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सामुदायिक लाइब्रेरी के आइडिया से इस युवा ने बदल दी सूरत के गांव की तस्वीर

“मेरी मनरेगा की कमाई 1000 ही है और उसमें सबका रहना-खाना बहुत कठिन है।”
“प्रधान जी कह रहे थे कि अभी मनरेगा में पैसा नहीं है तो अगले 3 महीने तक कुछ नहीं मिलेगा।”
“सरपंच जी को अभी शौचालय बनवाने के लिए नहीं कह सकता क्योंकि वह अपनी खेती में व्यस्त हैं।”
“रामू का भी आठवीं के बाद पढ़ने में मन नहीं लग रहा है।”
“बहुत सी समस्याएं और मज़दूरी करके मैं हल भी नहीं कर सकता।”
“रामू अब कुछ काम करेगा तो इस मिट्टी के घर को पक्का कर सकेंगे।”

यह एक अंश है, उस बातचीत का जो आपको भारत के किसी भी जनजातीय समुदाय से बात करने पर मिल सकता है। फिलहाल मैं गुजरात से बोल रहा हूं।

गत 5 सालों में सरकारी विद्यालयों में नामांकन में भारी उछाल आया है, लेकिन उच्च प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा के बाद नामांकन में समानुपाती गिरावट भी आई है। शैक्षणिक संस्थानों के कर्मचारियों से अक्सर यह बात निकलकर आती है कि संबंधित समुदाय को शिक्षा के बाबत वाजिब सहायता नहीं मिलना, बच्चों की शैक्षणिक सशक्तता में एक बड़ी समस्या है। फिर आगे उनका ही कहना है कि अधिकतर अभिभावक, जिनके बच्चे सामान्य सरकारी विद्यालयों में पढ़ते हैं, वह मज़दूरी करते हैं। दिनभर मज़दूरी करने के बाद उनके पास इतनी उर्जा नहीं होती कि वह बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दे सकें।

घबराने की कोई ज़रूरत नहीं, इल्ज़ाम किसी पर लगाया ही नहीं जा सकता। असल में लोकतंत्र की यह एक खासियत है कि इसमें सारी समस्याओं की जड़ जनता है। क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर सारे निर्णय जनता खुद करती है पर यकीन मानिए व्यवहारिक तौर पर भारतीय जनता का एक बड़ा हिस्सा तथाकथित स्वनिर्णय नहीं करता है। वह अनभिज्ञ है, कमज़ोर है और उसके प्रतिनिधि उसके दाता समान हैं। वह एक शासन करने की वस्तु बनकर रह गया है और आज भी यह स्थिति बनी हुई है। इसकी वजहें अनेक हो सकती है पर मेरे अवलोकन में मुख्यत: दो मुद्दे निकल कर आए हैं-

1- सूचना की मुख्यधारा से अलग रहना
2- जागरूक इच्छाशक्ति सुसुप्त होना

एक युवा होने के नाते मैंने तय किया कि मैं इस बड़ी समस्या, इस अंधेरे को छांटने का काम करूंगा। इसके लिए शुरूआत हुई गुजरात के सूरत जिले के महुआ तालुका के बलवाड़ा गांव से, इस गांव की 95% जनसंख्या जनजातीय समुदाय से है। सरकारी तंत्र के प्रयत्न से बिजली पानी की व्यवस्था तो ठीक है, लेकिन जनमानस में जागरूकता नहीं होने के कारण आधारभूत संरचना अपनी संकल्पना के 50% पूर्णता को भी स्पर्श नहीं कर सकी है। शैक्षणिक स्थिती का चेहरा शुरुआती उद्द्घोषो से परावर्तित किया जा सकता है।

शुरुआत उन दिनों हुई जब मैं उस जनजातीय समुदाय के साथ 30 दिनों के लिए रह रहा था। लगभग 22 जनसभाएं करने के बाद समस्याओं की एक लंबी फ़ेहरिस्त बनी। कुछ ही दिनों बाद, राजस्थान ,उत्तर प्रदेश ,बिहार जैसे अलग-अलग राज्यों में गहराई से अवलोकन करने का मौका मिला तो मैंने पाया कि समस्याओं का रूप अलग था, पर आत्मा बिल्कुल एक जैसी थी। सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि उस लंबी फेहरिस्त में अशिक्षा का ज़िक्र कहीं नहीं था। होता भी कैसे? आखिर अशिक्षा को चिन्हित करने के लिए भी तो शिक्षा और जागरूकता की ज़रूरत है।

