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शरद बाबू आपका इतिहास आपको नीतीश कुमार को गलियाने की इजाज़त नहीं देता

जॉर्ज फर्नांडीज और शरद यादव से ज़्यादा बड़ा पाखंडी कौन हो सकता है। गैर काँग्रेसवाद की लंबी और कठिन तपस्या को जनता पार्टी के ढाई वर्ष के शासन के बाद ही जॉर्ज फर्नांडीज ने ठिकाने लगा दिया था। दोहरी सदस्यता का मुद्दा अचानक उठाकर उन्होंने कांग्रेस विरोधी दलों की ऐसी कलहप्रिय इमेज बना डाली कि इसके बाद इंदिरा गांधी निश्चिंतता से ज़ोरदार बहुमत लेकर सत्ता में वापस आ गईं। अगर उनकी हत्या न हुई होती तो जनता पार्टी के समय जार्ज फर्नांडीज जैसे सोशलिस्टों की हरकत की वजह  से ही विपक्ष जनमानस में इतनी ज्यादा साख गंवा चुका था कि इंदिरा गांधी ही 1984-85 के चुनाव में रिपीट करतीं।

जॉर्ज फर्नांडिज और लालकृष्ण आडवाणी के साथ शरद यादव

जब सामाजिक न्याय की लड़ाई अपनी तार्किक परिणिति पर पहुंचने वाली थी, जिसके लिए सोशलिस्टों के पूर्वजों ने संघर्ष में अपने को पूरी तरह कुर्बान किया था उसे धता बताते हुए दोहरी सदस्यता का मुद्दा भूलकर जॉर्ज फर्नांडीज ने ही जनता दल की गंगा को भाजपा की कर्मनाशा में विलीन करने की पहल की। इस पहल में उनके प्रमुख सहयोगी शरद यादव थे। शरद इस बात का श्रेय लेते रहते हैं कि उनके दबाव की वजह से ही वीपी सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की थी। जबकि हकीकत यह है कि जनता दल के समय उनकी गिनती दिग्गजों के जमावड़े में छुटभैये की ही थी।

जब उन्होंने पाला बदल किया तो देवीलाल ने ललकारते हुए कह दिया था कि जिसके पास खुद को पहनने को कपड़े नहीं थे, उसे मैंने ही कपड़ा मंत्री बनवाया और शरद यादव के मुंह से इसके प्रतिवाद में कोई बोल नहीं फूट सके थे।

शरद यादव उस समय यह भी कहते रहे थे कि मंडल को फेल करने के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने संघ के इशारे पर रथयात्रा निकालकर कमंडल को आगे किया है। तो जब उनके विचार में भाजपा कमंडलवादी पार्टी थी, फिर मंडल के होकर वे भाजपा के साथ जनता दल तोड़कर क्या करने चले गये थे।  आज उन्हें नीतीश कुमार द्वारा भाजपा के साथ गलबहियां करने पर सिद्धांत याद आ रहे हैं तो सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली की कहावत याद आने लगती है।

नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ वापसी करके अच्छा किया या बुरा, यह विचार का एक अलग मुद्दा है, लेकिन शरद यादव से तो उन्होंने उसी समय हिसाब चुकता करने का मन बना लिया था जब जीतनराम मांझी उनके खिलाफ झंडा उठाए हुए थे और शरद की पूरी शह इसमें थी। दरअसल शरद यादव परजीवी नेता रहे हैं इसलिए यह उनकी नियति है कि जिनको उन्होंने उभारा वे रफ्तार पकड़ने के बाद बोझ समझकर उनका जुआ फेंकने को आतुर हो उठे।

