Site icon Youth Ki Awaaz

अगर बिरसा मुंडा ऊंची जाति के होते तो नैशनल हीरो होते?

Birsa Munda, #धरतीआबा_बिरसामुंडा

आज़ादी की लड़ाई में यूं तो कई आंदोलनकारियों ने अपनी शहादत देकर मुल्क को अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद कराया। अंग्रेज़ों के दमनचक्र के खिलाफ आदिवासी आंदोलनकारियों की भी बड़ी अहम भूमिका रही है। इस सूची में बिरसा मुंडा का नाम सबसे शीर्ष पर शुमार है। उनका दायरा क्षेत्रीय स्तर तक ज़रूर सीमित रहा है, लेकिन उनकी शहादत को कम आंकना बेईमानी होगी।

सन् 1895 में कुछ ऐसा हुआ कि संथाल और मुंडा समाज में बिरसा को भगवान का दर्जा हासिल हो गया और वे पूजनीय हो गए। कहा जाता है कि इसके पीछे भी स्वंय बिरसा मुंडा का ही हाथ रहा है।

खुद को सिंहभोंगा का दूत बताते हुए बिरसा ने अपने दोस्तों के माध्यम से अफवाह फैलाई कि वे भगवान के अवतार हैं। उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि संथालों को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए क्षेत्रीय स्तर पर एकजुट किया जा सके। और इस प्रकार से संथाल और मुंडा समाज में ये खबर फैल गई कि वे बिरसा भगवान हैं।

लोगों में ऐसी धारणाएं भी बन गई कि बिरसा के छुअन मात्र से ही रोग दूर हो जाता है। गौरतलब है कि क्षेत्रीय आंदोलनकारी के तौर पर बिरसा मुंडा ने बहुत अधिक ख्याति प्राप्त की। इतने अहम योगदान के बावजूद भी मौजूदा दौर में देश के मानचित्र पर उनकी छवि धूमिल सी होती जा रही है। अधिकांश बुद्दिजीवियों की मानें तो क्षेत्रीय स्तर पर लड़ाई लड़ने की वजह से वे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो पाएं। बिरसा की छाप राष्ट्रीय स्तर पर क्यों कमज़ोर पड़ गई इस चीज़ को लेकर इंटरनेट पर भी एक ही तरह की जानकारियां बार-बार परोसी जाती हैं। उनके संदर्भ में जो चीजें पहले लिखी जा चुकी है उन्हें ही कॉपी और एडिट कर परोसने का काम किया जा रहा है। इसलिए मैंने सोचा कि क्यों ना इसकी तह तक जाया जाए और शायद कोई बात निकल कर सामने आए।

सोशल एक्टिविस्ट और ऑथर ग्लैडसन डुंगडुंग ने बताया कि मुख्यधारा के इतिहासकार उच्च जाति के रहे हैं, जिनकी मनोवृति ही आदिवासियों के खिलाफ रही है। नकारात्मक सोच की वजह से उनके आंदोलन को नकार दिया गया। यही वजह है कि इतिहासकारों ने उनके आंदोलन को मुख्यधारा में जगह नहीं दी। ऐसी धारणा बनी हुई है कि आदिवासी लोग सेकन्ड क्लास के हैं। उन्होंने आगे बताया कि मौजूदा वक्त में मीडिया भी आदिवासियों को स्थान नहीं देती। टीवी चैनलों पर आदिवासियों को लेकर बहस तो होती है, मगर विशेषज्ञ के तौर पर बहुत कम ही किसी आदिवासी को बुलाया जाता है।

उल्लेखनीय है कि 9 जून 1900 को हैजा की बीमारी के कारण रांची के कारागार में बिरसा मुंडा की मौत हो गई। हालांकि एक मान्यता ये भी है कि जेल में अंग्रेजों के शोषण की वजह से बिरसा मुंडा की मौत हुई।

ग्लैडशन का मानना है कि इतिहास में जो खामियां हुई हैं, अब भी वक्त है उन्हें सही किया जा सकता है। वे कहते हैं कि कहीं न कहीं इतिहासकारों ने जानबूझ कर बिरसा मुंडा के बारे में हकीकत को सामने नहीं लाया। उन्हें लगा कि इतने बड़े आंदोलन के जनक का नाम यदि सामने आ जाए तो वे देश के नेता भी बन सकते हैं।

दुमका जिला स्थित एसपी महिला कॉलेज की अंग्रेजी की सहायक प्रोफेसर अंजुला मुर्मू बताती हैं कि अंग्रेज़ों के खिलाफ उनकी लड़ाई ना सिर्फ आदिवासी समाज के लिए एक प्रेरणा है बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी उनका नाम बड़े गुमान के साथ लिया जाता है। दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि इतिहास के पन्नों से उनका नाम धूमिल होता जा रहा है। बिरसा मुंडा के बारे में जो भी चीज़ें लिखी गई हैं, ज़रूरत है उन पर फिर से काम किया जाए ताकि लोगों को उनके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त हो सके। कहीं न कहीं ऐसा लगता है इनके बारे में लोग बहुत कम जानते हैं। इतिहासकारों को ज़रूरत है और अधिक लिखने की।

एम.जी. कॉलेज रानेश्वर के सहायक प्रोफेसर संतोष कुमार पत्रलेख की माने तो बिरसा मुंडा की लड़ाई क्षेत्रीय स्तर पर लड़ी गई और यही वजह है कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति नहीं मिली।

इसी क्रम में सिद्दो कान्हु मुर्मू विश्वविद्दालय के प्रो. वीसी एस.एन. मुंडा ने बताया कि लोगों में जागरूकता की कमी बिरसा मुंडा के गुमनामी की अहम वजह है। वे कहते हैं कि क्षेत्रीय स्तर पर लड़ी गई लड़ाई से बिरसा मुंडा बड़े हस्ताक्षर के तौर पर ज़रूर उभरे लेकिन आदिवासियों के खिलाफ अंग्रेज़ों की बर्बरता के लिए जो लड़ाई बिरसा मुंडा ने लड़ी उसे बढ़ावा देने की ज़रूरत है।

बतौर छात्र क्रिशचन मिशन का बहिष्कार करने से लेकर अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह करने और अपने आदिवासी समुदाय की हक की लड़ाई के लिए बिरसा मुंडा लंबे वक्त तक अमर रहेंगे। यही वजह है कि झारखंड, उड़ीसा, बंगाल और बिहार के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में बिरसा मुंडा आज भी भगवान की तरह पूजे जाते हैं।

Exit mobile version