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विज्ञान संस्थाओं के फंड कम करके गौमूत्र पर शोध क्यों कर रही है सरकार

विगत तीन वर्षों में बहुत सारे क्षेत्र हैं जिसमें होने वाले सरकारी खर्चों में कटौती की गई है, एक-एक करके सरकारी उपक्रमों को निजी हाथो में सौंपा जा रहा है। वैज्ञानिक शोध व अनुसंधान का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। इस वर्ष 15 अगस्त को दिए गए अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने 2022 तक देश को “न्यू इंडिया” बनाने की बात कही थी, लेकिन पर्दे के पीछे की सच्चाई यह है कि शोध संस्थानों के बजट में सबसे ज़्यादा कटौती इसी सरकार के शासनकाल में हुई है।

भारत में शोध संस्थानों पर खर्च वैसे ही कम है, हमारी GDP का केवल 0.85 % ही शोध कार्यों पर खर्च किया जाता है, जो कि बिलकुल भी पर्याप्त नहीं है, अब इसे और भी कम कर दिया गया है।

आज की तारीख में भारत के वैज्ञानिक शोध संस्थान वित्तीय संकट का समाना कर रहे हैं। CSIR ( काउंसिल फॉर साइंटिफिक एड इंडस्ट्रियल रिसर्च ) के डायरेक्टर जनरल गिरीश सहानी ने  इस वर्ष जून में देशभर के लगभग  38 प्रयोगशालाओं व शोध केन्द्रों के निदेशकों को लिखे अपने पत्र में यह कहा था कि वर्ष 2017-2018 में  वैज्ञानिक अनुसंधानों को पारित 4063 करोड़ रुपये  के बजट में से केवल 202 करोड़ रुपये ही नए रिसर्च प्रोजेक्ट्स पर खर्च करने को बाकी हैं। चूंकि CSIR अभी वित्तीय समस्याओं से जूझ रहा है इसलिये, अब संस्थानों को अपने खर्चे निकालने के लिए “बाहरी स्त्रोतों” पर विचार करना होगा।

अब इसे संयोग तो नहीं कहा जायेगा कि शोध संस्थानों के ऐसे हालात विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय के उस फैसले के ठीक दो साल बाद हुए हैं जिसमें यह कहा गया था कि शोध संस्थान अपना 50 फीसदी खर्च बाहरी माध्यम से निकाले। दरअसल विज्ञान व तकनीक मंत्रालय ने जून 2015  में  देहरादून में हुए दो दिवसीय “चिंतन शिविर” के बाद ऐसे कुछ फैसले लिए थे, जिसे “देहरादून डेक्लेरेशन” के नाम से जाना जाता है। इसमें यह स्पष्ट  निर्देशित किया गया है कि शोध संस्थान अपने खर्चो का 50% खुद ही निकाले। साथ ही इस बात पर भी बल दिया गया था कि ऐसे संस्थान जो वैज्ञानिक शोध व अनुसंधान कार्यो से संबंधित है उन्हें सेल्फ फाइनेंसिंग या स्ववित्त पोषित शोधकार्य  शुरू करने होंगे, व हर माह यह रिपोर्ट भेजते रहना होगा की उनके द्वारा हो रहे शोध केंद्र सरकार के “सामाजिक व आर्थिक एजेंडे” पर खरे उतर रहे हैं या नहीं।

यानी एक तरफ तो केंद्र सरकार शोध संस्थानों पर हो रहे खर्चे घटा रही है वहीं दूसरी ओर उनकी स्वायत्ता को भी सीमित कर रही है।

केंद्र सरकार इस बात की गहरी निगरानी रखेगी कि तमाम शोध व अनुसंधान कार्य उसके “एजेंडे” के मातहत हो। यानी वैज्ञानिक के स्वतंत्र विचार जो वैज्ञानिक अनुसंधानों की पूर्व शर्त होते है, एक प्रकार से उसे खत्म किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले भारत में शोध कार्यों के हालात बहुत ज़्यादा अच्छे थे पर जो थोड़े बहुत अच्छे शोध कार्य होते भी थे , सरकार की इन नयी नीतियों से वे खत्म हो जायेंगे।

इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि यह प्रयोगशालाओं में हो रहे अनुसंधानो को अगले दो सालों के भीतर “फॉर प्रॉफिट” या “लाभ के लिए” उपक्रमों में  बदल दिया जाए। इसके अतिरिक्त सारे वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं व शोध केन्द्रों को लागत-लाभ विश्लेषण पर आधारित कॉर्पोरेटनुमा राजस्व मॉडल तैयार करना होगा।

यानी अब देश के वैज्ञानिक इस बात पर सोचेंगे कि किस किस्म के अनुसंधानो से ज़्यादा मुनाफा व राजस्व आ सकता है! अगर इसी प्रकार शोध के क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा दिया जाता रहा तो विषम परिस्थितियां पैदा हो सकती हैं। अब ज़ाहिर सी बात है निजी क्षेत्र उन्हीं शोधों को बढ़ावा देगा जिनसे उसे त्वरित मुनाफा मिलने की उम्मीद है। जैसे अभी भारत में दो सेक्टरों, रसायन उत्पादन तथा ऑटोमोबाइल सेक्टर में मुनाफे की संभावना ज़्यादा है तो निजी क्षेत्र के निवेशक इनमें ज़्यादा निवेश करेंगे। ज़रा सोचिये ऐसे अनुसंधान केन्द्रों का क्या होगा जो एग्रो-प्रोसेसिंग या तारा भौतिकी जैसे विषयों पर शोधकार्य कर रहे हैं। क्योंकि इनमें कोई त्वरित मुनाफा नहीं दिखता है , इसलिए निजी क्षेत्र इनमे निवेश नहीं करेगा, इसका परिणाम यह भी हो सकता है कि फंड की कमी के कारण कालांतर में ऐसे  शोध संस्थान व रिसर्च प्रोजेक्ट्स बंद भी हो जाएं।

देहरादून डेक्लेरेशन के आने के बाद से शोध संस्थानों के बजट में 2000 करोड़ तक की कमी आयी है। अगर डिपार्टमेंट ऑफ़ एटॉमिक एनर्जी (डी.ए.इ) के मातहत चलने वाले BARC (भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ) व TIFR (टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ्न्डामेंटल रिसर्च ) को छोड़ दिया जाए तो लगभग सारे शोध संस्थान इस वक़्त फंड की कमी से जूझ रहे हैं। केवल इन्हीं दो संस्थानो को “देहरादून डेक्लेरेशन” से बाहर रखा गया है।इस घोषणा के दो वर्ष बाद अब स्थिति विकराल रूप धारण कर चुकी है, देश भर के वैज्ञानिक शोध संस्थान इस वक़्त वित्तीय आपातकाल का सामना कर रहे हैं।

पहले भी बहुत सारे रिसर्च प्रोजेक्ट्स फंड की कमी के कारण बंद हुए हैं। फंड की कमी के कारण वर्ष 2015 में  CSIR द्वारा संचालित OSDDC ( ओपन सोर्स ड्रग डेवलपमेंट कंसोर्टियम) प्रोजेक्ट को बंद कर दिया गया है। ज्ञात हो कि OSDDC संक्रामक बीमारियों से निपटने के लिए सस्ती दवाइयों के निर्माण के लिए शुरू किया गया था। इसके तहत एम.डी.आर टी.बी की रोकथाम के लिए PaMZ नामक नई दवा का निर्माण किया जा रहा था, जिससे इस बीमारी के इलाज में लगने वाले समय के एक-तिहाई हो जाने का अनुमान था, परन्तु ओ.एस.डी.डी.सी के बंद हो जाने के बाद अब इस परियोजना का भविष्य अधर में है।

सिर्फ विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय ने ही शोध संस्थानों पर होने वाले खर्चों में कटौती नहीं की है, स्वास्थ्य मंत्रालय भी ऐसे कदम उठा रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा फंडिंग रोकने के कारण नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गेनाईजेशन द्वारा संचालित एच.आई.वी/एड्स की रोकथाम के लिए शोध करने वाले 18 डोनर फाइनैन्स्ड परियोजनाओं और 14 ऑपरेशनल शोध परियोजनाओं को बंद करना पड़ा है।

