मेधा पाटकर और उनके सहयोगियों का अनशन जारी है। अनशन का कारण 40 हज़ार लोगों का बेहतर पुनर्वास है। ये वे लोग हैं जिनके घर और ज़मीन सरदार सरोवर बांध के प्रभावित इलाके/डूब क्षेत्र में आता है। सोशल साइट्स पर लोग लिख रहे हैं और अपने-अपने तरीके से उनसे अनशन तोड़ने की अपील कर रहे हैं। इधर कम्युनिस्ट पार्टी ने भी मेधा पाटकर से अनशन तोड़ने की अपील की है। उमा भारती ने भी ट्वीट कर अनशन तोड़ने की अपील की है। (टीवी पर कितना दिखाया गया है या दिखाने वालों के रनडाउन में जगह भी है कि नहीं पता नहीं।)
अनशन, लाठी खाना, जेल जाना यही मेधा पाटकर का जीवन रहा है। मेधा पाटकर अस्सी के दशक में नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ी थी। आज वो 62 साल की हैं, कहीं सरकारी नौकरी में होती तो रिटायर हो चुकी होती। “विकास चाहिए, विनाश नहीं” और “कोई नहीं हटेगा, बांध नहीं बनेगा” नर्मदा बचाओ आंदोलन का यही नारा है, लेकिन लोग हटे भी और बांध बना भी। क्योंकि जब सामना ‘स्टेट’ से हो तो वहां कई बार हटना पड़ जाता है।
नर्मदा नदी अमरकंटक से निकलती है और मध्यप्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र से गुज़रते हुए अरब सागर में गिरती है। इसका सबसे ज़्यादा विस्तार मध्यप्रदेश में है। बांध बनाना नेहरूवियन स्टेट का हिस्सा रहा है, प्रधानमंत्री नेहरू ने ही नर्मदा वैली प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी थी। नेहरू ने पहले बांध को मंदिर और बाद में बड़े बांधो को “A Diesese Of Gigantism” बताया। नर्मदा वैली प्रोजेक्ट का लक्ष्य मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में छोटे, बड़े और मध्यम स्तर का बांध बनाना है, जिनमें ओंकारेश्वर ,महेश्वर और सरदार सरोवर प्रोजेक्ट महत्वपूर्ण हैं। नर्मदा नदी पर बनने वाले 30 बड़े बांधों में सरदार सरोवर और महेश्वर दो सबसे बड़े बांध हैं।
सरदार सरोवर बांध 2006 में बनकर तैयार हो गया था, जिसका उद्घाटन गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था। उस वक्त इसकी ऊंचाई लगभग 121 मीटर थी, उसके बाद काम रोक दिया गया। 2014 में नरेन्द्र मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इसे 17 मीटर और ऊंचा करने का आदेश दिया गया। मतलब बांध की कुल ऊंचाई लगभग 138 मीटर हो जाएगी। बांध बनाने का मूल उद्देश्य बिजली उत्पादन और सिंचाई रहा है। गुजरात सरकार का दावा है राजस्थान के सूखाग्रस्त इलाके को भी इन परियोजनाओं से पानी मिलेगा। लेकिन इसके लिए एक कीमत चुकानी पड़ती है, पर्यावरण की कीमत। हमने उत्तराखंड आपदा को देखा था ना! बस वही कीमत। केवल मध्यप्रदेश के 192 गांव के 40,000 परिवार इस परियोजना के डूब क्षेत्र में हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने 31 जुलाई तक सभी के पुनर्वास का निर्देश दिया था, मगर अब तक कुछ भी नहीं हुआ। बांध की ऊंचाई बढ़ाने की तैयारी पूरी है नतीजतन मेधा पाटकर का अनशन जारी है। यह लड़ाई तकरीबन दो दशकों से चली आ रही है। नर्मदा वैली प्रोजेक्ट का अस्सी नब्बे के दशक में खूब विरोध हुआ था, बाबा आम्टे जैसे लोग भी इस विरोध से जुड़े। मध्यप्रदेश में नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति और महाराष्ट्र में विरोध कर रही नर्मदा घाटी धरंग्रस्था समिति एक हो गई और “नर्मदा बचाओ आंदोलन” बनी। मेधा पाटकर ने इसे अपना नेतृत्व दिया और नेतृत्व ही नहीं अपने आप को भी झोंक दिया। लेकिन मिला क्या? बांध बनाने का विरोध कर रही मेधा पाटकर अब पुनर्वास के लिए अनशन पर बैठी हैं। 2014 में लोकसभा का चुनाव लड़ीं लेकिन हार गईं।
इसका जवाब एक लाइन में देना मुश्किल है। नर्मदा से पहले भी विस्थापन हुआ था लेकिन मेधा पाटकर के इस संघर्ष ने हमें एक सोच दी है। उन्होंने हमें वैकल्पिक विकास के लिए सोचना सिखाया है, ‘विनाश की कीमत पर विकास नहीं’ यह बोलना सिखाया है।
एक 62 साल की निःस्वार्थ महिला ने हमें लड़ना सिखाया है और सिखा रही हैं। हां,अफसोस इस बात का है कि हमें निस्वार्थ संघर्ष की भाषा समझ में नहीं आती, इरोम शर्मिला को भी हमने ही तो घर बिठाया है।