आज जब अध्यात्म और विज्ञान के मिश्रण से अधकचरे दिमाग को तैयार करने की मानसिकता उफान ले रही है, ऐसे में वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित सही समझ क्या हो, इस पर चर्चा ज़रूरी है। फिर भी युवाओं से मैं उम्मीद करता हूं कि वे विज्ञान की सही समझ हासिल करने के लिए न्यूटन, फैराडे, गैलेलियो, ब्रूनो, स्पाइस सरीखे तमाम शिक्षाविद और वैज्ञानिकों को ज़रूर पढ़ेंगे और विचार करेंगे।
विज्ञान और अध्यात्म दो परस्पर विरोधी चिंतन हैं, जिनका मिश्रण कतई संभव नहीं है। जो भी लोग धर्म व विज्ञान दोनों की वकालत करते फिर रहे हैं, वे धूर्त हैं।
वे ना केवल विज्ञान विरोधी हैं, वरन समूची मानवता के हत्यारे भी हैं। ज़रा अतीत में झाकिए और देखिए कि विज्ञान पर हमले करने वाले लोग कौन थे? तब ब्रूनो को जलाने वाले और आज पनसारे, दाभोलकर और कलबुर्गी का कत्ल करने वाले कौन लोग हैं? आखिर तर्क और सवालों से इतनी बुरी तरह डरे और खौफ खाए ये कौन लोग हैं?
जवाब सबको पता है। लोगों में ऐसे ही अंधविश्वास बना रहे, इसके लिए आज क्या-क्या नहीं किया जा रहा है। तरह-तरह के फॉर्मूले इजाद किए जा रहे हैं, लगातार उन्हें विभिन्न माध्यमों से प्रोत्साहन दिया जा रहा है, वह भी एक खास रणनीति व सुनियोजित तरीके से। लोगों का ध्यान उनकी बदहाली के मूल कारणों तक ना जाए, इसका सत्ता पक्ष बड़ा ध्यान रखता है और इधर-उधर के फालतू कारणों को उनके समक्ष समय-समय पर किसी ना किसी रूप में प्रस्तुत करवाता रहता है। धर्म की भी आज काफी हद तक यही भूमिका रह गयी है।
एक समय धर्म ने लोगों को दासता से मुक्त होने में एक हद तक मदद कर अपनी प्रगतिशील भूमिका निभाई थी, किंतु आज यह शोषण का हथियार होने से ज़्यादा और कुछ नहीं रहा। तब वैज्ञानिक चिंतन अपनी भ्रूण अवस्था में था, उसे चर्च, पोप और धर्माधिकारियों के हमले सहने पड़े थे। औद्योगिक क्रांति नहीं हुई थी। यूरोपियन नवजागरण के बाद इसमें तेज़ी आई जिसका अपना पूरा इतिहास है। लेकिन ये तमाम हमले और पाबंदियां क्या इसे रोक पाई? आज भी या हमले कम नहीं हो रहे। हम धार्मिक अंधविश्वासों में पड़कर देश को किस गर्त की और ले जा रहे हैं?
शिक्षण संस्थानों को वैज्ञानिक चिंतन से दूर ढकेल कर अंधविश्वास पर आधारित ढांचे पर खड़ा करने की मुहिम ज़ोरों पर है। आने वाली पीढ़ियों को फिर से भगवान भरोसे छोड़ने की घृणित साजिश चल रही है। जरा इत्मिनान से सोचियेगा कि आज की पृष्ठभूमि में देवी-देवताओं को पात्र बनाकर कोई फिर एक नया ग्रंथ रच दे, जिसमें चमत्कारिकता के अलावा और कोई तत्व ना हो, तो क्या आने वाली पीढ़ी सच्ची घटना मानकर उस पर आंख मूंदकर विश्वास कर लेगी? अगर यही चलता रहा तो इसमें संदेह नहीं कि कर भी ले।
मीडिया के माध्यम से अंधविश्वास और अंधभक्ति से भरे अनसाइंटिफिक प्रोग्राम डिज़ाइन किये जा रहे हैं।
इस बात की गंभीरता को एकदम स्पष्ट और साफ-साफ समझने के लिए, ना केवल समझने के लिए बल्कि इस पर एक राय बनाने के लिए भी, अलग से किसी विशेष ज्ञान या तालीम की ज़रूरत नहीं है। इसे समझने के लिए केवल व्यवहारिक रूप से एक खास दृष्टि या दृष्टिकोण की ज़रूरत होगी और वह दृष्टिकोण है- परीक्षण-निरीक्षण के बाद ठोस तर्कों पर आधारित “वैज्ञानिक चिंतन”।
मतलब ये कि जो बातें या धारणाएं विज्ञान संगत ना हो, उन्हें बिना किसी मोह के खारिज कर देना ही उचित होगा। कोरी-कपोल कल्पना के लिए हमारे मस्तिष्क में कोई जगह ना हो। तभी सही रूप में एक उन्नत समाज का निर्माण संभव होगा। हो सकता है इसमें गलती होने की गुंजाइश रहे, बहुत संभव है कि गलतियां होंगी भी, पर हम उनसे सीख लेकर सही चीज़ों के साथ आगे बढ़ पाएंगे। हालांकि फिर भी बहुत सचेत रहने की आवश्यकता होगी। तभी इन गलतियों को पुनः दूर भी किया जा सकेगा।
हममें से बहुत से लोग ‘वस्तुवाद’ और ‘भाववाद’ के मूल द्वंद को नहीं पकड़ पाते और सब अपनी-अपनी तरह से उसकी अलग ही व्याख्या करने लगते हैं। इसलिए किसी भी वस्तु, घटना या विचार के संबंध में हमें यह ध्यान रखना होगा कि किसी भी बात, विचार या तथ्य पर उसके विषय में कोई ठोस राय बनाने से पहले उसके परीक्षण का यंत्र क्या है? यह तार्किक है या नहीं, अच्छी तरह ठोक-बजा लेना होगा। गौरतलब है कि आज मानव विकास के क्रम में जिसने, अपनी सबसे बड़ी भूमिका अदा की है, वह ‘विज्ञान’ और ‘वैज्ञानिक चिंतन’ ही है।
