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छात्रों से कोई लेना देना क्यों नहीं होता DUSU चुनाव को?

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ (डूसू) एक बार फिर दहलीज़ पर दस्तक दे रहा है। चुनाव की तारीख की भी घोषणा हो चुकी है, 12 सितम्बर को वोट डाले जाएंगे। विश्वविद्यालय ने इसके संचालन के लिए टीम का गठन भी कर दिया है। डीयू प्रशासन को तो औपचारिकता पूरी करनी है, लेकिन हर बार की तरह इस बार भी छात्रों का इससे कुछ लेना-देना नहीं है।

सैद्धांतिक रूप से डूसू विश्वविद्यालय की वह इकाई है, जिसे छात्र समूह का प्रतिनिधि माना जाता है। राष्ट्रीय राजधानी में स्थित होने और देश की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी होने के कारण, डूसू हमेशा से सुर्खियों में रहा है। इसने छात्रों और देश की राजनीति को दिशा देने का काम किया है। देश में जब इमरजेंसी में लगी थी और नागरिक अधिकार छीन लिए गए थे, लेकिन आश्चर्य की बात है कि डूसू के चुनाव उस दौरान भी हुए थे। डूसू की ताकत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है।

फोटो आभार: getty images

वक्त के साथ डूसू भी बदला। यह बदलाव भी कमोबेश वैसा ही है जो मुख्यधारा की राजनीति में देखा गया। विश्वविद्यालय का दर्शन, विचारों का निर्माण करना और अच्छे विचारों को स्थापित कर मानव जीवन में सकारात्मक बदलाव लाना है। इस मामले में डूसू के काम करने के तरीके निराश करने वाले हैं। आज डूसू चुनाव, धन बल का पर्याय बनकर रह गए हैं। इस खेल से आम छात्र गायब हैं। अधिकांश छात्रों की इसमें रूचि नहीं रह गयी है।

डूसू अपराध करने का लाइसेंस बनता जा रहा है और इसका इस्तेमाल कैंपस में अराजकता फैलाने, डराने-धमकाने और तोड़फोड़ करने में किया जाता है। दूसरे शब्दों में, डूसू की आड़ में कैंपस में वह सब कुछ किया जा सकता है जो अन्यथा करना मुश्किल है। कुछ समय पहले घटित हुई रामजस कॉलेज की घटना इसका एक अच्छा उदाहरण है। जब हज़ारों छात्र-छात्राओं का हुजूम सड़कों पर उतरकर रामजस कॉलेज की हिंसात्मक घटना का विरोध कर रहा था, तब डूसू इनके विरोध में था।

डूसू अपने छात्रों से बहुत दूर है। मुट्ठी भर लोग इस तथाकथित लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया के हिस्सेदार हैं। चुनावों में लगातार गिरता मत प्रतिशत इस बात की पुष्टि करता है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी की इस सर्वोच्च छात्र प्रतिनिधि इकाई ने अपनी विश्वनीयता खोयी है, साख गंवाई है। डूसू और आम छात्र दो अलग अलग छोर पर खड़े दिखते हैं। डूसू की आलोचना इस बात के लिए भी की जा सकती है कि इसमें समाज के सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व नहीं रहा है। मसलन खास इलाकों से ताल्लुक रखने वाले, कुछ जातियों के लोग इस छात्र संघ के ठेकेदार बन बैठे हैं। याद नहीं कभी किसी मुस्लिम छात्र ने पर्चा भी भरा हो।

इस मामले में जेएनयू छात्रसंघ को एक अच्छा मॉडल कहा जा सकता है, जिसमें आमतौर सभी सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों का प्रतिनिधित्व रहता है। पिछले कुछ वर्षों के चुनाव इसके सबूत हैं कि डूसू की चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के समान अवसर नहीं हैं। कुल मिलाकर डूसू चुनाव एक छोटे स्तर पर लोकतंत्र की हत्या है।

प्रचार का ज़रिया भी उतना ही कुरूप है जितना डूसू। यहां गाड़ियों की कतारें हैं, पोस्टर से पटी दीवारें हैं। एनजीटी और दिल्ली हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। पेपरलेस इलेक्शन बस पेपर की बात है। जबकि लिंगदोह कमिटी की सिफारिश (6.7.5) के मुताबिक चुनाव में छपी हुई प्रचार सामग्री का उपयोग प्रतिबंधित है। यहां तक कि चुनाव जीतने के लिए नाम बदलने की होड़ भी है। दो राष्ट्रीय छात्र संगठन एनएसयूआई और विद्यार्थी परिषद के लिए टिकट देने का पैमाना मेधा या नेतृत्व नहीं, पैसा और बाहुबल है।

गौरतलब है की डीयू छात्र संघ एक वैधानिक दस्तावेज़ से संचालित होता है। जिसके अनुच्छेद 3 में उद्देश्यों का उल्लेख है। यूनिवर्सिटी को लोकतान्त्रिक स्वरुप देना, छात्रों के बीच समता का भाव विकसित करना, सामाजिक सद्भाव कायम करना, राज्य को सहयोग करना आदि डूसू के प्रमुख कार्य हैं। पर अफ़सोस है की डूसू भी भारतीय राजनीति की राह चल रहा है। साथियों, यह कुछ और हो सकता है, दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों का प्रतिनिधि तो नहीं है।

फोटो आभार: getty images

 

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