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संपत्ति पर लड़कियां अधिकार ना मांगे इसलिए पुरुषों ने रच दिया पराया धन वाला नाटक

बचपन से ही मेरी बहन को सिखाया गया कि वो पराया धन है और जो भी कुछ है वो उसके भाइयों का है। धीरे-धीरे मेरी बहन को भी ये लगने लगा कि सच में वो पराई है और शादी के बाद पति का घर ही उसका अपना घर होगा। धूमधाम से मेरी बहन की शादी हुई और मन में अपने घर का सपना लिये वो अपने ससुराल चली गई। लेकिन शादी के 20 साल बाद भी उसके पास कहने मात्र को भी अपना घर नहीं है, ना पति का घर और ना पिता का।

20 साल से घरेलू हिंसा को झेलते-झेलते उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ने लगी है, लेकिन उसके साथ हो रही हिंसा कभी कम नहीं हुई। चाहकर भी वो इस हिंसा से अलग नहीं हो पाई, क्योंकि उसके पास अपना कोई घर नहीं है। ये कहानी सिर्फ मेरी बहन की नहीं है बल्कि ऐसी लाखों महिलाओं की है जो चाहकर भी इस हिंसाचक्र से निकल नहीं पाती हैं। कारण ये कि उनके पास सामाजिक रूप से संपत्ति का कोई अधिकार नहीं है।

बचपन से ही लड़की को ये पाठ पढ़ाया जाता है कि वो पराया धन है और लड़कों को सिखाया जाता है कि वो ही घर के मालिक हैं। ये पाठ तब तक पढ़ाया जाता है जब तक कि अच्छे से याद ना हो जाए। ये सीख इतने गहरे से लड़के और लड़की के मन में बैठ जाती है कि उनके व्यवहार में भी झलकने लगती है। लड़कियों को ये सिखाया जाता है कि पति का घर ही उनका असली घर है। जब-जब महिलाओं के साथ हिंसा होती है और पति उन्हें घर से निकल जाने की धमकी देता है तो ऐसी सूरत में महिलाएं एक संकट में पड़ जाती हैं कि वो जाएं तो जाएं कहां? इसलिए हिंसा के इस चक्र से निकल पाना उनके लिए नामुमकिन सा हो जाता है।

“संपत्ति का अधिकार” परिवार और समाज में हमेशा से पुरुषों का ही एकाधिकार माना जाता रहा है। यहां तक कि महिला भी उसकी संपत्ति ही कहलाती रही है। इस पितृसत्तात्मक सोच का सीधा सा एक मक़सद है कि महिलाएं हमेशा पति, भाई या पिता यानी पुरुषों पर ही निर्भर रहें। इस निर्भरता के चक्र को बनाए रखने के लिए ही महिलाओं को आत्मनिर्भर नहीं बनने दिया जाता है। सामाजिक सोच कहती है कि अगर महिलाओं को संपत्ति का अधिकार मिल गया तो वो पुरुषों की अधीनता को स्वीकार नहीं करेंगी। यह एक आम सामाजिक धारना है कि जब बेटियों की शादी में इतना खर्च किया जाता है और दहेज दिया जाता है तो संपत्ति का अधिकार क्यों? लेकिन अगर लड़की को दिए गए दहेज की भी बात करें तो उस पर भी नियंत्रण तो पति का ही होता है।

सामाजिक रूप से ये माना जाता है कि भाई, बहन के बच्चों के पैदा होने से लेकर शादियों तक के सभी रीति-रिवाज़ों में मदद करने के लिए वचनबद्ध होता है तो फिर बहन को संपत्ति के अधिकार की क्या ज़रूरत है? आज भी अगर कोई महिला अपने हक की बात भी करती है तो उसको समाज ऐसे देखता है, जैसे उसने कोई अपराध कर दिया हो। अपने हक की बात करने वाली महिलाओं से परिवार अपना रिश्ता खत्म कर देता है और समाज में उसकी आलोचना होती है।

इन सामाजिक रीति-रिवाजों और मान्यताओं का असर कुछ इस तरह था कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम- 1956 में, पैतृक संपत्ति पर बेटियों को किसी भी तरह का अधिकार दिया ही नहीं गया था। वे अपने परिवार (मायके) से सिर्फ गुज़र-बसर का खर्च ही मांग सकती थी। इससे यह भी पता चलता है ये लैंगिक असमानता दशकों से ऐसी ही चलती आई है। काफी संघर्ष के बाद हिंदू उत्तराधिकार संशोधन कानून-2005, में महिलाओं के पिता की संपत्ति पर अधिकार की बात की गई है।

क़ानूनी रूप से बराबर होने के बाद भी महिलाओं के एक बड़े हिस्से को आज भी उनके भाई, पिता, पति या बेटे पर निर्भर होना पड़ रहा है। लैंगिक समानता का डर लिए आज भी पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं के संपत्ति के अधिकार की राह में रीति-रिवाज और मान्यताओं के नाम की अड़चनें डाल रहा है। हमें समझना होगा कि लैंगिक समानता घर तोड़ने का काम नहीं करती, बल्कि एक विकसित और प्रगतिशील समाज और देश को बनाने का काम करती है। बहुत ज़रूरी है कि हम महिलाओं को अपनी संपत्ति ना समझते हुए उनके संपत्ति के अधिकार की बात करें।

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