खैर, महीने भर का दौरा खत्म कर सूरत के उसी गांव में पहुंचा और गांव के कुछ युवाओं के साथ मिलकर मैंने मूल समस्या की जड़ तक जाने की कोशिश की। वहां से यह निर्णय लिया गया कि ‘बच्चों की समझने की शक्ति’ और अन्य सभी आयु सीमा के लोगों की ‘सूचना की सीमा बढ़ाने’ पर काम करना होगा। इसके लिए यह भी निर्णय लिया गया कि पंचायत में किसी एक जगह हम सामुदायिक लाइब्रेरी बनाएंगे और इस लाइब्रेरी के संचालन के लिए गांव से ही किसी को आगे आना होगा।

इसके लिए हमने इन्टरनेट पर एक मुहीम चलाई जहां से मुझे 12 सज्जनों द्वारा 28000 रू की सहायता राशि मुहैया कराई गई। दानकर्ताओं में हमारे कुछ मित्र और कुछ विदेशी महानुभाव भी शामिल हैं।

पर अब प्रश्न यह था कि यह जनसंख्या अत्यंत निर्धन है अतः उनके उत्पादक समय का उपयोग करना भी उचित नहीं होगा। ऐसे में यह निर्णय लिया गया कि हम अभी सिर्फ बच्चों और युवाओं के अर्थ ग्रहण क्षमता को बढ़ाने के साथ-साथ लेखन क्षमता पर भी कार्य करेंगे। हम उन्हें जागरूक नागरिक पत्रकार के तौर पर विकसित करेंगे। यह करने के लिए हमने यह तय किया कि लेखन क्षमता बढ़ाने के लिए हम किसी पुस्तक का उपयोग नहीं करेंगे, बल्कि इसके लिए हम उस स्थान, उस गांव और उस प्रखंड का उपयोग करेंगे। अगला पड़ाव होगा लोगों के जीवन यापन पर प्रकाश डालना, उसके बाद हम तंत्र को लेखनी के द्वारा समझने की कोशिश करेंगे।

काम शुरू हुआ, बच्चे आने भी लगे। उसके बाद हमने युवाओं को जोड़ने की कोशिश की और एक दिन सूचना के अधिकार 2005 (RTI) पर हमने एक वर्कशॉप आयोजित की। युवाओं की संख्या भी अच्छी रही और वो लगातार आने लगे।

हम बिल्कुल इसी प्रकार से कार्य करते रहे और तब तक दो महिलाओं ने ये विचार रखा कि वो इस सेंटर पर श्रमदान देने को तैयार हैं।  उनकी भागीदारी बहुत अच्छी रही। कुछ ही दिनों में 16 किलोमीटर दूर स्थित तारकाणी नामक पंचायत में यह बात फैली और वहां से सरपंच ने इच्छा ज़ाहिर की कि उन्हें भी इस तरह की एक सामुदायिक लाइब्रेरी बनाने में मैं उनकी मदद करूं। अभी हाल ही में बगल के प्रखंड बारडोली के एक युवक ने मुझसे फोन पर कहा कि हमें भी इस तरह की लाइब्रेरी बनानी है और आप हमारी सहायता करें। इस तरह आज यह मुहिम जो एक छोटे से गांव से शुरू हुई थी, 2 प्रखंडों के 3 पंचायतों में फैल चुकी है और आगे संभावना बहुत बड़ी है।

मूल उद्देश्य है कि जिन्हें अक्षर समझ नहीं आते उन्हें बात समझाई जाए। जिन्हें अक्षर और बात दोनों ही समझ आती है उनके अंदर सूचना मांगने की आदत डालकर सरकारी योजनाओं के लागू होने के दायरे को बढ़ा सकें। इस प्रकार हम समाज की समस्याओं को समझने और उनके समाधान ढूंढने की शक्ति और सूचना मांगने की आदत पिछड़े समुदाय के युवाओं में जागृत कर रहे हैं। उम्मीद है इस प्रकार हम लोकतंत्र की पहली ईंट जिसे हम ‘पंचायत’ के नाम से जानते हैं ,को सशक्त कर सकेंगे। इस सशक्तिकरण को अगर हर पंचायत प्राप्त कर सके तो हम विकसित समाज भी बन सकेंगे।

फोटो प्रतीकात्मक है।

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