इमरजेंसी के पहले जबलपुर के उपचुनाव में सेठ गोविंद दास जैसी हस्ती को मात्र 25 साल की उम्र में हराकर शरद यादव ने देश की राजनीतिक बिरादरी को बुरी तरह चौंका दिया था। जिससे वे प्रसिद्धि के शिखर पर रातोंरात विराजमान हो गये थे। धर्मयुग जैसी पत्रिका ने उस समय शरद यादव पर कवर स्टोरी छापी थी जो कि बहुत बड़ी बात थी। लेकिन यह केवल एक संयोग मात्र था। बाकी आगे चलकर शरद यादव जिस तरह से पेश आये उससे उन्होंने हमेशा ही यह साबित किया कि उन्हें जो गरिमा उनको सेठ गोविंद दास को हराने की वजह से प्राप्त हुई थी उसका आतप बर्दाश्त करने का न तो शऊर है और न सामर्थ्य।

77 की जीत का कोई मायने नहीं था क्योंकि इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी के टिकट पर खंभा भी खड़ा हो गया तो जनता ने उसे जिता दिया था। लेकिन 75 से लगातार संसद में रहने की वजह से दिल्ली में सेटिंग-गेटिंग का खेल शरद यादव खेलना अच्छी तरह सीख गये। इसलिए उनकी राजनीतिक दुकान चल पड़ी। क्षमताओं की कमी की वजह से जबलपुर का निर्वाचन क्षेत्र उनके लिए बहुत दिनों तक मुफीद नहीं रह सका। नतीजतन जनता दल के दौर में वे मुलायम सिंह का पल्लू पकड़कर यूपी में आ गये और बदाऊं से लोकसभा पहुंच गये।

लालू यादव, शरद यादव और मुलायम सिंह यादव

उन्होंने और मुलायम सिंह ने ही बिहार में लालू को पहली बार मुख्यमंत्री बनवाया, लेकिन बहुत जल्द ही जब मंडल के मुद्दे पर शरद यादव और लालू की मुलायम सिंह से ठन गई तो मुलायम सिंह मेरी बिल्ली मुझही से म्याऊं का रुख अख्तियार कर उन्हें उत्तर प्रदेश से खदेड़ने पर आमादा हो गये। नतीजतन जो लालू कभी उनके कृपापात्र थे बिहार में जगह बनाने के लिए उन्हें लालू का कृपापात्र हो जाना पड़ा। लेकिन लालू भी बहुत जल्द ही नेता पर भरोसे की सीमाएं समझ गये। इसलिए लालू से उनका अलगाव लाज़मी हो गया। उस दौर में उन्होंने जॉर्ज की छाया में अपने को सुरक्षित किया।

नीतीश उस समय पालन-पोषण के दौर में थे। करियर मैनेजमेंट के मामले में वे भी शरद से दो पनहिया आगे रहे हैं इसलिए निश्चित रूप से वे बेहद ही कैलकुलेटिव हैं। उन्हें जब तक वटवृक्ष की ज़रूरत थी तब तक जार्ज फर्नांडीज और शरद यादव उनके लिए माई-बाप रहे। मुख्यमंत्री के रूप में सुशासन बाबू का खिताब हासिल कर लेने के बाद नीतीश को अब अपने हिसाब से फैसले करने की ज़रूरत महसूस होने लगी। इस बीच जॉर्ज फर्नांडीज असाध्य रोगशैय्या पर पहुंचकर विलीन हो गये।

सही बात यह है कि जो शरद यादव आज धर्मवेत्ता की दुहाई दे रहे हैं उनका 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा से अलग होने का बिल्कुल मन नहीं था।

