ती है।” “अबे! तुझे इतना नहीं पता कि जन्माष्टमी पर पतंग उड़ाते हैं।” “हमारे यहां राजस्थान में तीज पर भी पतंग उड़ती है।” मुझे लगता था कि ये सब इन लोगों के बहाने हैं पतंग उड़ाने के और क्रिकेट ना खेलने के।

आज जब ऑफिस से घर को लौट रहा था और इन यादों से बाहर आया तो 12 किलोमीटर के आसमान में सूखे बादल तो दिखे, मगर एक भी पतंग ना दिखी। जहां पहले कभी चील का धोखा होता था और असल में पतंग दिखती थी, वहीं आज पतंग के धोखे में चील-कौए दिख रहे थे। आकाश में लहराने के नाम पर आज कनॉट प्लेस (मेट्रो चाहे उसे जितना राजीव चौक बनाए, जिन्होंने जिया है उनके लिए वो कनॉट प्लेस ही रहेगा) में लहराता तिरंगा ही याद आ रहा था, जो निसंदेह बहुत गौरवान्वित करता है। मगर वहीं जब चौक पर कैब रुकी तो 50-60, 4 फ़ुट के डंडे के साथ तिरंगे दिखे जिसके नीचे कुछ छोटे बच्चे मैले-कुचैले फटे कपड़ों में खेल रहे थे। वैसे ही कपड़ों में उनकी माएं सिग्नल पर भीख मांगने के साथ-साथ उन्हें संभाल रहीं थीं।

मन थोड़ा भारी और निराश हो चला था। घर आकर कैब ड्राईवर को पैसे देते वक़्त किसी आख़िरी चाह से आसमान को नज़रों के कोनों से देखा तो पतंग के लहराने की आवाज़ सुनाई दी। नज़रें तुरंत उठी तो आसमान में दो पतंगें थीं और उनमें से एक पर तिरंगा बना था। देखकर अच्छा लगा। लगा उम्मीद तो है, बचपन पूरी तरह खोया नहीं है। हम समझ जाएं तो आज़ादी तो मिल ही सकती है! और उसी से याद आया, आज़ादी का दिन मुबारक हो!

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