Site icon Youth Ki Awaaz

तीन तलाक पर फैसले के बाद मुस्लिम महिलाओं से जुड़े अन्य मुद्दें भी सुलझेंगे?

एकसाथ तीन तलाक़ को उच्चतम न्यायालय की 5 सदस्यीय बेंच ने गैरसंवैधानिक घोषित कर दिया और केंद्र सरकार को इस पर 6 महीने में क़ानून बनाने को कहा है। उच्चतम न्यायालय ने उम्मीद जताई कि केंद्र जो कानून बनाएगा उसमें मुस्लिम संगठनों और शरिया कानून संबंधी चिंताओं का खयाल रखा जाएगा। वहीं अगर 6 महीने में कानून बनकर तैयार नहीं हुआ तो सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश जारी रहेगा। ऐसे में एक बात तो तय है कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर जो जीत हुई है, वो कहीं ना कहीं तलाक़ से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर भी एक बार फिर से चर्चा को अनिवार्य बना देगी।

गुज़ारा भत्ता से सम्बंधित प्रावधान

1985 का बहुचर्चित शाहबानो केस, जिसमें 62 वर्षीय शाहबानो को गुज़ारा भत्ता देने से इंकार कर दिया था। इस मामले में उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले में कहा गया कि सीआरपीसी की धारा-125 जो पत्नी, बच्चे और अभिभावक के गुज़ारा भत्ता से सम्बंधित प्रावधानों को समाहित करती है, हर किसी पर लागू होती है। फिर मामला चाहे किसी धर्म या सम्प्रदाय से जुड़ा क्यों ना हो।

लेकिन इसके ज़बरदस्त विरोध के कारण सरकार ने उच्चतम न्यायालय के फैसले को पलटते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधानों के तहत केवल चार माह दस दिनों तक ही मुस्लिम महिलाओं को गुज़ारा भत्ता का हक़दार माना। हालांकि आगे चलकर 2001 में डेनियल लतीफ बनाम भारतीय संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने गुज़ारा भत्ता की अवधि को इद्दत तक सीमित करते हुए कहा कि गुज़ारा भत्ता की राशि समुचित और पर्याप्त हो ताकि जीवन काल की ज़रूरतें पूरी हो सकें। ऐसे में वर्तमान फैसले में जो क़ानून बनाने की बात की जा रही है, उसमें ये पक्ष महत्वपूर्ण होगा कि तलाक़ पर बनाए जाने वाले कानून में गुज़ारा भत्ता से सम्बंधित प्रावधानों का स्वरूप क्या होगा?

समान नागरिक संहिता और मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह

सरकार के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों से जुड़े स्वयंसेवी संगठन, उच्चतम न्यायालय के इस फैसले को एक बड़ी जीत मान रहे हैं। ऐसे में लाज़मी है कि समान नागरिक संहिता और मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह जैसे मसलों पर भी एक कानूनी पहल की जा सकती है। हालांकि इन मुद्दों पर भी मतभेद देखने को मिलता है। मुस्लिम धर्म पर आधारित क़ानून के पैरोकार इसे धार्मिक आस्था से जोड़ कर दिखा रहे हैं और संविधान के अनुच्छेद 25, 26 और अनुच्छेद 29-30 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का पक्ष रख रहे हैं। वहीं इसके विरोध में ये तर्क दिया जाता है कि मानवाधिकार से जुड़े मामलों का धर्म और उसे अपनाने की स्वतंत्रता का इससे कोई लेना-देना नहीं है।अगर ऐसा है तो बाल विवाह पर रोक लगाने वाला शारदा कानून, मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा बाल विवाह की मंजूरी के बावजूद हिन्दू और मुस्लिम दोनों पर समान रूप से लागू नहीं होता।

आज ये प्रश्न भी उठता है कि मानवाधिकारों से जुड़े सवाल को किसी धार्मिक संस्था पर छोड़ना कहां तक जायज़ है? ये पुरानी बात थी जब संस्था के अभाव में विभिन्न कार्य धार्मिक संस्थाएं देखती थी, जिनका आधार भी धार्मिक होता था। लेकिन आधुनिकता की ओर अग्रसर समाज की ज़रूरतें भी बदलती हैं और इससे लोगों की अपेक्षाएं भी। आज के जटिल समाज में किसी भी समस्या के लिए एक उचित संस्था की ज़रुरत है। ऐसे में मुस्लिम महिलाओं के अधिकार से जुड़े मुद्दे को धर्म आधारित संस्थाओ पर कैसे छोड़ा जा सकता है? कई मुस्लिम देशों ने बहुविवाह पर प्रतिबंध लगा रखा है, सर्वप्रथम इसकी पहल 1926 में तुर्की ने की थी। लिहाज़ा इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस पर एक सार्थक पहल की आवश्यकता है।

नए क़ानून को लागू करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य

किसी विषय पर कानून बनाना और उसे लागू करना एक और चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा का प्रतिशत काम है, वहीं मुस्लिम महिलाओं की ग्रामीण आबादी, शहरी आबादी से कई गुना ज़्यादा है ऐसे में किसी क़ानून की सामाजिक स्वीकृति भी ज़रुरी होती है। महिलाएं कई सामाजिक बंधनो से घिरी हैं, साथ ही समाज में उनके उचित प्रतिनिधित्व की भी कमी है।

ऐसे में किसी नए क़ानून को लागू करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा जिसका अंदाज़ा हम इस बात से लगा सकते हैं की घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 को 10 वर्षों से भी ज़्यादा समय के बाद भी प्रभावी रूप से लागू नहीं किया जा सका है। तीन तलाक़ पर आया उच्चतम न्यायालय का फैसला मुस्लिम महिलाओं के लिए एक तत्काल राहत की बात है पर इसकी सार्थकता तभी होगी जब इस पर एक प्रभावी कानून लाकर उसे लागू भी किया जाए।

सकारात्मक सोच और पहल की ज़रूरत

बढ़ती शिक्षा, माइग्रेशन और बदलती सामाजिक-आर्थिक संरचना के कारण कई मानवाधिकारों को लेकर चर्चा होती रही है। साथ ही ये धार्मिक और रूढ़िवादी कानून वर्तमान बहुजातीय एवं बहुसांस्कृतिक समाज की वास्तविकताओं एवं आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। किसी एक सर्वमान्य कानून के अभाव में सामाजिक बिखराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, ऐसे में उच्तम न्यायालय का ये फैसला एक सकारात्मक पहल साबित होगा।

यह सच है की जन्मदर नियंत्रण, गर्भपात और दत्तक-ग्रहण नियमन (एडॉप्शन) भावनात्मक मुददे हैं, जिन्हे सावधानीपूर्ण सुलझाया जाना चाहिए। लेकिन यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि धार्मिक और अन्य आधारों पर मानवाधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए। उच्चतम न्यायालय का वर्तमान निर्णय, कानूनी जीत के साथ-साथ एक भावनात्मक जीत भी है, जिससे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ रहे लोगों को एक भावनात्मक बल मिलेगा। साथ ही यह उनमें मुस्लिम महिलाओं के अन्य मुद्दों को लेकर एक सकारात्मक सोच भी पैदा करेगा। लिहाज़ा मुस्लिम महिलाओं के लिए उच्चतम न्यायालय का निर्णय तत्कालीन राहत की बात तो है, पर ये जीत पूर्ण तभी मानी जाएगी जब केंद्र सरकार एक प्रभावी क़ानून को लागू कर सके।

Exit mobile version