हम सभी जानते हैं कि आज हमारे पास विज्ञान ही एकमात्र ऐसा उपकरण है, जो बिना किसी का पक्ष लिए दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है। विज्ञान जैसे-जैसे विकास करता जाएगा वैसे-वैसे ही हमारे अनगिनत सवालों के जवाब आप ही मिलते जाएंगे। अर्थात हम सत्य के और करीब आते जाएंगे।
इस तरह से देखें तो हम जान पाएंगे कि ना सिर्फ ब्रह्माण्ड में बल्कि प्रकृति में, भौगोलिक परिस्थितियों में, देश-समाज, हमारे आस-पास यहां तक कि हममें, हमारे रहन-सहन, रूचि-संस्कृति, संस्कार, बात-व्यवहार, सोचने-समझने के ढंग आदि में भी रोज़ नए बदलाव हो रहे हैं। यह बदलाव या तो मात्रात्मक हो सकते हैं या गुणात्मक। मात्रात्मक परिवर्तन इतनी सूक्ष्म गति से होते रहते हैं कि एक समयावधि के बाद ही दिखलाई पड़ते हैं। वैज्ञानिक चिंतन से लैस सूक्ष्म पारखी व्यक्ति (हालांकि बहुत कम ही) इस मात्रात्मक परिवर्तन को भी देख सकने में सक्षम होते हैं।
एक विज्ञान के विद्यार्थी को तो कम से कम इस बात से इनकार तो नहीं ही होना चाहिए। अर्थात विज्ञान का यह नियम समाज पर भी लागू होता है, समाज इससे अछूता हो ऐसा संभव नहीं है। इस तरह समाज में हो रहे नित्य नए बदलावों के विषय में हमें यदि जानना है कि ये किस तरह, क्यूं और कैसे हो रहे हैं तो इसे जानने के लिए भी हमें विज्ञान के ही पास जाना होगा।
साहित्यकार शरतचंद्र कहते हैं – “ईश्वर की चौखट पर सर धुनने से कहीं लाख अच्छा है, विज्ञान का दरवाजा खटखटाना।”
जैसे- विज्ञान के द्वारा तत्वों में होने वाले बदलाव, उनके गुण- प्रकृति आदि का अध्यन करके उसे विभिन्न कार्यों- दवा- दारू, बैटरी, ईंधन आदि बनाने के प्रयोग में लाया जाता है। भौतिकी परिवर्तनों का अध्ययन करके- पंखे, टीवी, बिजली, फोन आदि उपकरण हम अपनी सुविधा के लिए बना लेते हैं। चिकित्सा आदि के क्षेत्र में भी जो विकास हो रहा है, वह मानव शरीर की संरचना, इसमें होने वाले बदलाव, रोगों के कारण और निवारण आदि का अध्ययन करके ही हम बड़े-बड़े आपरेशन्स, सर्जरी, ट्रांसप्लांट आदि कर पा रहे हैं।
ठीक वैसे ही समाज में होनेवाले तमाम परिवर्तनों को हम तभी जान पायेंगे, जब हमारे पास ठोस तर्कों पर आधारित एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण होगा। अगर सही रूप में परिक्षण-निरीक्षण के आधार पर वैज्ञानिक चिंतन द्वारा, सामाजिक परिवर्तन के मूल कारणों की जड़ों को अगर हम पकड़ पाएं तो इनमें (परिवर्तनों में) जो खामियां हैं, उन्हें दुरूस्त भी कर सकेंगे और इसे मानवता के हित तक भी ले जाया जा सकेगा।
इसे कुछ इस तरह से समझ सकते हैं- जैसे आज़ादी के आन्दोलन के समय जो मानवीय मूल्यबोध देश में जिस स्तर तक भी उभर कर सामने आया था, उससे प्रेरणा लेकर और उन्नतम स्तर हासिल करना तो दूर, जितना था उतने तक की भी रक्षा हम नहीं कर पाए। और आज हम कहां हैं? नैतिकता का और कितना पतन देखना अभी बाकी है? व्यक्तिगत स्वार्थ और व्यक्ति केन्द्रित मानसिकता ने हमें जकड़ लिया है।
इन तमाम समस्याओं की जड़ खोजें तो इनका मूल कारण ढूंढ पाने में, हमें कोई और दर्शन मदद नहीं कर सकता। तब हमारे सामने केवल एक ही रास्ता नज़र आता है, और वह है- द्वंदात्मक भौतिकवाद पर आधारित स्वतंत्र वैज्ञानिक चिंतन का। इसी रास्ते हमें हमारे तमाम प्रश्नों के जवाब मिलेंगे। साथ ही अधिकांश समस्याओं की जड़ तक पहुंच कर ही इसका समाधान भी निकाला जा सकेगा। इससे ही समाज से कुतर्कों और अंधविश्वासों को खत्म किया जा सकता है। बस ज़रूरत है हमें इस दिशा में ही सही चर्चा और बहस के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों में वैज्ञानिक चिंतन के बीज रोपण करने की। यही कल के उन्नत समाज के निर्माण व मानव मुक्ति का रास्ता होगा। यही विज्ञान के प्रति सच्चे अर्थों में हमारी निष्ठा और कर्तव्य-परायणता होगी।