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परिवारवाद और पैसे की राजनीति के बीच निर्मला का रक्षा मंत्री बनना सुखद है

भारत जैसे देश में जहां महिलाओं की शिक्षा का स्तर आकंड़ों में दम तोड़ रहा हो। जहां राजनीतिक दलों, न्यायिक व्यवस्था, सिविल सेवाओं, और ट्रेड यूनियन में महिलाओं की भागीदारी नाममात्र की हो और जहां एक बड़ी संख्या में शिक्षित महिलाएं “ग्रेजुएट महिला सर्वेंट” के रूप में घरों की हाउस वाईफ हैं। वहां केंद्रीय मंत्रीमडल में ही नहीं सामाजिक, निजी संस्थाओं और समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी, प्रतिनिधित्व और उपलब्धियों के अपने अलग मायने हैं। क्योंकि वो ना केवल खुद को साबित करती हैं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बेड़ियों को तोड़ने के साथ-साथ आधी आबादी के लिए फुट प्रिंट भी तैयार करती हैं।

मौजूदा केंद्र सरकार के मंत्रीमंडल में स्मृति इरानी के बाद निर्मला सीतारमण ऐसी दूसरी मंत्री है, जिन पर साईबर स्पेस में सबसे अधिक लाईक, कॉमेंट और शेयर देखने को मिल रहे हैं। हालांकि मौजूदा सरकार में उनके महिला होने की छवि को भी ग्लोरिफाई किया जा रहा है। विचारधाराओं में सहमति नहीं होने पर प्रतिनिधित्व में महिलाओं की हिस्सेदारी पर इस तरह की बयानबाज़ी, समाज की उसी मानसिकता की पर्तें खोलती है, जो महिलाओं की हिस्सेदारी, प्रतिनिधित्व और किसी भी उपलब्धि को पचा नहीं पाती है।

पुरुषों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में एक लंबे अरसे बाद भारत में किसी महिला का रक्षा मंत्री बनना, परंपराओं को तोड़ने का सराहनीय प्रयास है। भारत के अतिरिक्त दुनिया के कई अन्य देशों में भी महिलाओं ने इस परंपरा को तोड़ा है। गौरतलब है कि शेख हसीना (बांग्लादेश), एनएम नकुला (दक्षिण अफ्रिका), जेनी हेन्निस (नीदरलैंड), आर.ओमामो (केन्या), एनएमई सोर्रडिया (नार्वे), उर्सुला वान डेर लेयेन (जर्मनी), मेरिस पेन (आस्ट्रेलिया), मारिया डोलोरेस डे कोस्पेडल (स्पेन), फ्लोरेंस पार्ली (फ्रांस) और रोबर्टा पिनोटी (इटली) में रक्षा मंत्री के पद पर महिलाएं ही काम कर रही हैं। विश्व में सबसे पहले रक्षा मंत्रालय, चिली देश ने एक महिला को सौंपा था जिनका नाम- विवियानी ब्लान्लो सोज़ा था।

विचारों में सहमति या असमति एक महिला के संघर्ष को चाहे वो किसी भी जाति, वर्ग या धर्म से आती हो कम नहीं कर सकती है, क्योंकि लैंगिक असमानता का दोहरापन एक ही तरह से काम करता है। यह भी एक सच्चाई है कि जाति, वर्ग या धर्म के आधार पर लैंगिक असमानता के पैमाने अलग-अलग होते हैं, जिसे चाय को खौलाने वाली आंच की तरह कम-ज़्यादा किया जाता रहता है। हम सभी जानते हैं कि सानिया मिर्ज़ा के टेनिस खेलने को लेकर मुस्लिम धर्म गुरुओं के तर्क किस तरह के थे। इसी तरह के तर्क सभी आम महिलाओं के सन्दर्भ में भी दिए जाते हैं, जब वो बनी बनाई परिपाटियों को तोड़ती हैं और सामाजिक सरंचना को चुनौती देती हैं।

भारतीय सामाजिक संरचना में जेंडर और सामाजिक भेदभाव का इतिहास काफी पुराना है। समय-समय पर इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, जो सिद्ध करती हैं कि सामाजिक सरंचना में जेंडर संवेदनशीलता का विकास नहीं के बराबर हुआ है। वास्तव में हमारे सामाजीकरण ने हमारे दिमाग में यह बात कूट-कूट कर भरी है कि केवल राजनीति ही नहीं, किसी भी क्षेत्र के लिए महिलाएं बनी ही नहीं हैं। वो बस घर में हाथ बंटाने के लिए ही होती हैं। जबकि महिलाओं के आगे आने से राजनीति में ही नहीं, कई क्षेत्रों में ऐसे बदलाव हुए है जो मिसाल हैं।

महिलाओं के आगे आने से परिवार और समाज के अनेक नियम कायदों में बदलाव भी हुए हैं, तीन तलाक और मेरिटल रेप इसका अच्छा उदाहरण हैं। इस तरह के बदलाव की गुंजाइश अभी कई मोर्चों पर है। तमाम लोकसभाओं और विधानसभाओं में महिलाओं के वोट प्रतिशत में इज़ाफा इस बात को सिद्ध करता है कि आधी आबादी अपनी स्थिति में बदलाव देखना चाहती है।

इस बात में कोई गुरेज़ नहीं है कि सत्ता-संघर्ष और पुरुषवादी वर्चस्व के खेल में महिलाओं की क्षमताओं को जाने-अंजाने में अनदेखा किया जाता रहेगा। धीरे-धीरे इसे अपने अंत के तरफ बढ़ने में अभी काफी वक्त लगना है। भले ही महिलाओं की उपलब्धियां बहुत छोटे स्तर पर ही हो, लेकिन भविष्य में कई महिलाओं के लिए ये रास्ता खोलने का काम ज़रूर करेंगी। महिलाएं अभी जिस खेल का हिस्सा हैं, उस खेल में निर्णायक स्थिति में पहुंचने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर महिलाओं को अपने दहलीज़ से बाहर आने के लिए लंबे संघर्ष की ज़रूरत है।

यह रास्ता अभी इतना लंबा है कि इस पर छोटी-मोटी उपलब्धियों से अपने अंदर ऊर्जा का संचार तो किया जा सकता है, पर रुका नहीं जा सकता। कई रिपोर्टों में भी दावा किया गया है कि औरतों को मर्दों की बराबरी के लिए अभी एक-दो नहीं बल्कि कई सदियों का इंतज़ार करना होगा। महिलाओं को घर की राजनीति में परिपक्व होकर देश की राजनीति में सहभागिता और प्रतिनिधित्व के लिए आगे आना होगा। परंतु, इस सफर में हमें महिलाओं के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़ा होने की ज़रूरत है। उनकी हौसला अफज़ाई की ज़रूरत है।

देश की आधी आबादी और खासकर युवा पीढ़ी के लिए यह एक आदर्श उदाहरण हो सकता है कि जिस राजनीति में पैसा और परिवारवाद अपने चरम पर है, वहां निर्मला सीतारमण जैसी एक मध्यवर्गीय परिवार की महिला भी अपनी अलहदा और नई पहचान बना सकती हैं।

फोटो आभार: getty images 

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