12 वीं पंच वर्षीय योजना (2012-2017) के तहत मेडिकल अनुसंधान पर 5000 करोड़ रुपये  से भी कम खर्च करने का प्रवधान है। परंतु खुद ICMR (इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च) का मनाना है कि राशि काफी नहीं है, भारत में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य शोध बजट 1 डॉलर से भी कम है तथा इसे जल्द से जल्द बढ़ाने की आवश्यकता है।

पर समस्या केवल फंडिंग की ही नहीं है, वैज्ञानिक व तर्कशील चिंतन को भी नुकसान पहुंचाया जा रहा है। विगत समय में हुए विज्ञान कांग्रेसों में मिथकों को वैज्ञानिक तथ्य साबित करने की कोशिशें की गई। वैज्ञानिकों को “गौ मूत्र व गोबर के चमत्कारिक प्रयोगों” से लेकर “विलुप्त सरस्वती नदी व राम सेतु की खोज” करने के लिए कहा जा रहा है। यहां तक की आयुष मंत्रालय ने ऐसे शोध संस्थान व प्रयोगशालाएं खोलने की परियोजना की शुरुआत की है, जहां गौमूत्र व गोबर के “चमत्कारिक फायदों” पर शोध किया जायेगा। इन परियोजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च करने का बजट भी है। इसी वर्ष अप्रैल में विज्ञान एवं तकनीकी विभाग के अंतर्गत आने वाले SEED ( साइंस फॉर इक्वॉलिटी, एम्पावर्मेंट एंड डेवलपमेंट) ने ज्ञापन जारी किया है , जिसमे “पंचगव्य” पर शोध करने के लिए SVROP (साइंटिफिक वेलिडेशन एंड रिसर्च ऑन पंचगव्य)  नामक परियोजना शुरू करने के लिए राष्ट्रीय संचालन समिति के निर्माण की बात कही गई है।

आयुष मंत्रालय के राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) श्रीपद नाईक ने पिछले वर्ष नवम्बर में लोकसभा में यह बयान दिया था कि गौमूत्र में मौजूद एंटी ऑक्सीडेंट, संक्रमण रोधी, कैंसर रोधी व जैव वर्धक गुणों पर शोध करने के लिए  CSIR के अंतर्गत आने वाले प्रयोगशालायें नागपुर स्थित गो-विज्ञान अनुसंधान केंद्र के साथ मिलकर काम करेंगी। एक बारगी सुनने में यह हास्यास्पद लग सकता है परन्तु यह गंभीर बात है। एक तरफ देशभर के शोध संस्थान आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हैं वही दूसरी और केंद्र सरकार इस किस्म के छद्म वैज्ञानिक अनुसंधानों पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, ऐसा करके वह जनता की गाढ़ी कमाई का दुरुपयोग कर रही है। वस्तुत: केंद्र में सत्ताधारी पार्टी  अपने “हिंदुत्व” के एजेंडे को स्थापित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है।

इन्हीं सब वजहों के कारण आमतौर पर सामाजिक मुद्दों पर खामोश रहने वाली वैज्ञानिक बिरादरी ( साइंटिफिक कम्युनिटी ) को आज सड़कों पर उतरना पड़ रहा है। विगत 9 अगस्त को देश भर के कई शहरों में वैज्ञानिको, शोधार्थियों व छात्रों ने “मार्च फॉर साइंस” नाम से विरोध प्रदर्शन किया। जिसमें उन्होंने यह मांग की कि शिक्षा व शोध संस्थानों पर खर्च बढ़ाया जाए,  शिक्षण पाठ्यक्रमों में सिर्फ प्रामाणिक व तथ्य  आधारित अवधाराणाओं को शामिल किया जाए, अवैज्ञानिक सोच व मिथकों को बढ़ावा देना बंद कर दिया जाए आदि।

अगर जल्द ही शोध संस्थानों पर होने वाले खर्च को नहीं बढ़ाया गया व इसमें निजी क्षेत्रों के निवेश को नहीं रोका गया तो इसके परिणाम विनाशकारी होंगे। ऐसा होने से रोकने के लिए विज्ञान के विद्यार्थियों, शिक्षकों व वैज्ञानिकों को इन रस्मी विरोध प्रदर्शनों से एक कदम आगे आकर सोचना होगा।

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