इस बीच उन्होंने कांग्रेस में भी ठीकठाक सेटिंग कर ली थी,जिसकी बदौलत मनमोहन सिंह ने कुछ मुद्दों पर उन्हें रिझाने के लिए उन्हें बेस्ट सांसद के सम्मान से अलंकृत करा दिया था। हालांकि उनका इतिहास कुछ दूसरा ही था। संयुक्त मोर्चे की सरकार के समय जब एक बार क्रांतिकारी भाषण देते हुए संसद में उन्होंने बुद्ध को 5 हजार वर्ष पहले का बता दिया था, उस समय बड़ी जगहसाई हुई थी। तो 2014 के लोकसभा चुनाव में परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं जिनसे राजनीतिक पंडित यह कह रहे थे कि स्पष्ट बहुमत शायद ही किसी को मिले। ऐसे में भाजपा के सहयोग से सर्वस्वीकार्यता के आधार पर प्रधानमंत्री का पद हथियाने का मंसूबा उन्होंने भी संजो लिया था और नहीं तो राष्ट्रपति की अपनी दावेदारी तो वे पक्की मान ही रहे थे।

मोदी के धमाकेदार आगाज़ से उन्हें यह आभास तो हो गया था कि संघ ने भाजपा में नेतृत्व बदल का जो पासा फेंका है उससे शायद प्रधानमंत्री की रेस के समीकरण बदल जाएंगे, लेकिन जब राजनाथ सिंह आंकलन नहीं कर पाये थे तो शरद यादव के लिए तो यह संभव था ही नहीं कि वे सोच पाते मोदी कितने बड़े बाज़ीगर साबित होंगे। जो सरकार बनाने के लिए किसी के समर्थन की गर्ज अपनी पार्टी के लिए रहने ही नहीं देंगे।

बहरहाल राजग के संयोजक थे। सोच रहे थे कि मोदी जोड़तोड़ करके प्रधानमंत्री बन जाएंगे। लेकिन राष्ट्रपति का ताज उनको उन्हीं को राजग की मज़बूती के लिए पहनाना पड़ेगा।

पर नीतीश ने सारा दूध दही कर दिया। शरद यादव की उन्होंने एक नहीं चलने दी और गुजरात दंगों के दोषी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने की वजह से वे भाजपा के खिलाफ फैल गये। उनका अपना गणित था। वे सोच रहे थे कि हंग पार्लियामेंट में कांग्रेस एचडी देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल की तरह उन्हें प्रधानमंत्री के मौका देने के लिए मजबूर हो जाएगी। खैर न शरद यादव के मन की हुई न नीतीश कुमार की और मोदी मुकद्दर के बेजोड़ सिकंदर साबित बनकर कहां पहुंच गये, यह अब इतिहास का हिस्सा है।

इसी की सज़ा देने के लिए नीतीश कुमार द्वारा बनाये गये हडाऊ मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को भाजपा के साथ मिलकर उनके खिलाफ उकसाने का दरबारी षड्यंत्र शरद ने रचा पर दांव कारगर साबित नहीं हुआ। नीतीश ने अपनी गद्दी वापस ले ली। इसके बाद चुनाव हुआ, महागठबंधन बना तो उसमें भी शरद का कोई श्रेय नहीं रहा। नीतीश जीतनराम मांझी के कंधे पर रखकर शरद यादव द्वारा गोली चलाने के प्रयास को लेकर तो उनसे खफा थे ही, वे इस बात से और ज़्यादा खफा हो गये कि शरद यादव ने बड़ी अम्मा बनकर जनता दल परिवार की एकता के लिए मुलायम सिंह के सिर पर मौर रखा था।

नीतीश कुमार के साथ शरद यादव

मुलायम सिंह भाजपा से मिल गये और अपने उम्मीदवार खड़े करके उन्होंने जितनी हो सकती थी नीतीश की राह रोकने की कोशिश की। इसके बावजूद शरद यादव के मुंह से मुलायम सिंह के खिलाफ बोल नहीं फूटे इसलिए नीतीश कुमार ने चुनाव के बाद जनता दल यू के अध्यक्ष का ताज भी शरद यादव के सिर से छीनकर खुद ही पहन लिया और पार्टी पर उनका सर्वाधिकार स्थापित हो गया। शरद इससे छटपटाए तो बहुत लेकिन वे जान गये थे कि बिहार दूसरे का घर है जिसमें बहुत ज्यादा टांग अड़ाकर आगे वे राजनीतिक सर्वाइव नहीं कर पाएंगे। इसके बावजूद शरद नहीं संभले।

