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उस दिन पता चला शिक्षा के नाम पर कैसे ठगी जा रही हैं लड़कियां

नए साल की प्रवेश प्रक्रिया के दौरान सेवापूर्व शिक्षक पाठ्यक्रम या बी.एड. में प्रवेश की इच्छुक कुछ महिला अभ्यर्थियों के शिक्षा संबंधी अनुभवों को जानने का मौका मिला। ये अनुभव हमारी शिक्षा व्यवस्था की अनदेखी परतों को उजागर करते हैं। खासतौर पर महिलाओं की उच्च शिक्षा की स्थिति को जानने में मदद करते हैं। इस साक्षात्कार में शामिल हुई लगभग सभी छात्राएं उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के दूर-दराज के गांव-खेड़ों से आई हुई थीं। इनमें गृहणियों की भी काफी संख्या थीं जो ‘खाली समय’ में कुछ करने के लिए इस कोर्स में प्रवेश लेना चाहती थीं।

ज़्यादातर विद्यार्थियों ने साक्षात्कार की औपचारिकता के अनुसार शिक्षण के प्रति रूचि को अपनी प्रेरणा का मूल बताया। इससे इतर इन विद्यार्थियों ने दबी जु़बान में जिन कारणों की चर्चा की वे शिक्षा की सफलताओं और विफलताओं से परिचित कराती हैं। जो महिलाएं इस साक्षात्कार में शामिल हुईं उनमें से ज़्यादातर ने बताया कि वे केवल कक्षा 10 तक ही विद्यालय गई थीं। इसके आगे उन्होंने घर पर रहकर पढ़ाई की। ‘घर रहकर पढ़ाई करने’ की व्याख्या करते हुए इन लोगों ने बताया कि परीक्षा के एक हफ्ते पहले पिता या भाई इन्हें प्रश्न बैंक उपलब्ध करवा देते थे। इसे पढ़कर वे परीक्षा पास कर जाती थीं। ऐसे अभ्यर्थियों की औसत अकादमिक उपलब्धि 53 से 58 प्रतिशत के आस-पास थी।

ज़ाहिर है कि उनकी यह उपलब्धि उनकी खुद की मेहनत का नतीजा है, जिसे इन लोगों ने ‘प्रश्न बैंक’ नामक हथियार से साधा। इसमें कक्षा-शिक्षण, पुस्तकालय, ट्यूशन और विद्यालय में होने वाली किसी अन्य गतिविधि का कोई योगदान नहीं है। विद्यालय ना जाने के कारणों के बारे में बताते हुए इन लोगों ने कहा कि ‘काॅलेज घर से दूर था’, ‘सुरक्षा कारणों से घर वालों ने घर से दूर जाने की अनुमति नहीं दी’ और ‘पिता की आर्थिक स्थिति को देखते हुए घर से पढ़ाई की।’ ये कारण समाज की पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति को दर्शाते हैं, जहां लड़कियों की शिक्षा प्राथमिकता में नहीं गिनी जाती है। इसके लिए ख़ास तौर पर उनकी सुरक्षा का हवाला दिया जाता है।

ऐसी स्थिति में शिक्षा की आवश्यकता और सामाजिक जड़ताओं के बीच ‘घर रहकर’ औपचारिक शिक्षा को जारी रखने का हल खोजा गया है। यह तरीका लड़कियों की उच्च शिक्षा में नामांकन दर को तो बढा़ता है, लेकिन उच्च शिक्षा में भागीदारी के अभाव में शिक्षा के उद्देश्य कारगर नहीं हो पाते हैं। एक संस्थान में दिन का नियत समय पढ़ाई-लिखाई की गतिविधि को समर्पित करना, अपने जैसे अन्य साथियों के साथ अनुभवों को साझा करना जैसी गतिविधियां विद्यार्थी की समझ को व्यापक बनाती हैं। उनमें सूझ-बूझ का तार्किक और आलोचनात्मक नज़रिया पैदा करती है। देश-दुनिया के प्रति संवेदनशील और जागरूक करती है।

इस तरह की भागीदारी के अभाव में इन लड़कियों के पास बी.ए. की डिग्री तो थी, लेकिन समाज का सामना कर पाने का आत्मविश्वास नहीं था। घर की चौखटे में रहकर अर्जित डिग्री ने उनकी आत्मनिर्भरता में कोई योगदान नहीं किया। तभी तो आगे की पढ़ाई का निर्णय उनके अभिभावकों, विशेषकर पिता, भाई और पति द्वारा लिया गया था। इन लड़कियों के जीवन का फैसला पुरुषों द्वारा लिया जाता है। इस तरह से परिवार और समाज में इनका दोयम दर्जा शिक्षा की पहुंच के बाद भी बना हुआ है।

