“तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आंचल से परचम बना लेती हो अच्छा था।”-असरारूल हक़ मजाज़
किसी में गजब का साहस है, किसी की क्षमता बेमिसाल है, कोई सेल्फी गर्ल है, कोई मेक-अप गर्ल है, तो कोई ईंट से ईंट बजाने में माहिर है। JNU कि लड़कियां वो लड़कियां है जिनसे बात करते समय आपको अपना गूगल पेज को ऑन और किताबों में रीड मार्कर लगाए रखने की ज़रूरत है। क्योंकि वो यह साबित करती हैं कि हक की बराबरी की बात करने वाली लड़कियों को समाज किस नज़रिये से देखती है? ये वो लड़कियां हैं जो अपने हक और आज़ादी के लिए बाप से लेकर खाप तक की ऐसी-तैसी कर सकती हैं।
ये वो लड़कियां है जो मैरिटल रेप पर भी अपनी अलग राय रखती हैं और कैंपस में कंडोम के गिनती पर भी बेबाक बोल रखती हैं और बताती हैं कि JNU देश की पहली यूनिवर्सिटी थी जहां पर कंडोम की वेंडिंग मशीने लगाई गई थी।
जहां कि लड़कियों को हुक्मरानों के वज़ीरों ने कहा, JNU में यौन शोषण की घटनाएं अधिक होती हैं तो जवाब भी मिला कि सच है कि JNU में यौन शोषण की घटनाएं होती हैं पर उससे निपटने का JNU का अपना तरीका है इसलिए लड़कियां सामने आकर शिकायत भी करती हैं और दोषी पाये जाने पर शिक्षक, छात्र और प्रशासन का कोई भी व्यक्ति दंडित भी होता है।
शायद इसलिए सिल्वर स्क्रीन के सितारे भी JNU के कायल हैं कि यहां कि लड़कियां सामाजिक बराबरी के साथ-साथ मर्द और औरत से इंसान बनने की बात को समझती हैं। यहां कि लड़कियां बराबरी के अपने हक के लिए सड़कों पर वॉटर कैनन की मार भी झेलती हैं और साईबर मीडिया पर अश्लील ट्रोलबाजों को उनकी कुंठाओं का आईना भी दिखाती हैं।
JNU कि फिजा पिछले कुछ दिनों से नुरा-कुश्ती के बाद बदल सी गई है इससे कोई गुरेज नहीं कर सकता है, वो क्लासरूमों में पढ़ाई को लेकर नहीं बदली है वो अभी भी वैसी ही है। तभी तो वर्तमान सरकार के कई रिपोर्टों ने ही इसे बेहतर शोध संस्थान माना है। बदली है यहां कि वो फिज़ा जो शाम के चार बजों के बाद ढ़ाबों पर बहसों के दौर से गुलजार होती है और देर रात तक चलती थी। अब चंद ढ़ाबे ही रात कि चाय के साथ वाय को परोसते है क्योंकि हजूर ख़ास ने मुनादी करवा रखी है।
इन बदलती फिज़ाओं और JNU में टैक की बहसों के बीच में यहां के छात्रसंघ चुनाव जिसके चुनावी मॉडल का रिकमनडेशन जे.एम.लिंग्दोह ने भी किया था। इस बार ख़ासो-आम में चर्चा का विषय रहा। JNU की छात्र राजनीति ने भारतीय राजनीति के चरित्र को हमेशा ठेंगा दिखाने की कोशिश की है। यहां इस बार के छात्रसंघ के चुनाव में छात्र समुदाय ने वो नज़ीर पेश की जिसको पेश करने में तमाम राजनीतिक दल ऊपर से कुछ और होते है और अंदर से ठंडे बस्ते में डाल कर जिप भी बंद कर देते है।
JNU के छात्र संगठनों ने इस बार के चुनाव में सिर्फ महिला उम्मीदवारों को दंगल में उतारा। महिला अध्यक्ष बनने से परिस्थिति और राजनीति में बदलाव आता है या नहीं इसका पता तो बाद में चलेगा। पर यह चुनाव कई परतों को खोलता है और सोचने को मजबूर भी करता है। ज़ाहिर है पकी पकाई राजनीति की जगह जेएनयू के छात्र समुदायों ने संघर्ष की राजनीति को लीड करना स्वीकार किया है।
JNU कैंपस की राजनीति में चुनावी वादे राष्ट्रीय राजनीति के तरह बदलते नहीं रहते हैं। देश और देश नागरिकों के सामने शिक्षा संस्थानों के फंड कट की खबरों को मुख्यधारा में लाने के लिए JNU की राजनीति का अभारी ज़रूर होना चाहिए। कैंपस के मुद्दे, मेस के खाने की गुणवत्ता, लैगिंक समानता की लड़ाई, सामाजिक न्याय का वादा और पिछड़े तबके के छात्रों को भेदभाव से मुक्ति दिलाना हमेशा से बहस के मुद्दे हर साल दिखते हैं। खटमल की समस्या, वाइवा के अंकों का तर्कहीन वितरण, छात्र सुरक्षा और शिक्षण संस्थानों पर सरकारी आक्रमण के खिलाफ मुहिम जैसे मुद्दे सभी संगठनों के मध्य अपनी विचारधारा और प्राथमिकता के जोड़ घटाव में आगे पीछे होते रहते हैं।
इन सारे मुद्दों के अंदर भी कुछ विषय इस तरह के हैं जो हर संगठनों के अंदर समाज के सत्ता संरचना और सामाजिक संरचना के रास्ते से जगह बनाते है। जिनपर तमाम प्रोगेसिव तरीके से बात करते हुए भी उसको केंद्र से हाशिये पर लाने की कोशिश होती रहती है। तमाम छात्र संगठन जाति, वर्ग, लिंग और धर्म के विषयों पर बहस करते हुए, स्वयं को बेहतर बताते हुए भी अपने अंदर के वर्चस्वशाली व्यवहारों को जड़ से उखाड़ फेंकने का दावा नहीं कर सकती है। ज़ाहिर है तमाम छात्र संगठन समाजीकरण के इस पाठ से संघर्ष भी कर रहे हैं और कभी-कभी इसको प्रमोट भी करते रहे हैं। तभी यहां के छात्रों को जाति सूचक उपनाम से पुकारना बुरा भी लगता है तो किसी के पहचान का टूल भी है।
इन तमाम जोड़-घटाव, गुणा-गणित और कैंपसों में सेंसरशिप के दौर में JNU कैंपस में पसमांदा लड़कियां, जो बमुश्किल ही उच्च शिक्षा तक भी पहुंच पाती हैं और पहुंचने के बाद जातिगत और अकादमिक शोषणों को झेलती है, उनके आगे आने की भी आहट सुनाई दे रही है।
यह आहट कैंपस के छात्र-राजनीति के लिए ही नहीं, देश की छात्र-राजनीति में सामाजिक समन्वय और समानता की लड़ाई में कई सवालों को उधेड़ेगा, जिन सवालों को हल्के से नहीं लिया जा सकता है। पर मूल सवाल यह भी है कि छात्रसंघ चुनावों में पसमांदा छात्राओं की भागीदारी क्या सामाजिक समन्वय और समानता के लक्ष्य को पाने का कारगर तरीका है? या विचारधारा के संघर्ष में मूल सवाल हाशिये पर ही रहेंगे।
फोटो प्रतीकात्मक है, आभार – Getty