एक बार वे फिर मुलायम सिंह को आका बनाकर जनता दल परिवार की एकता का ख्वाब तराशने समाजवादी पार्टी के सिल्वर जुबली सम्मेलन में लखनऊ पहुंच गये। नीतीश को मुलायम सिंह की दगाबाज़ी की इतनी ज़्यादा कचोट थी कि उनका शरद के खिलाफ असंतोष और ज़्यादा उबाल खाता गया। शरद यादव मंडल के मसीहा थे लेकिन उन्होंने अपने को संकुचित दायरे में कैद कर लिया।

वे तमाम विरोधाभासों के बावजूद लालू और मुलायम सिंह के साथ बिरादरी गत गठजोड़ बनाने में लगे रहे इसलिए नीतीश का और ज्यादा सशंकित होते जाना लाज़मी था।

अस्तित्ववादी नीतीश महागठबंधन तोड़ने का फैसला तो बहुत पहले कर चुके थे। लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनज़र उन्होंने इसमें वक्त लिया। उन्हें यह आशंका थी कि अगर उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के पहले गठबंधन तोड़ा तो कांग्रेस और लालू मिलकर शरद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना देंगे। जिससे शरद जीत पाते न जीत पाते लेकिन उनका कद समकालीन राजनीति में विराट बनकर उभर सकता था। शरद को गच्चा देने के लिए उन्होंने भाजपा से मोहलत ले ली, हालांकि इस बीच उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा का ही काम बनाया।

जहां तक लालू की बात है उनका यह आरोप सही है कि तेजस्वी और मीसा के ठिकानों पर जो छापेमारी हुई उसमें नीतीश की भाजपा के साथ पूरी तरह मिलीभगत थी। लालू मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के पहले दिन से ही सैद्धांतिक लंगोट के मामले में पक्के हैं इसलिए उनका मामला शरद से बिल्कुल अलग है। लेकिन किसी सैद्धांतिक लड़ाई के लिए बहुत कुर्बानियों की ज़रूरत होती है। जिसकी सावधानी रखने के मामले में लालू नितांत कच्चे रहे। उन्होंने अपनी सिद्धांतनिष्ठा के सारे पुण्य भ्रष्टाचार और परिवारवाद के परनाले में बहा डाले।

सांप्रदायिक और सामाजिक वर्चस्ववादी शक्तियों से संघर्ष में निर्णायक सफलता सार्वजनिक जीवन की उच्चतम परंपरा और मूल्यों की परवाह किए बिना संभव नहीं हैं। आपने मंडल की लड़ाई पर डटे रहकर वंचित कौमों पर कोई अहसान नहीं किया इसलिए आपको इस लड़ाई को लड़ने के नाम पर मनमानी की छूट नहीं दी जा सकती। नेताओं द्वारा छूट लेने की वजह से ही सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति का ज़बर्दस्त स्खलन हुआ और पुनरुत्थानवादी ताकतें लोकतांत्रिक राजनीति के इतिहास में सबसे ज़्यादा मज़बूती के साथ केंद्र में स्थापित हो गईं। लेकिन राजनीति की यह दिशा देश के बहुसंख्यक अवाम के खिलाफ है इसलिए बहुत जल्दी ही इन सफलताओं का धूमकेतु की तरह अंत होना तय है।

अगर इस राजनीति के मौजूदा कर्णधार व्यक्तिगत हितों के लिए इसका दुरुपयोग करने से बाज नहीं आते तो कुछ दिनों नये निष्कलंक नेतृत्व की प्रतीक्षा करना ही मुफीद है जो निश्चित रूप से उदित होगा और वही नेतृत्व स्थायी कामयाबी हासिल कर पाएगा।

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