लड़कियों की शिक्षा के इस स्वरूप को निजी क्षेत्र ने लाभ कमाने का माध्यम बनाया है। निजी संस्थान प्रवेश के समय अधिक फीस लेते हैं साथ ही कक्षा ना करने की छूट भी देते हैं। इस तरह से कक्षा सहित अन्य गतिविधियों के आयोजन की धनराशि को वे लाभ में बदल लेते हैं। उपाधि के साथ अंकों को अधिक कैसे रखा जाए? इस समस्या का रास्ता वे प्रायोगिक विषय जैसे-गृह विज्ञान, भूगोल, संगीत आदि के चुनाव से पूर्ण करते हैं। रूचि और रूझान होने के बावजूद विज्ञान और वाणिज्य वर्ग के विषय चुनने के बदले इन्हें कला वर्ग के विषय चुनने पड़ते हैं। इनमें से भी अधिकांश ने हिंदी का चुनाव किया था। उन्हीं के शब्दों में ‘इसे कम पढ़ाई में पास किया जा सकता था।’

उच्च शिक्षा के औपचारिक अनुभव का अभाव उनके कमज़ोर विषय ज्ञान में प्रकट हुआ। उनके आम बोलचाल की भाषा में अकादमिक शब्दावली और प्रश्नोत्तर की दक्षता नहीं थी, लेकिन दुनियादारी का ज्ञान था। वे अपने अपने गांव और समुदाय की विशेषताओं-भाषा, तीज-त्योहारों के बारे में विस्तृत जानकारी रखती हैं। बी.एड. की डिग्री के बारे में इनका मानना था कि ‘ये कम पैसे में अर्जित की जा सकने वाली प्रोफेशनल’ डिग्री है।

इस ‘कम पैसे’ के विशेषण को दो तरह से समझने की ज़रूरत है। पहला इनके परिवार की पृष्ठभूमि और दूसरा लड़कियों की शिक्षा पर खर्च ना करने की इच्छा। इस ‘कम खर्च’ का सुखद परिणाम अपने राज्य या जिले में ही सरकारी नौकरी मिलना हो सकता है। नहीं तो ये निजी विद्यालय में भी ‘सम्मानजनक नौकरी’ के लिए भी तैयार हैं। देख सकते हैं किस तरह से शिक्षण कार्य को स्त्रियों के लिए अनुकूल मानने का लोक विश्वास इन छात्राओं के विचार और व्यवहार को निर्देशित कर रहा है।

कुछेक विद्यार्थियों, खासकर गृहणियों ने बताया कि वो बिना प्रशिक्षण के निजी विद्यालयों में शिक्षण का कार्य कर रही थीं। उनका अनुमान है कि बी.एड. की डिग्री के बाद उनकी तनख़्वाह में वृद्धि होगी। कुल मिलाकर दूर-दराज के इलाकों में रहने वाली लड़कियां, जिनके परिवारों की आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं हैं औपचारिक शिक्षा के इस तरह के रास्तों से अपने भविष्य की राह तलाश रही हैं।

इस राह में शिक्षा की सफलता यह है कि इनमें यह विश्वास पैदा हुआ है कि ये डिग्री हासिल करने के बाद वो अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हैं। लेकिन विफलता यह है कि शिक्षा से जिस ज्ञान और मूल्यों की कल्पना की जाती है, वो इन तक नहीं पहुंच रहे हैं। सफलता यह है कि नामांकन की दर तो बढ़ गयी लेकिन विफलता यह है कि इसके माध्यम से निजी क्षेत्र पैसा बना रहे हैं और पढ़ने-पढ़ाने के स्थान पर नंबर पाने का जुगाड़ चल रहा है।

सफलता है कि लड़कियों के लिए रोज़गार के अवसर खुले हैं, विफलता है कि श्रम की कम कीमत के कारण शोषण की संभावना बढ़ी है। सफलता यह है कि सार्वजनिक स्थलों और संस्थानों पर आबादी का आधा हिस्सा आगे निकल कर आया है, लेकिन विफलता यह है कि शैक्षिक संस्थानों में समान अवसर के लिए सुरक्षा और संवदेनशीलता के अभाव में अनेक मौन बंदिशें लगी हुयी हैं।

सफलता यह है कि उनमें आत्मनिर्भर और स्वतंत्र होने की ललक जगी है, लेकिन विफलता है कि उनके शैक्षिक अनुभव किसी दूसरे के द्वारा लिए गए निर्णयों का नतीजा हैं। इन सफलताओं और विफलताओं के बीच यही कामना है कि एक दिन आज़ादी की इच्छा सम्मिलित रूप से सामाजिक जड़ताओं और प्रतिरोधों को तोड़ेगी और इस बदलाव के बीज शिक्षा परिसरों में ही पड़ेगें।

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