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फिर वही कहानी

एक बार फिर ऐसे हालात पैदा हुए हैं कि महिला सुरक्षा और महिला सशक्तीकरण का मुद्दा बीच में आया है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू) में छेड़छाड़-यौन शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाली लड़कियों पर लाठियाँ भाँजी गईं तो 2012 का दिसम्बर याद हो आया जब दिल्ली में निर्भया हत्याकाण्ड के मामले में विरोध दर्ज करते युवाओं पर पानी बरसाया गया था वाटर कैनन के इस्तेमाल के रूप में। तब से अब तक महिलाओं के साथ हिंसा की घटनाएँ लगातार सामने आती रही हैं। यह बात और है कि इन में से कुछ ही हैं जो बड़े पैमाने पर चर्चा का मुद्दा बनी हैं – दो तो पिछले दो महीनों के दौरान ही। एक, चण्डीगढ़ में वर्तिका के साथ हुई  घटना और दूसरा डेरा सच्चा सौदा के गुरमीत सिंह के केस का निर्णय।

कैसा है ये समाज और सरकार जो एक तरफ़ तो पूरे ज़ोर-शोर से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की बात करता है और दूसरी तरफ़ जब लड़कियों की सुरक्षा और आज़ादी का मसला सामने आता है तो इस तरह के बयान आते हैं (जैसा कि ‘इण्डियन एक्स्प्रेस’ में छपे बी.एच.यू. के कुलपति के साक्षात्कार में आया -http://indianexpress.com/article/india/bhu-lathicharge-if-we-listen-to-every-girl-we-cant-run-university-says-bhu-v-c-girish-chandra-tripathi-uttar-pradesh-yogi-adityanath-4861285/) कि प्रत्येक लड़की के लिए तो सुरक्षा मुहैया नहीं करवाई जा सकती, और लड़कों और लड़कियों के लिए एक सी, बराबर ‘सिक्योरिटी’ नहीं हो सकती।

असल बात तो यह है कि नारा लगाया जाता है बस वोट बटोरने या सत्ता में बने रहने के लिए। आप ने कह दिया ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ – यानी भ्रूण हत्या बन्द हो और बेटी को शिक्षित किया जाए। सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि राज्य क्या क़दम उठा रहा है महिलाओं के प्रति सोच और मानसिकता को बदलने के लिए? पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम के स्तर पर हमारी शिक्षा व्यवस्था में क्या बदलाव लाए गए हैं जिस से एक विद्यार्थी लड़का और लड़की की बराबरी की बात को समझ कर आत्मसात कर सके? स्कूल-कॉलेज में कितनी संस्थाएँ ऐसी हैं जहाँ लड़का और लड़की को मिलने-जुलने-एक दूसरे को जानने-समझने, मिल कर काम करने के मौक़े मिलते हों जिस से लड़के को लड़की एक ‘अजूबा’ किस्म का प्राणी न हो कर उसी की तरह का एक इन्सान नज़र आए? कितना काम किया जाता है इस बात पर कि लड़की ख़ुद को किसी पुरुष पर निर्भर और आश्रित रखने की मानसिकता की बजाए एक स्वतन्त्र प्राणी की तरह पेश आ सके? कितना काम किया जाता है लड़कों को जेण्डर के मसले पर संवेदनशील बनाने के लिए?

असल में तो यह लम्बे दौर का काम है। 70 साल की आज़ादी के बाद हम यहाँ पहुँचे हैं कि अब लड़कियों के नौकरी करने, वाहन चलाने, अपनी मर्ज़ी से घर से बाहर निकलने पर अजीब तरह की हैरत नहीं व्यक्त की जाती। मगर यह भी अभी शायद शहरों पर ही ज़्यादा लागू होती बात है। छोटे शहरों में लड़की का जींस पहनना भी शायद आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता। शुरुआत तो शिक्षा व्यवस्था में ऊपर चर्चा में लाई गई बातों के बदलाव से ही होना होगी। एक पीढ़ी जब जेण्डर के मसले पर संवेदनशील होते हुए शिक्षित हो कर निकलेगी तो वह शायद घरों-परिवारों में भी उस बदलाव को लाएगी। आज के दिन तो घरों में लड़कियों को संघर्ष करना पड़ता है अपने माता-पिता की मानसिकता और सोच-समझ के तौर तरीक़ों से। जब जेण्डर-संवेदी लड़कियाँ  स्वयं – और लड़के – माँ-बाप होने की अवस्था में पहुँचेंगे तो उन के बच्चों को वह संघर्ष नहीं करना पड़ेगा।

जब तक यह नहीं होगा, तब तक बी.एच.यू जैसी घटनाओं के होने पर अधिकारियों की तरफ़ से ऐसे ही बयान आएँगे और साक्षात्कार दिए जाएँगे जैसे कि अब आए।

शायद हमारे शिक्षाविद – कुलपति, प्राचार्य, आचार्य, शिक्षक – इन मुद्दों पर सोचना ही नहीं, कुछ करना शुरू करें तो कुछ बात बनना शुरू हो।

मगर जब तक यह नहीं होता, तब तक क्या हो? घटनाएँ तो ऐसे ही घटती रहेंगी। बार-बार। और हम कहेंगे – ‘फिर वही कहानी’? बस यह कह कर बैठ जाएँ या प्रतिरोध हो, और तगड़ा हो?

-रमणीक मोहन

 

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