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मेरे दौर का हर बच्चा जैसे प्राण के कॉमिक्स का ही किरदार है

कार्टूनिस्ट प्राण गुज़रें और उनको गुज़रे अब तीन साल पूरे हो गये हैं। वैसे इस दौर में लोगों के गुजरने के बाद शायद ही उन्हें खोने का एहसास हमें सालता है, लेकिन ऐसे समय में भी प्राण हमकों याद रह जाते हैं तो शायद इसीलिये क्योंकि उनका गुजरना एक पूरी पीढ़ी की यादों और उनकी काल्पनिकताओं को जैसे अनाथ कर गया। हम यह समझ भी नहीं सके कि जिस शख्स के गढ़े हुए पात्रों के साथ बहते बहते हम जवानी की दहलीज तक पहुंचे और जिनमें हमने कभी अपनी  कच्ची पक्की कल्पनाओं के रंग भरे थे, वो खुद अपनी उम्र पूरी कर हमारे बीच से चला जायेगा।

शायद इसका एक कारण ये भी था कि प्राण के पात्र हमेशा उनकी छाया ही लगे, बहुत समय तक अबोध मन में ये उम्मीद भी रही कि अपने पात्रों के बहाने ही वे कहीं हमारे साथ खिलखिला रहे होंगे, खेल रहे होंगे और कहीं शायद हमारे ही साथ वे बड़े भी हो रहे होंगे। तीन साल पहले उनका जाना इन मायनों में एक कार्टूनिस्ट से इतर उनके अपने जीवन का अंतिम पड़ाव था। ज़ाहिर है कि चाचा चौधरी, साबू, पिंकी और  बिल्लू जैसे अमर पात्रों से उनको जो जीवन और उम्र मिली, उसकी दास्तां तो आने वाले कई सालों तक बयान की जाती रहेगी।

वास्तव में, उनके पात्रों में एक अजीब सा जादू था। वे देश के दूर दराज इलाकों में बैठे हुए बच्चों के जीवन और काल्पनिकताओं में भी बहुत गहराई से रच बस जाते थे।

बेशक उनके कॉमिक्स को पढ़कर हिंदुस्तान के छोटे कस्बों में बैठे बच्चे दिल्ली जैसे महानगर की एक आदर्श तस्वीर अपने दिमाग में खीचते थे।

देखा जाए तो दिल्ली तब भी वैसी नहीं थी और आज तो उसके वैसी होने की कल्पना तक नहीं जा सकती। कहने की ज़रूरत नहीं कि रोज़गार और पढ़ाई के सिलसिले में अपने छोटे कस्बों को छोड़कर महानगरों में आ गई यह पीढ़ी ही आज शहरी जीवन के अंर्तविरोधों में सबसे ज़्यादा कसमसाहट महसूस करती है, लेकिन यही प्राण की खासियत थी कि वे कस्बों और शहरों के इस दूरी की भरपाई अपने पात्रों को बिलकुल आम और देसी रूप देकर कर देते थे।

नतीजतन, उनके पात्रों के बहाने महानगरों के रोज़मर्रा के जीवन से महसूस होने वाली अजनबियत कहीं बहुत धुंधली पड़ जाती थी। वैसे ये कौन भूल सकता है कि साठ और सत्तर के दशक में भारत में  कॉमिक्स का कोई अपना कोई लोकप्रिय बाज़ार नहीं था। बच्चों की पत्रिकायें ज़रूर थीं, कुछ विदेशी कॉमिक चरित्र भी थे, खुद प्राण ने अपने पात्रों को गढ़ने का काम इन्हीं पत्रिकाओं से शुरू किया था, लेकिन भारतीय चरित्रों वाली कॉमिक्स का कोई कच्चा नक्शा भी तब शायद किसी कार्टूनिस्ट के दिमाग में नहीं था।

प्राण की कल्पनाशीलता की यात्रा इन मायनों में बहुत जोखिम भरी भी थी। इस जोखिम से वो शायद पूरी तरह अंजान भी नहीं रहे होंगे, लेकिन उन्होंने प्रयोग करने जारी रखे।

चाचा चौधरी के रूप में एक भदेस सा चरित्र चुना, उसे पगड़ी पहनायी और उसके दिमाग को कंप्यूटर से भी तेज़ बताकर हमें एहसास कराया कि अंततः इंसान ने ही मशीनों को बनाया है।

साबू, पिंकी और बिल्लू ऐसे चरित्र थे जो प्राण ने खास आयु वर्ग के बच्चों को ध्यान में रखकर गढ़े, उनकी शरारतों, कल्पनाओं, जिज्ञासाओं में उसी के अनुसार उन्होंने रंग भी भरे।

प्राण के सह चरित्र झपटजी, बजरंगी पहलवान, गब्दू, जोजी, धमाका सिंह भी खूब लोकप्रिय हुए। दरअसल, प्राण के चरित्रों की दुनिया में लगभग हर आयु वर्ग के लोग शामिल होते थे। पिंकी सिर्फ अपने संगी सथियों के साथ ही नज़र नहीं आती, वह अपने पड़ोसी झपटजी को तंग करती है, पास ही रहने वाले किसी वैज्ञानिक के पास अपनी अबूझ पहेलियां लेकर पहुंचती है, ज़रूरत पड़ने पर अपने दादाजी को नुस्खे भी सुझाती है। इन छोटी छोटी कहानियों में कई बार वह दूसरों के काम आती ही तो कई बार मुसीबतें भी खड़ी करती है।

प्राण के ये चरित्र समय बीतने के साथ साथ भारत की कॉमिक्स की दुनिया में एक नई कहानी बुन रहे थे। विदेशी पात्रों वाली कॉमिक्सों के उलट ये कहानी सिर्फ महानगरों में ही नहीं, बल्कि छोटे छोटे कस्बों में भी बुनी जा रही थी।

मेरी पीढ़ी के बच्चों की सुबहों, दोपहरों और शामों की ये कॉमिक्सें सबसे वफ़ादार दोस्त थी। अपनी वफ़ादारी की ये कीमत कई बार हमने डांट और पिटाई खाकर भी चुकाई।

कॉमिक्सों की इस दौर की ऐसी बहुत सी यादें साझा किस्म की हैं। फिर चाहे कस्बों में इन कॉमिक्सों को पचास पैसे या एक रूपये में किराये पर लेकर पढ़ना हो या फिर अपनी प्रिय चीजों के बदले इनका लेन देन करना हो, सब कुछ जैसे किसी डोर की तरह हमें जोड़ता था।

आज पलटकर उस दौर की ओर देखने पर महसूस होता है कि प्राण के चरित्रों की तरह हम भी उस दौर के पात्र ही थे। फर्क बस इतना है कि हमारी कहानियों को बुनने वाली वो कॉमिक्सें अब सिर्फ हमारी यादों में हैं और उनके रचयिता चाचा प्राण ये दुनिया छोड़कर जा चुके हैं।

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